क्या नैतिक होने के लिये धार्मिक होना जरूरी है? और, क्या धार्मिक होने के लिये नैतिक होना अनिवार्य है?
असल में धर्म और नैतिकता के बीच का संबंध एक ऐसा विषय है जो सदियों से विचारकों, दार्शनिकों और आम लोगों के बीच चर्चा का विषय रहा है। अनेक लोग मानते हैं कि नैतिकता का आधार धर्म है और बिना धर्म के नैतिकता का पालन संभव नहीं है। वहीं, दूसरी ओर कई विचारक और दार्शनिक इस बात पर ज़ोर देते हैं कि नैतिकता और धर्म अलग-अलग विषय हैं और नैतिक होने के लिए धार्मिक होना जरूरी नहीं है। दरअसल, धर्म शाश्वत या स्थाई मूल्यों की बात करता है और नैतिकता समाज व व्यक्ति की आवश्यकता और सुविधा के अनुसार बदलती है। धर्म के आदर्श अप्रत्यक्ष और कृत्रिम तरीकों से व्यक्ति तथा समाज को प्रभावित करते हैं, जबकि नैतिकता आचरण की वस्तु है।
अब प्रश्न है कि क्या धार्मिक होने के लिए नैतिक होना अनिवार्य है? तो धर्म और नैतिकता के आपसी संबंधों के निर्धारण से पहले हमें दोनों अवधारणाओं को गहराई से समझना होगा और यह देखना होगा कि वे एक-दूसरे से कैसे संबंधित हैं। दरअसल, धर्म शब्द का प्रयोग आमतौर पर दो अर्थों में होता है। भारतीय दर्शन में धर्म का व्यापक अर्थ स्व-कर्तव्य पालन से है। यदि इस दृष्टि से देखें तो धर्म और नैतिकता में कोई भेद नहीं रहता, क्योंकि यहाँ नैतिक दायित्वों की पूर्ति को धर्म कहा गया है। वहीं अगर धर्म को रिलिजन यानी मजहब या पंथ के अर्थ में लिया जाए, तो धर्म एक ऐसी व्यापक अभिवृत्ति है जो मनुष्य के जीवन को प्रभावित करती है। यह किसी अलौकिक सत्ता या अवस्था में आस्था रखती है और इसमें ज्ञानात्मक, भावनात्मक और क्रियात्मक तीनों पक्ष शामिल होते हैं। इस तरह धर्म और नैतिकता में संयोग का संबंध स्थापित होता है।
अगर सरल शब्दों में कहा जाए तो नैतिकता, सही और गलत के बीच अंतर करने की क्षमता है। यह वह सिद्धांत है जो एक व्यक्ति को यह तय करने में मदद करता है कि किस प्रकार का आचरण उचित है और किस प्रकार का आचरण अनुचित है। दूसरी ओर, धर्म एक संगठनात्मक प्रणाली है जो विश्वास, प्रथाओं और नैतिकता को स्थापित करती है, जो एक समुदाय या समूह द्वारा साझा की जाती है। धार्मिक आस्थाएं कई बार नैतिक सिद्धांतों को मजबूत करती हैं और लोगों को नैतिक जीवन जीने के लिए प्रेरित करती हैं। उदाहरण के लिए हिंदू धर्म में अहिंसा और सत्य की महिमा है, इस्लाम में ईमानदारी और न्याय पर जोर दिया जाता है और ईसाई धर्म में प्रेम और करुणा को महत्व दिया जाता है। इस तरह इन धार्मिक सिद्धांतों ने समाज में नैतिकता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
हालाँकि, यह मान लेना कि नैतिक होने के लिए धार्मिक होना अनिवार्य है, एक संकीर्ण दृष्टिकोण हो सकता है। नैतिकता का आधार केवल धार्मिक मान्यताएँ नहीं होतीं। नैतिकता मानवता का एक मूलभूत गुण है जो तर्क, अनुभव और सहानुभूति पर आधारित होता है। ऐतिहासिक और आधुनिक समय में कई ऐसे लोग हुए हैं जो धार्मिक नहीं थे, फिर भी उन्होंने अत्यधिक नैतिक और समाजसेवी जीवन जिया। मदर टेरेसा, महात्मा गांधी और रेरडेल जैसे व्यक्तित्वों ने धार्मिक होने के बावजूद भी अपने नैतिक कार्यों के कारण दुनिया में एक अनूठी पहचान बनाई। गांधी जी के अनुसार बुद्धि पर टिकी नैतिकता बड़े लालच और भय के सामने कमजोर सिद्ध होती है। जबकि धर्म पर टिकी हुई नैतिकता व्यक्ति के विचारों के स्तर पर नहीं, बल्कि उसके मूल्यों और संस्कारों के स्तर पर कार्य करती है। दरअसल, धार्मिक व्यक्ति की नैतिकता में विचलन का खतरा तुलनात्मक रूप से कम होता है। हालाँकि, यह सच है कि धर्म नैतिकता को मजबूती देता है, परंतु धर्म नैतिकता को अनैतिक भी बना देता है। जैसे धर्म के कारण समाज में वर्ण व्यवस्था, कर्मकाण्ड और महिलाओं की निम्न स्थिति आदि।
दूसरी तरफ विभिन्न दर्शनशास्त्रियों ने नैतिकता को धर्म से अलग करने की कोशिश की है। इमैनुएल कांट जैसे विचारकों ने नैतिकता को एक आत्मनिर्भर प्रणाली के रूप में देखा जो तर्कसंगतता और मानवता के सम्मान पर आधारित है। कांट का मानना था कि नैतिकता का पालन करने के लिए किसी बाहरी धर्म की आवश्यकता नहीं है, बल्कि यह व्यक्ति की अंतःकरण की आवाज़ है जो उसे सही और गलत का बोध कराती है। ऐसे ही जवाहर लाल नेहरू, कार्ल मार्क्स आदि धर्म और नैतिकता को परस्पर विरुद्ध मानते हैं। धर्म निरपेक्ष नैतिकता के समर्थकों का मानना है कि धर्म मनुष्य को परलोकवादी बनाता है, जबकि नैतिकता का संबंध तो इसी जगत से है। उनके अनुसार धर्म शोषण की व्यवस्था है और अनैतिकता का अड्डा है। विभिन्न धर्मों में नैतिकता के भिन्न-भिन्न दावे हैं, जिनमें अंतर्विरोध है। धर्म निरपेक्ष नैतिकता के समर्थक अपने तर्क में कहते हैं कि यदि जैन धर्म की अहिंसा नैतिक है तो विभिन्न धर्मों में विद्यमान हिंसा जैसे इस्लाम में बकरी ईद कैसे नैतिक हो सकती है।
इस तरह यह कहना कि धार्मिक होने के लिए नैतिक होना अनिवार्य है, एक जटिल प्रश्न है। कई बार यह देखा गया है कि व्यक्ति धार्मिक होते हुए भी नैतिक आचरण से भटक सकते हैं। उदाहरण के लिए, धार्मिक कट्टरता, साम्प्रदायिक हिंसा और अन्य प्रकार के अनैतिक आचरण उन व्यक्तियों द्वारा भी किया जा सकता है जो अपने आप को धार्मिक मानते हैं। यह दर्शाता है कि धर्म का पालन करने वाले सभी लोग नैतिक नहीं होते। दरअसल धर्म का उद्देश्य मानवता के कल्याण के लिए नैतिकता को प्रोत्साहित करना होता है, लेकिन यह हमेशा सफल नहीं हो पाता। विभिन्न धार्मिक ग्रंथों और उपदेशों में नैतिकता की शिक्षा दी जाती है, लेकिन व्यक्ति की नैतिकता उसके व्यक्तिगत अनुभव, परिवेश और सोच पर भी निर्भर करती है। धर्म का पालन करना एक व्यक्तिगत निर्णय है और व्यक्ति की नैतिकता इस पर निर्भर करती है कि वह किस प्रकार से अपने धर्म को समझता और मानता है।
अंत में यही कहा जा सकता है कि नैतिकता एक सार्वभौमिक मूल्य है जो किसी भी धार्मिक आस्था या अनास्था के बावजूद मानवता के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित होती है। नैतिकता का पालन व्यक्ति के तर्क, समझ और संवेदनशीलता पर निर्भर करता है न कि उसके धार्मिक विश्वास पर। धर्म निरपेक्ष नैतिकता गतिशील है और वैज्ञानिक मनोवृत्ति पर आधारित है, परन्तु इसमें विचलन का खतरा ज्यादा है। वहीं धार्मिक नैतिकता अपने आधारों पर मजबूती से टिकी है, परन्तु इसमें रुढ़िवादिता का तत्व मौजूद है। इसलिये आदर्श स्थिति यह होनी चाहिए कि जहाँ नैतिकता में धर्म वाली मजबूती तो हो किंतु कुरीतियाँ न हों।
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