राज्य सभा (Rajya Sabha) की प्रासंगिकता: समाप्ति या सुधार?
भारतीय लोकतंत्र की विशेषता इसकी जटिल, परंतु संतुलित संरचना में निहित है। इस ढांचे का केंद्रीय स्तंभ है—द्विसदनीय संसद, जिसमें लोक सभा और राज्य सभा दो मुख्य सदन हैं। लोक सभा (Lok Sabha), प्रत्यक्ष जनादेश की प्रतीक है, जो भारत की जनता द्वारा चुनी जाती है। वहीं, राज्य सभा (Rajya Sabha) एक परोक्ष रूप से निर्वाचित सदन है, जिसे संविधान निर्माताओं ने भारत की संघीय भावना, विविधता और विशेषज्ञता को आवाज़ देने के उद्देश्य से निर्मित किया।
संविधान सभा की बहसों में द्विसदनीयता की व्यवस्था को संतुलन और विवेक का माध्यम माना गया था। लोक सभा जनभावनाओं की तीव्र अभिव्यक्ति है, वहीं राज्य सभा उन भावनाओं की गहन समीक्षा और विवेचन का मंच मानी गई। यह उस परिपक्व लोकतंत्र की पहचान थी, जिसमें नीति निर्माण केवल तात्कालिक जन-भावनाओं पर नहीं, बल्कि दूरदृष्टि, विविध अनुभवों और संघीय साझेदारी पर आधारित हो।
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हालाँकि, वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में राज्य सभा की भूमिका को लेकर कई सवाल उठने लगे हैं। एक ऐसा सदन जो सीधे जनता द्वारा नहीं चुना गया, वह यदि विधायी प्रक्रिया में निर्णायक भूमिका निभाता है, तो क्या यह लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप है? क्या यह उस नैतिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करता है, जो लोकतंत्र में अनिवार्य रूप से जनता के प्रति अपेक्षित होता है? क्या यह संस्था अपने मूल उद्देश्य पर कायम है, या अब यह केवल राजनीतिक रणनीतियों और दलगत हितों का उपकरण बनकर रह गई है?
राज्य सभा को एक समय ‘संविधान की विवेकशील आत्मा’ माना जाता था। किंतु आज यह धारणा धुंधली पड़ती जा रही है। आलोचकों का कहना है कि यह अब नीतियों की प्रामाणिकता सुनिश्चित करने वाला मंच न रहकर, राजनीतिक दांव-पेंच का अखाड़ा बन गया है। दूसरी ओर, इसके समर्थकों का मत है कि यह अब भी हमारे संघीय ढांचे की रीढ़ है, जो क्षेत्रीय आवाज़ों, लघु राज्यों और विशेषज्ञ विचारों को प्रतिनिधित्व देती है।
यह बहस केवल एक संवैधानिक विमर्श नहीं है, यह नैतिक और व्यावहारिक दृष्टिकोण से भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। यदि राज्य सभा को समाप्त करने की माँग को गंभीरता से लिया जाए, तो यह भारत के लोकतंत्र की दिशा और संतुलन दोनों पर गहरे प्रभाव डाल सकती है।
इस लेख का उद्देश्य न तो किसी पक्ष को खारिज करना है, और न ही किसी निष्कर्ष को थोपना। बल्कि यह प्रयास है राज्य सभा की प्रासंगिकता, भूमिका और भविष्य को तथ्यों, ऐतिहासिक उदाहरणों, राजनीतिक घटनाओं और अंतरराष्ट्रीय तुलनाओं के आलोक में निष्पक्ष रूप से समझने का। यह वही विमर्श है, जो यह तय करेगा कि क्या राज्य सभा भारत की लोकतांत्रिक प्रणाली में आज भी अपरिहार्य है, या अब समय आ गया है कि इसे समाप्त कर दिया जाए।
द्विसदनीयता की समीक्षा: क्या समय आ गया है बदलाव का?
कांग्रेस नेता और सांसद मनीष तिवारी ने इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने लेख में इस बहस को नया आयाम दिया। उन्होंने प्रश्न उठाया कि राज्य सभा की वह कौन-सी विशिष्ट भूमिका है, जिसे लोक सभा स्वयं पूरी नहीं कर सकती? उनके अनुसार, अब समय आ गया है कि राज्य सभा को समाप्त कर दिया जाए। उन्होंने इसके लिए ठोस तर्क प्रस्तुत किए हैं। उदाहरण के लिए, उन्होंने संविधान सभा के सदस्य लोकनाथ मिश्रा का उल्लेख किया, जिन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि इस सदन के गठन से केवल जनता का धन और समय व्यर्थ होगा। उनका मानना था कि यदि राज्य सभा का गठन न हो, तो देश को कोई विशेष हानि नहीं होगी। वर्तमान परिदृश्य में यह तर्क सत्य प्रतीत होता है। आज राज्य सभा में सार्थक चर्चा के स्थान पर केवल हंगामा होता है। अब यह सदन सरकार के कार्यों में बाधा उत्पन्न करने के लिए जाना जाता है। इसका कार्य विधेयकों को विलंबित करना, अवरोध और व्यवधान उत्पन्न करना तक सीमित रह गया है। लोक सभा, जो जनता के प्रत्यक्ष जनादेश से गठित होती है, जब कोई विधेयक पारित करती है, तो उसमें जनता की आवाज़ होती है। किंतु अप्रत्यक्ष रूप से चुने गए सदस्यों वाली राज्य सभा प्रायः इस प्रक्रिया में बाधा बन जाती है। कई बार यह सदन सरकार के एजेंडे को चुनौती देने या विपक्ष के राजनीतिक लाभ के लिए विधेयकों को रोकने का कार्य करता है। इससे यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठता है—क्या एक लोकतंत्र में ऐसी संस्था को, जिसे जनता ने प्रत्यक्ष रूप से नहीं चुना, कानून बनाने का अधिकार होना चाहिए? लोकतंत्र का अर्थ है जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन। किंतु राज्य सभा के मामले में जनता की प्रत्यक्ष भूमिका नगण्य है। भारत एक लोकतांत्रिक देश होने के बावजूद इस प्रक्रिया में जनता की सीधी भागीदारी क्यों नहीं है?
एक अन्य प्रश्न यह भी है कि विश्व के कई देश केवल एक सदन वाली संसद से कार्य चला रहे हैं। फिर भारत में दो सदनों की व्यवस्था क्यों आवश्यक है? इससे अनावश्यक व्यय क्यों किया जा रहा है? जनता का धन इतना सस्ता नहीं कि इसे बिना सोचे-समझे खर्च किया जाए। राज्य सभा के संचालन का व्यय कोई मामूली राशि नहीं है। इसमें 245 सांसद हैं, और प्रत्येक सांसद का वेतन, भत्ते, यात्रा, कार्यालय आदि पर प्रतिवर्ष करोड़ों रुपये खर्च होते हैं। केंद्रीय बजट 2025 में राज्य सभा के लिए 413 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे, जिनमें से 98.84 करोड़ रुपये सांसदों के लिए निर्धारित किए गए। क्या इतनी बड़ी राशि खर्च करने का कोई औचित्य है? क्या यह मान लिया जाए कि राज्य सभा का समय अब समाप्त हो चुका है और इसे समाप्त कर देना चाहिए? यह प्रश्न छोटा नहीं है, क्योंकि यह हमारे लोकतांत्रिक ढाँचे के मूल को चुनौती देता है। दूसरी ओर, यह हमारे संघीय ढाँचे का आधार स्तंभ प्रतीत होता है, जो नियंत्रण और संतुलन प्रदान करता है तथा छोटे राज्यों की आवाज़ को राष्ट्रीय स्तर पर सुनिश्चित करता है।
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राज्य सभा के विरुद्ध तर्क
मनीष तिवारी के अनुसार, राज्य सभा की प्रासंगिकता पर सवाल उठना स्वाभाविक है, क्योंकि यह महत्वपूर्ण विधेयकों को पारित होने में विलंब उत्पन्न करती है। विशेष रूप से तब, जब सत्तारूढ़ दल लोक सभा में बहुमत में होता है, किंतु राज्य सभा में नहीं। ऐसी स्थिति में कई महत्वपूर्ण विधेयक राज्य सभा में अटक जाते हैं। कई बार यह देखा गया है कि विधेयकों को जानबूझकर राजनीतिक लाभ के लिए विलंबित किया गया। इतिहास में कई उदाहरण हैं, जहाँ राज्य सभा ने महत्वपूर्ण विधानों को अवरुद्ध या विलंबित किया। उदाहरण के लिए, 1970 में, जब सरकार रियासतों के शासकों के विशेषाधिकार समाप्त करना चाहती थी, तब लोक सभा ने प्रिवी पर्स बिल पारित किया, किंतु राज्य सभा में इसे विलंबित कर दिया गया। यह वह समय था, जब देश आर्थिक चुनौतियों का सामना कर रहा था, और यह विलंब सरकार के सुधारों को धीमा कर रहा था। इसी प्रकार, 1989 में पंचायती राज विधेयक, जो स्थानीय स्वशासन को सशक्त करने के लिए था, को भी राज्य सभा ने विलंबित किया। 2002 में, आतंकवाद विरोधी विधेयक, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण था, उसे भी राज्य सभा द्वारा अवरुद्ध किया गया। ये विलंब न केवल सरकार के एजेंडे को रोकते हैं, बल्कि जनहित को भी प्रभावित करते हैं। यदि राज्य सभा न होती, तो शायद ये विधेयक शीघ्र पारित हो जाते और जनता को त्वरित लाभ मिलता। इससे स्पष्ट है कि राज्य सभा एक अवरोधक संस्था बन गई है, जो प्रगति को धीमा करती है। एक अन्य आधुनिक उदाहरण है 2014 का वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) विधेयक, जो लोक सभा से पारित हुआ, किंतु राज्य सभा में 2016 तक अटका रहा। इस विलंब के कारण व्यवसायियों और उपभोक्ताओं को अनिश्चितता का सामना करना पड़ा, जिससे संभावित आर्थिक नुकसान हुआ। छोटे व्यापारी और दुकानदार, जो जीएसटी के कार्यान्वयन की प्रतीक्षा कर रहे थे, उन्हें दो वर्ष तक भ्रम में रहना पड़ा।
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उत्पादकता का प्रश्न
राज्य सभा की उत्पादकता के आंकड़े निराशाजनक हैं। इसकी कार्यक्षमता समय के साथ घटती जा रही है। राज्य सभा में भी अब लोक सभा की तरह ही विधायी कार्यों में अवरोध और व्यवधान बढ़ गए हैं। लोक सभा में पहले से ही सरकार और विपक्ष के बीच टकराव देखने को मिलता रहा है। इन टकरावों के कारण कभी विपक्ष ने सदन से बहिर्गमन किया, तो कभी पूरे सत्र का बहिष्कार किया। कई बार विपक्ष ऐसा अनुशासन तोड़ता है कि सभापति को मजबूरन कार्यवाही समय से पहले स्थगित करनी पड़ती है। 1990 के मध्य तक राज्य सभा ने शांत और संयमित तरीके से कार्य किया। यह अपने पूरे समय तक कार्य करती थी, और कभी-कभी निर्धारित समय से अधिक भी चलती थी। 1995-1997 के बीच इसकी उत्पादकता 95% थी, अर्थात् सत्रों का समय पूर्णतः उपयोग होता था। किंतु धीरे-धीरे यह घटती गई—1998-2003 में 90%, 2004-2013 में 80%, और 2014-2021 में केवल 74%! 2018 के बजट सत्र में तो उत्पादकता 40% तक गिर गई। यह स्थिति चिंताजनक है। सत्रों का समय विरोध प्रदर्शनों, हंगामे, और अनावश्यक बहसों में व्यर्थ होता है। 2018 के बजट सत्र में इतना हंगामा हुआ कि महत्वपूर्ण विधेयक और चर्चाएँ नहीं हो सकीं। यह स्थिति दर्शाती है कि राज्य सभा अब उतनी प्रभावी नहीं रही, जितनी पहले थी। तुलना करें, तो अन्य देशों में द्विसदनीय प्रणालियों की उत्पादकता बेहतर है। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया की सीनेट की उत्पादकता 85% से अधिक रहती है, क्योंकि वहाँ व्यवधानों के लिए कठोर नियम हैं। ऐसी स्थिति में एक सामान्य नागरिक के लिए यह सोचना स्वाभाविक है कि जब हम अपने करों से संसद चलाते हैं, तो क्या हमें इस प्रकार का हंगामा सहन करना चाहिए? हमारे धन का यह कैसा उपयोग है? क्या हमें ऐसे व्यवधानों के लिए भुगतान करना चाहिए?
राज्यों का प्रतिनिधित्व
राज्य सभा के साथ एक अन्य बड़ा मुद्दा यह है कि यह अब राज्यों का प्रभावी प्रतिनिधित्व नहीं करती। इसका मूल उद्देश्य राज्यों के हितों को राष्ट्रीय स्तर पर आवाज़ देना था। किंतु 2003 में डोमिसाइल नियम हटाए जाने के बाद यह उद्देश्य लगभग समाप्त हो गया। पहले यह अनिवार्य था कि राज्य सभा के सदस्य उस राज्य के निवासी हों, जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं। किंतु अब कोई भी व्यक्ति किसी भी राज्य से चुनाव लड़ सकता है, चाहे उसका उस राज्य से कोई संबंध हो या न हो। 2003 में, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में संशोधन कर इस शर्त को हटा दिया गया। यह राज्य सभा की गुणवत्ता को प्रभावित करने वाला कदम था। क्योंकि राज्य सभा का उद्देश्य राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करना था, इसलिए यह माना जाता था कि इसके सदस्यों का उस राज्य का निवासी होना आवश्यक है। किंतु इस संशोधन ने इस शर्त को समाप्त कर दिया। यद्यपि इसे एक याचिका के माध्यम से चुनौती दी गई, किंतु सर्वोच्च न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया। *कुलदीप नायर बनाम भारत सरकार, 2006* में न्यायालय ने निर्णय दिया कि यह संघीय सिद्धांत नहीं है कि किसी राज्य का प्रतिनिधि उसका सामान्य निवासी भी हो। न्यायालय ने तर्क दिया कि 1919 और 1935 के भारत सरकार अधिनियमों में ऐसी कोई शर्त नहीं थी। न्यायालय ने कहा कि उच्च सदन का उद्देश्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर गरिमापूर्ण बहस करना और अनुभवी व्यक्तियों के अनुभव को साझा करना है, इसलिए डोमिसाइल कोई अनिवार्य मानदंड नहीं है। परिणामस्वरूप, 2019 में 41 राज्य सभा सदस्य ऐसे थे, जो उस राज्य के निवासी नहीं थे, जिसका वे प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यदि ये लोग उस राज्य में रहते ही नहीं, तो स्थानीय मुद्दों को कैसे समझेंगे? उदाहरण के लिए, यदि मुंबई का कोई व्यवसायी बिहार से राज्य सभा में जाता है, तो क्या वह बिहार के किसानों या मजदूरों की समस्याओं को हृदय से समझ पाएगा? यह कठिन है। इस कारण राजनीतिक दल अपने पसंदीदा व्यक्तियों—चुनाव हार चुके नेताओं, मशहूर हस्तियों, या बड़े व्यवसायियों—को राज्य सभा में भेजते हैं। यह एक प्रकार से पीछे के दरवाजे से प्रवेश का माध्यम बन गया है। दल उन लोगों को नामित करते हैं, जो लोक सभा चुनाव हार जाते हैं, या फिर फिल्मी सितारों और खेल हस्तियों को प्रतीकात्मक रूप से भेजते हैं। ये लोग अपने राज्य से अधिक अपनी पार्टी के प्रति निष्ठावान होते हैं। यह भी सत्य है कि राज्य सभा के चुनावों में धन की बड़ी भूमिका होती है। साक्ष्य दर्शाते हैं कि सीटों का चयन एक प्रकार की नीलामी बन गया है, जहाँ वित्तीय समर्थन के बदले दल सीटें वितरित करते हैं। इसके अतिरिक्त, जनप्रतिनिधित्व अधिनियम में संशोधन ने आवश्यकता को और कमजोर किया, जिसमें कहा गया कि राज्य सभा के चुनावों में मतदान ‘खुला’ होना चाहिए, अर्थात् विधायकों को अपने मत को अपनी पार्टी के प्रतिनिधि को दिखाना होगा। यदि कोई विधायक अपनी पार्टी के निर्देश के विरुद्ध मत देता है, तो उसके खिलाफ अनुशासनात्मक कार्रवाई हो सकती है। यह लोकतंत्र की भावना के विरुद्ध है। जब धन की बात आती है, तो यह और भी बड़ा मुद्दा बन जाता है। कुछ मामलों में राज्य सभा की सीटों के लिए वित्तीय समर्थन इतना बड़ा मुद्दा बन जाता है कि यह ‘सर्वाधिक बोली लगाने वाला’ जैसा खेल प्रतीत होता है। यह प्रणाली को भ्रष्ट करता है और जनता का विश्वास कम करता है। परिणामस्वरूप, राज्य सभा के सदस्यों के चयन में धन एक प्रमुख कारक बन गया है।
अयोग्य सदस्यों का प्रवेश
इसका प्रभाव अत्यंत नकारात्मक रहा। जैसा कि हमने देखा, राज्य सभा की संरचना में पिछले कुछ दशकों में बड़ा परिवर्तन आया है। 2024 में एक औसत राज्य सभा सदस्य की घोषित संपत्ति 79.54 करोड़ रुपये थी। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के सर्वेक्षण के अनुसार, 245 में से 226 वर्तमान राज्य सभा सदस्यों में से 197 के पास 1 करोड़ रुपये से अधिक की संपत्ति है, अर्थात् 87% सदस्य करोड़पति हैं। इनमें से 12% अरबपति हैं, जिनमें रियल एस्टेट और खनन के बड़े खिलाड़ी शामिल हैं। इसके अतिरिक्त, 36% सदस्यों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज हैं। ये आंकड़े चिंताजनक हैं। एक ऐसा सदन, जो राज्यों के हितों का प्रतिनिधित्व करता है, उसमें इतने सारे सदस्यों का आपराधिक पृष्ठभूमि और अत्यधिक संपत्ति होना यह प्रश्न उठाता है कि क्या ये लोग वास्तव में जनता के लिए कार्य कर रहे हैं? उदाहरण के लिए, यदि किसी सदस्य पर गंभीर आपराधिक आरोप हैं, तो उसकी निष्ठा पर संदेह होगा। यह स्थिति राज्य सभा की विश्वसनीयता को कम करती है। कुल मिलाकर, यह राज्यों का प्रतिनिधि निकाय कम और राजनीतिक दलों के लिए सत्ता संघर्ष का अखाड़ा अधिक प्रतीत होता है। राज्य सभा का शाब्दिक अर्थ ‘राज्यों की परिषद’ है, किंतु यह अपने मूल उद्देश्य—राज्यों के प्रतिनिधित्व—को काफी हद तक अनदेखा करती है।
नामित सदस्यों की समस्या
संविधान के अनुसार, राज्य सभा में 12 नामित सदस्य हो सकते हैं। किंतु प्रायः देखा गया है कि इनमें मशहूर हस्तियों या उद्योगपतियों को शामिल किया जाता है। ये लोग सत्रों में नियमित रूप से उपस्थित नहीं होते, बहसों में हिस्सा नहीं लेते, और उनका योगदान अधिकांशतः नगण्य होता है। कुछ मामलों में, उद्योगपतियों को राज्य सभा में इसलिए भेजा गया, ताकि वे अपने आपराधिक कृत्यों के अभियोजन से बच सकें। यह कैसा लोकतंत्र है? एक वैश्विक उदाहरण लें—अमेरिका भी 19वीं सदी में ऐसी ही समस्या का सामना कर चुका है। उनके सीनेट के चुनाव अप्रत्यक्ष थे, और 1850 से 1890 के बीच कई सीनेटरों पर भ्रष्टाचार और रिश्वत के माध्यम से सीट जीतने के आरोप लगे। इस समस्या को हल करने के लिए अमेरिका ने सीनेट के लिए प्रत्यक्ष चुनाव शुरू किए। भारत में ऐसी व्यवस्था पर विचार क्यों नहीं किया जाता?
दोहरे प्रयास और व्यय
कुछ लोगों का यह भी तर्क है कि राज्य सभा की भूमिका लोक सभा से अधिकांशतः समान है, जिससे प्रयासों का दोहराव होता है। भारत में, राज्य सभा की शक्तियाँ धन विधेयकों के मामले में सीमित हैं, जिससे लोक सभा इसे दरकिनार कर सकती है। उदाहरण के लिए, 2017 का आधार विधेयक और 2018 का वित्त विधेयक, दोनों धन विधेयकों के रूप में पारित किए गए, जिससे राज्य सभा की भूमिका कम हो गई। इसके अतिरिक्त, दो सदनों के रखरखाव का व्यय भी विचारणीय है। सदस्यों के वेतन, भत्ते, और सुविधाओं से सरकारी बजट पर बोझ पड़ता है। 2024 में राज्य सभा के वार्षिक रखरखाव का व्यय 8,296.38 करोड़ रुपये था। यह धन स्कूलों, अस्पतालों, या बुनियादी ढाँचे पर खर्च होता, तो अधिक लाभकारी होता। एक और तथ्य—भारत के 24 राज्यों में केवल एक विधायिका है, अर्थात् एकल सदन। केवल 6 राज्यों में द्विसदनीय प्रणाली है, जहाँ विधान सभाओं के साथ विधान परिषदें भी हैं। इस वर्गीकरण का कोई स्पष्ट तार्किक आधार नहीं है। प्रश्न यह है कि जब अधिकांश राज्य एकल विधायिका के साथ कुशलतापूर्वक कार्य कर सकते हैं, तो केंद्र को दो सदनों की क्या आवश्यकता है? क्या लोक सभा ही पर्याप्त नहीं है? यदि नहीं, तो इसे समाप्त क्यों न किया जाए? यदि केवल लोक सभा होती, तो समय और धन की कितनी बचत होती!
राज्य सभा के पक्ष में तर्क
किंतु दूसरी ओर, कुछ लोग तर्क देते हैं कि राज्य सभा का हमारे संवैधानिक ढाँचे में अभी भी महत्वपूर्ण योगदान है। यह स्पष्ट रूप से समझना आवश्यक है कि राज्य सभा राज्यों के हितों के प्रतिनिधित्व के लिए महत्वपूर्ण है। क्योंकि इसके सदस्य राज्य विधानसभाओं द्वारा निर्वाचित होते हैं, यह क्षेत्रीय चिंताओं को राष्ट्रीय स्तर पर आवाज़ देता है। उदाहरण के लिए, जब केंद्र सरकार ऐसी नीतियाँ प्रस्तावित करती है, जो राज्यों को भिन्न रूप से प्रभावित करती हैं, तब राज्य सभा राज्यों को अपनी राय व्यक्त करने का मंच प्रदान करता है। इससे यह सुनिश्चित होता है कि राज्यों की आवाज़ केंद्र तक पहुंचे। यदि राज्य सभा न हो, तो केंद्र सरकार बहुमत के बल पर कोई भी विधेयक पारित कर सकती है। लोक सभा में कई सांसद ऐसे हैं, जो अपने पूरे कार्यकाल में कुछ बोलते ही नहीं। वे मानो केवल हामी भरने के लिए वहाँ जाते हैं। ऐसे प्रतिनिधियों से क्या अपेक्षा की जा सकती है? इसके विपरीत, राज्य सभा की बहसें ज्ञानवर्धक और तथ्यपरक होती हैं। प्रत्येक बिंदु पर गहन चर्चा और सरकार से स्पष्ट प्रश्नोत्तर होते हैं। ऐसी स्थिति में राज्यों के उचित प्रतिनिधित्व के लिए राज्य सभा का होना अत्यंत आवश्यक है।
नियंत्रण और संतुलन
राज्य सभा एक अन्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है—नियंत्रण और संतुलन। लोकतंत्र में यह आवश्यक है कि कोई एक दल या सदन पूर्ण नियंत्रण न करे। लोक सभा में बहुमत वाला दल प्रायः शीघ्र विधेयक पारित करने का प्रयास करता है, किंतु राज्य सभा एक द्वितीयक सदन के रूप में इन निर्णयों की समीक्षा करती है। यह सुनिश्चित करती है कि कोई विधेयक राजनीतिक दबाव या लोकलुभावन भावनाओं में पारित न हो। उदाहरण के लिए, 2019 का नागरिकता संशोधन विधेयक। राज्य सभा में इस विधेयक पर इतनी विस्तृत बहस हुई कि संवैधानिक चिंताएँ स्पष्ट हुईं। यदि राज्य सभा न होती, तो शायद यह विधेयक बिना समीक्षा के पारित हो जाता, जो लोकतांत्रिक सिद्धांतों के लिए जोखिमपूर्ण होता। यह प्रक्रिया न्यायपालिका के त्रिस्तरीय ढाँचे के समान है—निचली अदालत, उच्च न्यायालय, और सर्वोच्च न्यायालय। निचली अदालत का निर्णय हमेशा सही हो, यह आवश्यक नहीं। उसके विरुद्ध उच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है, जो मामले की समीक्षा करता है और बेहतर निर्णय देता है। यदि उच्च न्यायालय में भी कमी रह जाए, तो सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है, जहाँ अधिक सटीक और बेहतर निर्णय की अपेक्षा की जाती है। इसी प्रकार, राज्य सभा यह सुनिश्चित करती है कि लोक सभा से कोई विधेयक जल्दबाजी में पारित न हो। यह उस पर गहन बहस करती है और आवश्यकता पड़ने पर विधेयक को संशोधनों या सुझावों के साथ लोक सभा में वापस भेजती है। उदाहरण के लिए, 2015 का भूमि अधिग्रहण विधेयक। लोक सभा ने इसे पारित कर दिया, किंतु राज्य सभा ने इसके किसान-विरोधी प्रावधानों पर आपत्तियाँ उठाईं। राज्य सभा की बहस और समीक्षा के बाद, विधेयक में संशोधन किए गए, जो किसानों के लिए अधिक लाभकारी थे, जैसे सहमति खंड और सामाजिक प्रभाव आकलन को सशक्त करना। यदि राज्य सभा न होती, तो लोक सभा में बहुमत वाला दल अपनी मर्जी से कोई भी विधेयक पारित कर सकता था, जो ‘बहुमत का अत्याचार’ जैसा जोखिम उत्पन्न कर सकता था। राजनीतिक विश्लेषक इसे “tyranny of the majority” कहते हैं, और राज्य सभा इस जोखिम को कम करती है। यह विधेयकों पर अधिक बहस और समीक्षा की अनुमति देती है। अन्य देशों में भी यही होता है। अमेरिका में सीनेट हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव्स पर नियंत्रण और संतुलन का कार्य करता है। यदि हम लोकतंत्र को सशक्त रखना चाहते हैं, तो ऐसा नियंत्रण और संतुलन प्रणाली आवश्यक है।
विशेषज्ञता और विविधता
राज्य सभा का एक अन्य बड़ा लाभ इसकी विशेषज्ञता और विविधता है। इसमें अनुभवी राजनेता और नामित सदस्य होते हैं, जो विशिष्ट ज्ञान लाते हैं। उदाहरण के लिए, डॉ. मनमोहन सिंह, जो कई वर्षों तक राज्य सभा के सदस्य रहे, ने आर्थिक सुधारों और वित्तीय नीति पर गहन अंतर्दृष्टि प्रदान की, जिसने भारत के उदारीकरण युग को परिवर्तित किया। इसी प्रकार, अरुण जेटली, सिताराम येचुरी, या मनोज कुमार झा जैसे वरिष्ठ नेताओं ने राज्य सभा में उच्च-गुणवत्ता वाली बहसें स्थापित कीं, जो विधायी चर्चाओं को समृद्ध करती हैं। राज्य सभा की बहसें देखना एक अलग अनुभव है। लोक सभा में सांसद प्रायः औपचारिक सहमति तक सीमित रहते हैं, किंतु राज्य सभा में ज्ञानपूर्ण और बौद्धिक चर्चाएँ होती हैं। नामित सदस्य जैसे जावेद अख्तर, सचिन तेंदुलकर, या रेखा सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण लाते हैं, भले ही उनकी उपस्थिति कम हो। यह विविधता और विशेषज्ञता लोक सभा से भिन्न है, क्योंकि लोक सभा में अधिकांश प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्रों के स्थानीय मुद्दों पर केंद्रित रहते हैं। राज्य सभा का ढांचा इसे राष्ट्रीय स्तर के व्यापक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने की लचीलता प्रदान करता है।
राज्यसभा की स्थायी प्रकृति
राज्य सभा की स्थायी प्रकृति भी इसका एक लाभ है। इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दो वर्ष में सेवानिवृत्त होते हैं, जिससे निरंतरता बनी रहती है। लोक सभा के पाँच-वर्षीय चुनाव चक्र की तुलना में, राज्य सभा दीर्घकालिक दृष्टिकोण लाती है, जो नीति निर्माण के लिए लाभकारी है। उदाहरण के लिए, जब जलवायु परिवर्तन या शिक्षा सुधार जैसे दीर्घकालिक नीतियों पर कार्य होता है, राज्य सभा का ढांचा यह सुनिश्चित करता है कि चर्चाएँ अचानक समाप्त न हों, बल्कि एक सुसंगत दृष्टिकोण बना रहे। इसलिए, इसके समर्थक तर्क देते हैं कि राज्य सभा न केवल राज्यों के हितों की रक्षा करती है, बल्कि विधायी प्रक्रिया में बौद्धिक गहराई भी जोड़ती है। यदि इसे समाप्त किया गया, तो यह विशेषज्ञता और विविधता का नुकसान होगा, जो भारतीय लोकतंत्र के लिए हानिकारक हो सकता है।
वैश्विक परिप्रेक्ष्य
विश्व के अधिकांश बड़े लोकतंत्र द्विसदनीय प्रणालियों का पालन करते हैं, और उनके उच्च सदन महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विश्व में लगभग एक-तिहाई संसदें द्विसदनीय हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका का सीनेट राज्यों को समान प्रतिनिधित्व देता है—प्रत्येक राज्य, चाहे बड़ा हो या छोटा, को दो सीनेटर मिलते हैं। यह प्रणाली सुनिश्चित करती है कि छोटे राज्य जैसे वायोमिंग या वर्मोंट की आवाज़ भी राष्ट्रीय स्तर पर सुनाई दे। इसी प्रकार, यूनाइटेड किंगडम का हाउस ऑफ लॉर्ड्स विशेषज्ञ समीक्षा और विधायी समीक्षा प्रदान करता है। यह अनिर्वाचित निकाय होने के बावजूद अपनी विशेषज्ञता के कारण ब्रिटेन की विधायी प्रक्रिया में मूल्यवान है। ऑस्ट्रेलिया का सीनेट भी क्षेत्रीय हितों की रक्षा करता है और संघीय संतुलन बनाए रखता है। ये वैश्विक उदाहरण दर्शाते हैं कि द्विसदनीय प्रणालियों का एक सार्वभौमिक मूल्य है। यदि भारत राज्य सभा को समाप्त करता है, तो यह एक दुर्लभ मामला होगा, जहाँ एक प्रमुख लोकतंत्र एकल विधायिका के साथ कार्य करेगा। यह प्रयोग जोखिमपूर्ण हो सकता है, क्योंकि द्विसदनीय प्रणालियाँ दीर्घकालिक स्थिरता और संतुलन प्रदान करती हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका में सीनेट ने 1990 के दशक में स्वास्थ्य सुधारों पर विवादास्पद कानूनों को अवरुद्ध या संशोधित किया, जिससे जनहित की रक्षा हुई। इसी प्रकार, ऑस्ट्रेलिया के सीनेट ने पर्यावरण नीतियों पर कठोर समीक्षा की, जिससे टिकाऊ कानून बने। भारत के संदर्भ में, राज्य सभा भी ऐसी ही जाँच प्रदान करता है।
सुधारों की आवश्यकता
आलोचकों के तर्कों को अनदेखा नहीं किया जा सकता। राज्य सभा में कई संरचनात्मक और कार्यात्मक समस्याएँ हैं, जो इसकी प्रभावशीलता को कम करती हैं। पहली समस्या है निम्न उत्पादकता—जब सत्रों का 40-50% समय व्यवधानों में व्यर्थ होता है, तो जनता का विश्वास कम होता है। दूसरा, डोमिसाइल नियम का हटाया जाना, जिससे राज्यों का प्रतिनिधित्व कमजोर हुआ है। तीसरा, आपराधिक तत्वों और अत्यधिक धन का प्रभुत्व, जो राज्य सभा की विश्वसनीयता को चुनौती देता है। चौथा, पीछे के दरवाजे से प्रवेश और नामित सदस्यों का निम्न योगदान, जो विधायी प्रक्रिया में मूल्य नहीं जोड़ते। इन समस्याओं को हल करने के लिए सुधारों की आवश्यकता है। एक प्रमुख सुधार डोमिसाइल नियम को पुनः लागू करना हो सकता है। राज्य सभा के सदस्यों को उस राज्य का निवासी होना चाहिए, जिसका वे प्रतिनिधित्व करते हैं, ताकि वे स्थानीय मुद्दों से जुड़े रहें। दूसरा, व्यवधानों पर कठोर नियम बनाए जा सकते हैं, जैसे समयबद्ध बहसें और व्यवधान-रोधी दंड। ऑस्ट्रेलिया के सीनेट में ऐसे नियम हैं, जो उच्च उत्पादकता सुनिश्चित करते हैं। तीसरा, आपराधिक पृष्ठभूमि वाले उम्मीदवारों पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है। गंभीर आरोपों वाले व्यक्तियों को राज्य सभा चुनाव लड़ने से रोका जाए, ताकि अखंडता बनी रहे। चौथा, नामित सदस्यों की भूमिका को पुनर्परिभाषित किया जाए। मशहूर हस्तियों के स्थान पर वास्तविक विशेषज्ञों—जैसे वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, या सामाजिक कार्यकर्ताओं—को नामित किया जाए, जो सक्रिय रूप से योगदान दें। इसके अतिरिक्त, चुनावों में पारदर्शिता बढ़ाई जाए। राज्य सभा के चुनावों में खुले मतदान और कठोर भ्रष्टाचार-रोधी उपायों से वित्तीय प्रभाव को कम किया जा सकता है।
निष्कर्ष
इस विस्तृत चर्चा के बाद निष्कर्ष यह है कि राज्य सभा एक जटिल संस्था है, जिसमें ताकत और कमजोरियाँ दोनों हैं। इसके विरुद्ध तर्क मजबूत हैं—यह विधेयकों को विलंबित करती है, राज्यों का प्रभावी प्रतिनिधित्व नहीं करती, और करदाताओं का धन व्यर्थ करती है। आपराधिक तत्व और पीछे के दरवाजे से प्रवेश इसकी विश्वसनीयता को और कम करते हैं। किंतु इसके पक्ष में तर्क भी कम नहीं हैं—यह संघीय ढाँचे को संतुलित करता है, नियंत्रण और संतुलन प्रदान करता है, छोटे राज्यों की आवाज़ को मंच देता है, और विशेषज्ञता जोड़ता है। वैश्विक उदाहरण भी दर्शाते हैं कि द्विसदनीय प्रणालियाँ लोकतांत्रिक स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण हैं।
राज्य सभा को समाप्त करना एक चरम कदम होगा। इसके बिना हमारा संघीय ढांचा असंतुलित हो सकता है, और लोक सभा में बहुमत वाले दल का प्रभुत्व लोकतंत्र के लिए जोखिमपूर्ण हो सकता है। किंतु यह भी सत्य है कि राज्य सभा में गंभीर सुधारों की आवश्यकता है। सुधार इसे अधिक प्रभावी और विश्वसनीय बना सकते हैं। यदि ये परिवर्तन लागू हो जाएँ, तो राज्य सभा अपने मूल उद्देश्य—राज्यों का प्रतिनिधित्व और विधायी समीक्षा—को बेहतर ढंग से पूरा कर सकती है।
अंत में, यह प्रश्न प्रत्येक भारतीय को सोचने के लिए प्रेरित करता है कि क्या राज्य सभा को बनाए रखना चाहिए या हटा देना चाहिए। यह एक ऐसा विषय है, जो लोकतंत्र के प्रति हमारी समझ और भागीदारी को परखता है। अपनी राय साझा करें, और यदि आपके पास राज्य सभा के लिए कोई अन्य सुधार सुझाव है, तो उसे भी प्रस्तुत करें, क्योंकि लोकतंत्र तभी जीवंत रहता है, जब प्रत्येक आवाज़ सुनी जाती है।
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