तारीख 7 दिसंबर 1941, वो दिन जब जापान ने अमेरिका के इतिहास में तबाही का मंजर लिखा। वो दिन जब अमेरिका का हवाईयन नौसैनिक अड्डा पर्ल हार्बर (Pearl Harbor), जापानी हमले से दहल गया। एक ऐसा हमला जो आश्चर्य और तबाही से भरा था। एक ऐसी घटना जो इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ साबित हुई और अमेरिका को द्वीतीय विश्व युद्ध (Second World War) में कूदना पड़ा।
दरअसल, रविवार की सुबह का समय था। पर्ल हार्बर नौसेनिक अड्डे (Pearl Harbor Base) पर अमेरिकी सैनिक अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त थे। हर रोज की तरह इस दिन भी उनमें से कुछ अखबार पढ़ रहे थे, तो कुछ चाय और कॉफी की चुस्कियाँ ले रहे थे। लेकिन, इस सबके बीच जापानी युद्धक विमान (Japanese warplanes) का एक बेड़ा प्रशांत महासागर (Pacific ocean) को पार कर रहा था, जो लगभग 3,500 मील दूर था। ये बेड़ा अमेरिकी सैनिकों की मौत का सामान लादकर निकला था।
Pearl Harbor Base को दहलाने के इरादे से 7 दिसंबर के सुबह 6 बजे हितोकाप्पू खाड़ी से इन जापानी युद्धक विमानों ने पहली उड़ान भरी थी। इसके एक घंटे बाद जापानी पायलेट्स तबाही की दूसरी लहर लिये हवाई द्वीप (Hawaii Island) की ओर उड़े थे। करीब 7:30 बजे तक इन लड़ाकू विमानों ने Pearl Harbor Base के पास दस्तक दी। बेस पर मौजूद सैनिकों ने जैसे ही आसमान की तरफ देखा तो उनके ऊपर जापानी युद्धक मिमान गिद्ध की तरह मंडरा रहे थे। सुबह 7.48 बजे, 177 जापानी युद्धक विमान हवाई द्वीप ओहू के ऊपर थे। अब ओहू पर फैली शांति जल्द ही टूटने वाली थी।
इससे पहले अमेरिकी सैनिक कुछ समझ पाते तब तक तो इन विमानों ने ताबड़तोड़ बमबारी शुरू कर दी। जापानी सेना के हमले ने अचानक ऐसा आतंक फैलाया कि अमेरिकी प्रशांत बेड़ा (US Pacific Fleet) पूरी तरह से चौंक गई। इस हमले से जापानी बमवर्षकों ने वहाँ मौजूद अमेरिका के 19 युद्धपोतों (Battleships) में से कुछ को समुद्र में डूबा दिया और बचे हुए को क्षतिग्रस्त कर दिया। साथ ही 300 से ज्यादा विमानों (Aircrafts) को बर्बाद कर दिया।
करीब दो घंटे तक जापानी गोलाबारी अमेरिकी युद्धपोतों और सैनिकों पर बरसती रही। इसमें करीब 2403 अमेरिकी सैनिकों ने अपनी जान गंवाई और 1000 से ज्यादा घायल हुए। जबकि इसके विपरीत देखें तो इसमें जापान के 100 से भी कम सैनिक मारे गए। इस हमले ने अमेरिका को पूरी तरह हिला कर रख दिया था। इसने अमेरिका को न केवल द्वीतीय विश्व युद्ध में घसीटा, बल्कि युद्ध की दिशा को भी बदल दिया।
इस हमले के अगले दिन अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने इस दिन का “The date which will live in infamy” (वह तारीख जो बदनामी में रहेगी) के रूप में वर्णन किया। साथ ही रूजवेल्ट ने जापान के खिलाफ युद्ध की घोषणा भी की। इसने अमेरिका और जापान के बीच Pacific war को भी जन्म दिया, जो विशेष रूप से खूनी संघर्ष से लबालब था। इसका घातक परिणाम हिरोशिमा नागासाकी पर परमाणु बम (Atomic Bomb) के रूप में आया, जिसका दर्द आज भी जापान को कराहने पर मजबूर कर देता है। इस प्रकार, Pearl Harbor Attack वह घटना थी जिसने द्वीतीय विश्व युद्ध की कुछ सबसे बुरी घटनाओं को जन्म दिया। साथ ही युद्ध के परिणाम और अंततः मित्र राष्ट्र शक्तियों की जीत के लिए भी यह घटना महत्त्वपूर्ण साबित हुई।
लेकिन अब सवाल यह है कि जापान ने पर्ल हार्बर पर हमला क्यों किया?
दरअसल, इस हमले के इर्द-गिर्द की परिस्थितियाँ वास्तव में जटिल हैं, लेकिन इसके पीछे के कुछ मुख्य कारण स्पष्ट नजर आते हैं। दरअसल, इस हमले की जड़ें चार दशकों से भी ज्यादा पुरानी हैं। 19वीं शताब्दी के मध्य तक, जापान एक अलग-थलग देश के रूप में रहा था। लेकिन, 19वीं सदी के अंत में जापान का औद्योगीकरण हुआ, तो उसने पश्चिमी देशों की नीतियों और तरीकों की नकल करने की कोशिश की। इसके परिणामस्वरूप, जापान ने भी अपने सामानों के लिए प्राकृतिक संसाधनों और बाजारों को सुरक्षित करने के लिए उपनिवेश बनाने की कोशिश की, ठीक उसी तरह जैसे पश्चिमी देशों ने किया था। लेकिन, साम्राज्यवादी विस्तार की जापान की प्रक्रिया ने उसे अमेरिका के साथ टकराव के रास्ते पर लाकर खड़ा कर दिया था, खास तौर पर चीन के मामले में। असल में, एक हद तक, अमेरिका और जापान के बीच संघर्ष चीनी बाज़ारों और एशियाई प्राकृतिक संसाधनों में उनके प्रतिस्पर्धी हितों से उपजा था। हालाँकि, अमेरिका और जापान कई सालों तक पूर्वी एशिया में प्रभाव के लिए संघर्ष कर रहे थे, लेकिन साल 1931 में स्थिति बदल गई थी।
दरअसल, द्वीतीय विश्व युद्ध से पहले के वर्षों में जापान ने एशिया में आक्रामक विस्तारवादी नीतियों को अपनाया था। जापान ने साल 1931 में उत्तरी चीन (North China) के उपजाऊ और संसाधन-समृद्ध प्रांत मंचूरिया पर आक्रमण किया। इसके माध्यम से उसने पूर्वी एशिया में जापानी साम्राज्य बनाने की दिशा में अपना पहला कदम उठाया था। 1932 तक जापान ने मंचूरिया में एक कठपुतली सरकार स्थापित कर दी, जिसका नाम बदलकर मंचूकू (Manchukuo) कर दिया था। लेकिन, अमेरिका ने स्टिमसन सिद्धांत (Stimson Doctrine) के तहत चीन पर थोपी गई नई व्यवस्था या किसी अन्य को मान्यता देने से इनकार कर दिया। लेकिन, इसके बावजूद भी जापानियों ने चीन और इंडोचीन दोनों में विस्तार करना जारी रखा। इससे वे अमेरिका द्वारा नियंत्रित फिलीपींस के बहुत करीब आ गए। इस प्रकार जापान ने क्षेत्र में एक प्रमुख शक्ति के रूप में खुद को स्थापित करने का प्रयास किया। अमेरिकी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने साल 1939 में अपने प्रशांत बेड़े को कैलिफोर्निया से पर्ल हार्बर में पहुँचा दिया। यह कदम जापान के लिए एक खतरा था, जो प्रशांत क्षेत्र में विस्तार करना चाहता था। इस बेड़े से अमेरिका, एशिया यानी जापान सागर, पूर्वी चीन सागर, उत्तरी चीन सागर और फिलीपींस सागर तथा ऑस्ट्रेलिया आदि पर निगरानी रख सकता था।
वहीं, 1941 तक जापान चीन के साथ एक लंबे युद्ध में गहराई से उलझा हुआ था, जिसने उसके संसाधनों को काफी प्रभावित किया। इससे निपटने के लिये जैसे-जैसे जापान ने एशिया में अपनी सैन्य उपस्थिति बढ़ाई, वैसे-वैसे अमेरिका जापानी आक्रामकता को लेकर चिंतित हो गया। यही वजह है कि चीन पर जापान के आक्रमण और उसकी विस्तारवादी महत्वाकांक्षाओं के जवाब में अमेरिका ने आर्थिक और व्यापार प्रतिबंध लगा दिये। अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी. रूजवेल्ट ने जुलाई 1940 में जापान को स्क्रैप लोहा (Scrap iron), इस्पात (Steel), और विमानन ईंधन (Aviation fuel) की शिपमेंट रोक दी। इससे जापान की महत्त्वपूर्ण संसाधनों तक गंभीर रूप से पहुँच बाधित हो गई। इससे निपटने के लिये जापान ने अमेरिका के साथ कूटनीतिक समाधान निकालने की कोशिश की, लेकिन उसके हाथ सिर्फ असफलता लगी। अमेरिका ने जोर देकर कहा कि जापान तुरंत चीन और इंडोचीन से अपनी सेना को वापस बुलाए। 1941 के मध्य तक, प्रतिबंधों ने जापान के लिए लगभग सभी ईंधन आपूर्ति को समाप्त कर दिया था, जिससे एक गंभीर स्थिति उत्पन्न हो गई। ऐसी स्थिति में जापानियों ने तय किया कि अगर स्थिति को कूटनीतिक तरीके से हल नहीं किया जा सकता है, तो हमारे पास सैन्य कार्रवाई ही एकमात्र विकल्प है। इसलिये जापानी नेतृत्व ने निष्कर्ष निकाला कि उन्हें नए क्षेत्रों पर कब्जा करना होगा, जो संसाधनों से समृद्ध हों। इसके लिये उन्होंने डच ईस्ट इंडीज को उनके तेल भंडार के लिए प्राथमिक लक्ष्य माना। हालाँकि, उन्हें डर था कि इन क्षेत्रों पर आक्रमण करने का कोई भी प्रयास अमेरिका से सैन्य प्रतिक्रिया भड़काने जैसा होगा।
जुलाई 1941 में, जापान चावल, रबर और टिन के स्रोत ब्रिटिश मलाया और तेल समृद्ध क्षेत्र डच ईस्ट इंडीज दोनों के खिलाफ हमले की तैयारी में दक्षिणी इंडोचीन क्षेत्र में चला गया। इससे अमेरिका और ख़फा हो गया। इसकी प्रतिक्रिया में रूजवेल्ट ने 26 जुलाई, 1941 को अमेरिका में सभी जापानी संपत्तियों को फ्रीज कर दिया। इस कदम ने प्रभावी रूप से जापान की अमेरिकी तेल तक पहुँच को भी काट दिया। ग्रेट ब्रिटेन और नीदरलैंड जैसे देशों ने जापान में तेल निर्यात पर प्रतिबंध लगाने में अमेरिका का साथ दिया। जापान अब अपने आर्थिक अस्तित्व के लिए आवश्यक कई महत्त्वपूर्ण संसाधनों से वंचित हो गया।
इस स्थिति में अपने अस्तित्व पर संकट का सामना कर रहे जापान ने Pearl Harbor पर US Pacific Fleet को नष्ट करने की योजना बनाई, ताकि वो अपने विस्तार प्रयासों के लिए अमेरिका को समझौता करने पर मजबूर कर सके। दरअसल, जापानी उच्च कमान का मानना था कि Pearl Harbor पर एक अचानक हमला (Surprise attack), अमेरिकी नौसैनिक शक्ति को कमजोर कर देगा। इस योजना को जापानी एडमिरल इसोरोकु यामामोटो ने बनाया, ताकि जब जापानी सेना दक्षिणी प्रशांत में अपने लक्ष्य की ओर आगे बढ़ना शुरू करें तो अमेरिका जवाबी हमला न कर सके। हालाँकि, अपने इस इरादे में जापान कुछ हद तक कामयाब रहा। जापानी सेना ने साल 1942 की शुरुआत में बर्मा, आज का म्यांमार, ब्रिटिश मलाया यानी आज का मलेशिया और सिंगापुर, Dutch East Indies यानी आज का इंडोनेशिया और फिलीपींस सहित कई मौजूदा और पूर्व पश्चिमी औपनिवेशिक क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया। इससे जापान को इन द्वीपों के प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों तक पहुँच मिल गई, जिनमें तेल और रबर जैसे संसाधन भी शामिल थे। लेकिन इसके बावजूद भी बहुत से जानकार मानते हैं कि Pearl Harbor Attack से जापानी अपने इरादे में कामयाब नहीं रहे। बेशक उन्होंने इससे अमेरिका को बड़े स्तर पर नुकसान पहुँचा कर झटका दिया था। लेकिन, इसके बाद भी जापान, प्रशांत क्षेत्र में विस्तार करने में सक्षम नहीं हुआ। उसे उम्मीद के मुताबिक बहुत संसाधन हासिल नहीं हो सके और न ही अमेरिका ने जापान के ऊपर से प्रतिबंध हटाए। इसके उलट वह अमेरिका के साथ एक लंबे युद्ध में उलझ गया।
निष्कर्ष
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि Pearl Harbor Attack का निर्णय जापान की संसाधनों की आवश्यकताओं और अमेरिकी नौसैनिक शक्ति को कमजोर करने की रणनीति से प्रेरित था। यह जापान के लिये एक बड़े जुआ की तरह साबित हुआ, जिसने न केवल उसे युद्ध में उलझाया बल्कि आगे चलकर उसकी हार का कारण भी बना। दरअसल, उस समय जापान के पास कई विकल्प थे। पहला विकल्प था एशिया में अपनी साम्राज्यवादी विजय को रोकना और त्यागना। दूसरा विकल्प था यथास्थिति को बनाए रखना, जिससे अंततः जापान की अर्थव्यवस्था ठप्प पड़ जाती। इन दोनों विकल्पों के कारण जापान की प्रतिष्ठा कम हो जाती। इसलिए, प्रतिबंधों से निपटने और अपने स्वयं के आर्थिक प्रभाव क्षेत्र को स्थापित करने के लिए जापान ने तीसरे विकल्प को चुना। हालाँकि, शुरुआती रूप से सफल होने पर भी यह हमला कुछ मायनों में असफल रहा। इसने अंततः एक ‘सोते हुए शेर’ को जगाने का काम किया, जिसने बाद में सबसे ज्यादा जापान को ही घायल किया। जून 1942 में मिडवे की लड़ाई (Battle of Midway) में अमेरिका ने एक बड़ी जीत हासिल की, जिसने प्रशांत क्षेत्र में युद्ध की दिशा को निर्णायक रूप से बदल दिया। इस हमले ने अमेरिका को द्वीतीय विश्व युद्ध में प्रवेश दिया, जिसने इतिहास का रुख बदल दिया। इस तरह यह दिखाता ृहै कि कैसे कुछ अप्रत्याशित कदम वैश्विक स्तर पर गंभीर परिणाम पैदा कर सकते हैं।
Discover more from UPSC Web
Subscribe to get the latest posts sent to your email.