पसंद का विरोधाभास: कैसे स्वतंत्रता चिंता की ओर ले जाती है?

The paradox of choice

स्वतंत्रता और पसंद की अवधारणाएं मानव सभ्यता के विकास के साथ गहराई से जुड़ी हुई हैं, जो हमारी आकांक्षाओं, सपनों और स्वतंत्रता के प्रतीक हैं। हालांकि, आधुनिक समाज में, जहाँ पसंदों और विकल्पों की भरमार है, एक अप्रत्याशित विरोधाभास सामने आया है। यह विरोधाभास है “पसंद का विरोधाभास”, जो बताता है कि कैसे अधिक स्वतंत्रता यूँ कहें कि कैसे अधिक पसंद की स्वतंत्रता वास्तव में हमें अधिक चिंता और असंतोष की ओर ले जा सकती है।

दरअसल, आधुनिक समाज में स्वतंत्रता और विकल्पों की बहुलता को अक्सर उन्नति और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। विज्ञान, तकनीकी और वैश्वीकरण के विकास ने लोगों के जीवन में असीमित संभावनाएं खोल दी हैं। चाहे शिक्षा का क्षेत्र हो, करियर के अवसर हों, उपभोग की वस्तुओं की उपलब्धता हो या फिर मनोरंजन के साधन हों, सभी जगह आज विकल्पों की भरमार है। हालाँकि स्वतंत्रता और विकल्पों की विविधता को सामान्यत: सकारात्मक माना जाता है, लेकिन यह अक्सर चिंता, असंतोष और पछतावे की भावनाओं को भी जन्म देता है। इसे ही ‘पसंद का विरोधाभास’ कहा जाता है।

असल में, ‘पसंद का विरोधाभास’ शब्द अमेरिकी मनोवैज्ञानिक बैरी श्वार्ट्ज द्वारा वर्ष 2004 में प्रकाशित पुस्तक “The Paradox of Choice: Why More Is Less” से आया है। श्वार्ट्ज के अनुसार, जब लोगों के पास अधिक विकल्प होते हैं, तो वे अक्सर खुशी के बजाय अधिक चिंता, पछतावा और असंतोष का अनुभव करते हैं। अधिक पसंदों की उपलब्धता निर्णय लेने की प्रक्रिया को जटिल बना देती है, जिससे व्यक्ति अपने निर्णय पर दूसरा विचार करता है, और अंततः उसे यह डर सताता है कि शायद उसने सही चुनाव नहीं किया। इसे एक उदाहरण से समझा सकता जा सकता है। आज के समय में बाजार में खरीदारों के पास अक्सर एक ही प्रकार के उत्पाद के अनेक विकल्प होते हैं। मान लीजिए आप एक नया स्मार्टफोन खरीदने जा जाते हैं और बाजार में सैकड़ों मॉडल उपलब्ध हैं। प्रत्येक मॉडल के अपने विशिष्ट फीचर्स, डिजाइन और मूल्य हैं। ऐसे में आपके लिये यह निर्णय लेना कठिन हो जाता है कि कौन सा फोन लेना सही होगा। आप मन यही आता रहेगा कि कहीं इससे बेहतर कोई दूसरा फोन तो नहीं है। और अगर आपने किसी तरह से कोई फोन खरीद भी लिया तो उसके बाद भी आपको यह चिंता सताती रह सकती है कि कहीं आपने गलत फोन का चुनाव त नहीं कर लिया। क्या पता थोड़ा और देखता तो इससे और अच्छा फोन मिल जाता।

यही बात आज करियर के संबंध में भी लागू होती है। आज की आधुनिक दुनिया में लोगों के पास करियर बनाने के लिये अनगिनत विकल्प और रास्ते हैं। एक समय में लोगों के पास सीमित करियर विकल्प होते थे। वे ज्यादातर पारिवारिक पेशे या स्थानीय अवसरों तक सीमित होते थे। लेकिन इसके उलट आज लोगों के पास विश्वव्यापी अवसरों तक पहुँच है। ऐसे में उनके सामने चुनाव की चिंता और फैसला न कर पाने की भावना बढ़ जाती है। इस अधिकता से व्यक्ति अपने चुने हुए मार्ग पर कम आश्वस्त महसूस कर सकता है। वो अक्सर सोचता है शायद इससे बेहतर विकल्प हो सकता था या क्या इससे बेहतर कोई और विकल्प है।

इससे एक अन्य उदाहरण के जरिये भी समझ सकते हैं। आज के आधुनिक दुनिया में सोशल मीडिया ने लोगों को न केवल दुनिया भर के लोगों से जोड़ा है बल्कि यह भी अवसर दिया है कि हमेशा कुछ बेहतर हो सकता है। इस विचार को तमाम डेटिंग ऐप्स और सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने और अधिक पुष्ट किया है। ऐसा माना जाता है कि इन एप्स का उपयोग करने वाले लोग अपने मौजूदा संबंधों में कम संतुष्ट महसूस करते हैं। वो हमेशा यह सोचते हैं कि क्या कहीं और कुछ बेहतर मिल सकता है।

असल में, जब कोई अनगिनत विकल्पों के समुद्र में खड़ा होता है, तो उसके लिये यह मानना आसान हो जाता है कि अधिक स्वतंत्रता उसे अधिक खुशी देगी। हालाँकि, वास्तविकता अक्सर इससे उलट होती है। दरअसल जब लोगों के पास अत्यधिक विकल्प होते हैं, तो उन्हें सर्वोत्तम निर्णय लेने के लिए सभी संभावनाओं का मूल्यांकन करना पड़ता है। इससे विश्लेषण पक्षाघात हो सकता है, जहाँ वे इतने अधिक विकल्पों से अभिभूत हो जाते हैं कि वे कोई भी निर्णय लेने में असमर्थ हो जाते हैं। जब व्यक्ति एक निर्णय लेता है, तब भी उसे चिंता सता सकती है कि कहीं उसने गलत चुनाव तो नहीं किया। इसके अलावा, अधिक विकल्पों की उपलब्धता से उम्मीदें बढ़ जाती हैं। जब ये उम्मीदें पूरी नहीं होतीं, तो व्यक्ति असंतोष का अनुभव करता है। इस प्रक्रिया में व्यक्ति अनिश्चितता और असंतोष की भावनाओं से घिर जाता है। वो खुद से पूछता है “क्या मैंने सही चुनाव किया है? क्या कुछ और बेहतर हो सकता था” इस तरह की सोच उसे एक अंतहीन चक्र में फंसा देती है, जहाँ संतोष की भावना दुर्लभ होती जाती है। यह खासकर तब और भी जटिल हो जाता है जब यह संबंधों और करियर के चुनावों जैसे जीवन के महत्त्वपूर्ण निर्णयों की बात आती है।

हालाँकि इस दुविधा का सामना करने के लिए कुछ मौलिक रणनीतियों पर कार्य किया जा सकता हैं। इसमें पहली रणनीति है कि विकल्पों की संख्या को स्वेच्छा से सीमित करना। जब हम अपने विकल्पों को सीमित करते हैं, तो हम निर्णय लेने की प्रक्रिया को सरल बनाते हैं और उन विकल्पों के प्रति अधिक संतुष्ट होते हैं, जिन्हें हम चुनते हैं। दूसरी रणनीति है आभार की भावना को बढ़ावा देना। दरअसल, जब हम उन चीजों के लिए आभारी होते हैं जो हमारे पास पहले से मौजूद हैं, तो हम अपने चुनावों से अधिक संतुष्ट होते हैं। ऐसे में कम संभावना है कि हम उनकी दूसरे विकल्पों के साथ तुलना करें। इसके अलावा स्वयं की गहराई से समझ विकसित करना भी महत्त्वपूर्ण है। जब हम अपनी प्राथमिकताओं, मूल्यों और आकांक्षाओं को समझते हैं, तो हम उन विकल्पों को चुनने में बेहतर होते हैं जो हमारे लिए सबसे अधिक सार्थक हैं। कुल मिलाकर, विकल्पों के प्रबंधन, आभार की भावना और आत्म-ज्ञान के माध्यम से हम इस विरोधाभास को समझ सकते हैं और एक अधिक संतोषजनक तथा पूर्तिकारक जीवन की ओर बढ़ सकते हैं।

संक्षेप में कहा जाए तो “पसंद का विरोधाभास” हमें यह समझने में मदद करता है कि कैसे अधिक स्वतंत्रता और विकल्प, जो सतह पर एक लाभ की तरह प्रतीत होते हैं, वास्तव में हमें चिंता और असंतोष की ओर ले जा सकते हैं। कई शोध इसे प्रमाणित भी करते हैं कि अधिक विकल्प वास्तव में चिंता, अवसाद और निर्णय लेने में कठिनाइयों की ओर ले जा सकते हैं।


Discover more from UPSC Web

Subscribe to get the latest posts sent to your email.