उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ (Jagdeep dhankhar) के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव (No confidence motion) : एक ऐतिहासिक कदम
हाल ही में विपक्षी गठबंधन इंडिया ब्लॉक ने उपराष्ट्रपति जगदीप (Jagdeep dhankhar) धनखड़ के खिलाफ राज्यसभा में अविश्वास प्रस्ताव पेश किया है। विपक्ष ने उन पर सदन के अध्यक्ष के रूप में पक्षपाती होने का आरोप लगाया है। इस प्रस्ताव को 60 सांसदों ने समर्थन दिया है। यहाँ देने वाली बात यह है कि भारतीय इतिहास में यह पहली बार है कि जब उपराष्ट्रपति के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने का कदम उठाया गया है। ऐसे में इस मुद्दे ने भारतीय राजनीति में एक नई बहस को जन्म दिया है। यह मुद्दा भारतीय राजनीति और लोकतंत्र में निष्पक्षता व जवाबदेही की महत्ता पर नई चर्चा को जन्म देता है। विपक्षी गठबंधन ने इस कदम को लोकतंत्र की रक्षा और निष्पक्षता सुनिश्चित करने की दिशा में एक अहम प्रयास बताया है। इस लेख में हम अविश्वास प्रस्ताव से जुड़ी संवैधानिक प्रक्रियाएँ और उनके महत्व पर ध्यान केंद्रित करेंगे। साथ ही अविश्वास प्रस्ताव के इतिहास को भी जानेंगे।
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उपनिवेशवादी व्यवस्था से लोकतंत्र की ओर
उपनिवेशवादी व्यवस्था से त्राहिमाम 200 वर्षों की गुलामी झेल चुका भारत जब आजाद हुआ तो उसने अपने कई पड़ोसी मुल्कों की तरह तानाशाही के बजाय लोकतंत्र की राह चुनी। इस नए देश ने नव संकल्प के साथ आधुनिक लोकतंत्र के उन सभी तत्वों को समाविष्ट किया जो उसे दुनिया का सबसे बड़ा ही नहीं सबसे सफल लोकतंत्र भी बनाए। शायद यही कारण रहा कि जिस उपनिवेशवादी सत्ता ने उसका सर्वाधिक शोषण किया भारतीय संविधान में सर्वाधिक मूल्य उसी देश के लोकतान्त्रिक सिद्धांतों से लिये गए, क्योंकि नव निर्मित लोकतांत्रिक देश भारत अपनी जनता कि उम्मीदों-आकांक्षाओं पर खरा उतरने के लिए बेताब था। ऐसे में जरूरी था कि वे सभी तरीके अपनाए जाए जो जनता की महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा कर सके। ताकि कहीं कल को भारत मुसोलिनी के इटली और हिटलर के जर्मनी की राह पर न निकल जाए। इसके लिए ही भारत में ब्रिटेन कि भांति संसदीय व्यवस्था को अपनाया गया और कार्यपालिका को विधायिका के प्रति उत्तरदायी भी बनाया गया। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 75 का खंड 3 और 164 का खंड 3 मंत्रिपरिषद को क्रमशः लोकसभा और राज्य विधानसभा के प्रति उत्तरदायी ठहराता है। इस उत्तरदायित्व सिद्धांत का अर्थ यह है कि सरकार तभी तक सत्ता में रहेगी जब तक उसे निचले सदन का बहुमत प्राप्त हो। इसके तहत न केवल सरकार के मनमाने रवैये पर अंकुश लगाया गया है, बल्कि लोकतंत्र में विपक्ष कि महत्ती भूमिका को भी स्वीकार किया गया है। इससे संसद ज्यादा लोकतान्त्रिक और देश की विविधताओं को समेटते हुए सब की आवाज बनती नजर आती है।
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इसे इल्बर्ट के शब्दों में कहा जाए तो “संसद शासन नहीं करती है और न इसका शासन करने का इरादा है। मजबूत, सतर्क और प्रतिनिधि आलोचना द्वारा नियंत्रित एक मजबूत सरकार ही वह आदर्श है जिस पर संसदीय संस्थान काम करते हैं”।
सरकार चेक एंड बैलेंस सिद्धांत के अनुसार कार्य कर सके और विपक्षी आवाज को भी मौका मिले, इसके लिए कार्यपालिका की विधायिका के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करने का जो सबसे प्रभावी तरीका अविश्वास प्रस्ताव को माना जाता है। यहाँ गौर करने वाली बात है कि अविश्वास प्रस्ताव इतना महत्त्वपूर्ण होते हुए भी भारतीय संविधान में शामिल नहीं है। यह लोकसभा नियमावली में नियम 198(1) से 198(5) के तहत संचालित होता है।
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अविश्वास प्रस्ताव (No confidence motion) की उत्पत्ति और इसका वैश्विक प्रभाव
अविश्वास प्रस्ताव को आज सभी लोकतांत्रिक देशों ने सरकार पर अंकुश लगाने का सबसे कारगर उपाय माना है। इसकी उत्पत्ति ब्रिटेन में 1742 में रॉबर्ट वाल्पोल की सरकार के खिलाफ पारित किये गए प्रस्ताव से हुई थी। अविश्वास प्रस्ताव इस सिद्धांत के तहत कार्यान्वित है कि लोकतांत्रिक देश में उसी को सरकार में रहने का अधिकार है, जो जनता के बहुमत से बनी हो। भारत जैसे देश में जहाँ प्रत्यक्ष लोकतंत्र को न अपनाकर प्रतिनिधि लोकतंत्र को अपनाया गया है, वहाँ इसका अर्थ है कि सरकार तभी तक है जब तक उसे निचले सदन में प्रतिनिधियों का समर्थन प्राप्त है। ऐसे में जब विपक्षी दल को लगता है कि सदन में सरकार अपना बहुमत खो चुकी है तो अविश्वास प्रस्ताव पारित कर वे सरकार को निलंबित कर सकते हैं। इस तरह इससे सदन में सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही तय की जाती है। ऐसे में सत्ता से बेदखल होने का यह डर कार्यपालिका पर विधायिका के प्रभावी नियंत्रण का सबसे कारगर साधन बन जाता है।
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भारत में अविश्वास प्रस्ताव (No confidence motion) का संचालन
यूँ तो आज अविश्वास प्रस्ताव लगभग सभी देशों में लोकप्रिय है, लेकिन इसे सदन में प्रस्तुत करने के तरीकों में काफी भिन्नता पायी जाती है। जैसे कि जर्मनी में इसे तभी प्रस्तुत किया जा सकता है जब विपक्षी दल सरकार की सत्ता बेदखली के बाद सरकार बनाने में समर्थ हों। वहीं इटली में अविश्वास प्रस्ताव पर दोनों सदनों की सहमति आवश्यक है। भारत और कनाडा जैसे देशों में इसके नियम ब्रिटेन की वेस्टमिन्स्टर प्रणाली से मिलते-जुलते हैं। जैसे भारत में इसे केवल लोकसभा या राज्य विधानसभा में लाया जा सकता है और इसके लिए सदन को कोई कारण बताना जरुरी नहीं होता। इसके लिए विपक्षी दल को स्पीकर को लिखित सूचना देनी होती है और प्रस्ताव के पक्ष में कम-से-कम 50 सदस्यों का होना आवश्यक होता है। ऐसा इसीलिए किया गया ताकि कहीं अविश्वास प्रस्ताव विपक्षी दलों द्वारा सदन में बाधा पहुँचाने या विपक्ष की अपनी महत्त्वाकांक्षा हासिल करने का माध्यम न बन जाए। चूँकि इसका उद्देश्य सरकार को गिराना होना चाहिए, न कि सरकार की आलोचना करना। आलोचना करने के लिए निंदा प्रस्ताव जैसे अन्य माध्यम अपनाये जा सकते हैं। जैसा कि पंडित नेहरू ने भी कहा था – “एक अविश्वास प्रस्ताव, निश्चित रूप से सरकार को हटाने और उसकी जगह लेने के उद्देश्य से होना चाहिए।”
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गौरतलब है कि अविश्वास प्रस्ताव एक बार आने के बाद विपक्ष की इसमें बहुत अधिक भूमिका नहीं रह जाती है। ऐसा इसलिये क्योंकि नियम 198 (3) के तहत इसकी स्वीकारोक्ति पर फैसले लेने का अधिकार स्पीकर को है। तो वहीं नियम 198(4) के तहत इसपर भाषणों की समय-सीमा तय करने का अधिकार भी अध्यक्ष को ही मिला है। चूँकि, आमतौर पर सदन का अध्यक्ष सत्तादल का पहले सदस्य रहा होता है, ऐसे में इसके दुरुपयोग के कई मामले सामने आते रहते हैं। जैसे साल 2023 में महाराष्ट्र में ऐसा ही हुआ था, जहाँ स्पीकर ने इसे स्वीकार करने कि अनुमति ही नहीं दी। हालाँकि इसे मंज़ूरी मिलने पर सत्ताधारी पार्टी या गठबंधन को यह साबित करना होता है कि उन्हें सदन में ज़रूरी समर्थन प्राप्त है। इसके लिए पार्टियां व्हिप जारी कर सकती है और सदस्यों द्वारा न मानने पर दल-बदल कानून के तहत उनपर कार्रवाई भी कर सकती हैं। अगर लोकसभा स्पीकर अविश्वास प्रस्ताव को मंज़ूरी दे देता है, तो प्रस्ताव पेश करने के 10 दिनों के अदंर इस पर चर्चा जरूरी है और फैसला मतदान के आधार पर ही लिया जाता है। हालाँकि, अविश्वास प्रस्ताव को सदस्य द्वारा वापस भी लिया जा सकता है बशर्ते सदन इसकी अनुमति दे।
भारतीय राजनीति में अविश्वास प्रस्ताव (No confidence motion) का प्रभाव
आजादी के दो दशक तक कांग्रेस ने बिना किसी विरोध के एकछत्र राज किया था, लेकिन तीसरी लोकसभा के दौरान जब लोगों का मोहभंग हुआ तो इसकी प्रतिछाया लोकसभा में भी देखने को मिली। 1962 के भारत-चीन युद्ध के पश्चात कभी कांग्रेस के कद्दावर नेता में से एक रहे आचार्य कृपलानी ने ही प्रजा समाजवादी पार्टी के नेता के तौर पर 1963 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया। इस प्रस्ताव को 72 सांसदों का समर्थन प्राप्त था। हालाँकि यह प्रस्ताव पारित नहीं हो सका और नेहरू की सरकार बची रही। आचार्य कृपलानी ने भी तब सदन में स्वीकार किया था कि इससे हालाँकि सरकार को कुछ नहीं होगा, लेकिन इतने सदस्यों ने इसका समर्थन किया है तो इसका मतलब यह है कि कांग्रेस के कुछ नेता भी इससे असंतुष्ट हैं। शायद यह जानकर ही सरकार अपनी नीतियों में परिवर्तन कर दे और हुआ भी यही। पंडित नेहरू ने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कैबिनेट में फेरबदल किया और ‘कामराज प्लान’ को भी अपनाया। 1963 के बाद देश में अब तक 28 अविश्वास प्रस्ताव लोकसभा में लाए जा चुके हैं, जिसमें से सर्वाधिक अविश्वास प्रस्ताव तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के खिलाफ आए। देखा जाए तो आजादी के एक दशक तक एक भी अविश्वास प्रस्ताव न लाने की कसर 1964 से 1975 के दौर में पूरी हो गयी। इस दौरान अविश्वास प्रस्तावों की बाढ़ सी आ गयी और कुल 15 प्रस्ताव पेश किये गए। इनमें से 3 प्रस्ताव जहाँ शास्त्री जी के विरुद्ध लाए गए, तो वहीं इंदिरा गांधी ने 12 प्रस्तावों का सामना किया। हालाँकि एक भी प्रस्ताव पारित नहीं हो सका और सरकार सत्ता में बनी रही। इंदिरा गांधी के खिलाफ 1981-1982 के बीच भी 3 प्रस्ताव और प्रस्तुत किये गए, लेकिन फिर भी उनकी सरकार बची रही। जिस तरह इंदिरा गाँधी ने सर्वाधिक अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया, उसी तरह सबसे ज्यादा अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का रिकॉर्ड माकपा सांसद ज्योतिर्मय बसु के नाम दर्ज है। उन्होंने कुल चार अविश्वास प्रस्ताव पेश किये और ये चारों ही प्रस्ताव इंदिरा गांधी सरकार के खिलाफ लाये गए थे।
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अविश्वास प्रस्ताव के कारण गिरी सरकारें
अविश्वास प्रस्ताव के कारण सबसे पहली सरकार मोरारजी देसाई की गिरी थी। हालाँकि उन्होंने अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा पूरी होने से पहले ही अपना इस्तीफा दे दिया था। उसके एक महीने बाद ही अविश्वास प्रस्ताव के कारण वाई बी चव्हाण के नेतृत्व में गठित सरकार भी गिर गई थी। इसने नब्बे के दशक में कई सरकारों को अस्थिर किया। इस कारण यह दशक भारत के राजनितिक इतिहास में सबसे उथल-पुथल का रहा। इस दौरान कुल 4 अविश्वास प्रस्ताव पारित हो जाने के कारण 4 सरकार गिर गयी थीं। इसमें विश्वनाथ प्रताव सिंह, एच डी देवेगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल और अटल बिहारी की सरकारें सत्ता से बेदखल हो गईं। अटल बिहारी वाजपेयी तो दिलचस्प तरीके से मात्र एक वोट से हार गए। उस दौरान लोकसभा में अटल वाजपेयी ने यादगार भाषण देते हुए सदन में कहा था- “एक-एक सीटों वाली पार्टियां कुकुरमुत्ते की तरह उग आती हैं। राज्यों में आपस में लड़ती हैं और दिल्ली में एक हो जाती है।”
अविश्वास प्रस्ताव के दुरुपयोग का खतरा
अविश्वास प्रस्ताव का गलत इस्तेमाल इस मामले में भी नजर आता है जब लोकसभा में अब तक के इतिहास में सबसे अधिक सीटों से जीतकर आए राजीव गाँधी को इसका सामना करना पड़ा था। ऐसा ही सामना बीते साल जुलाई में मोदी सरकार को भी करना पड़ा, विपक्षी गठबंधन इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इन्क्लूसिव अलायंस यानी इंडिया की तरफ से सदन के नियम 198 के तहत सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाया गया। हालाँकि, मोदी सरकार के खिलाफ इससे पहले साल 2018 में भी अविश्वास प्रस्ताव लाया गया था। लेकिन दोनों ही मामलों में सरकार ने बहुमत हासिल कर लिया था। यही कारण है कि विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में यह कहा था कि लोकसभा में प्रक्रिया और कार्य संचालन के नियमों में एक नया नियम पेश किया जाए, जिसमें यह प्रावधान हो कि एक बार अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा और मतदान के बाद दो साल की अवधि तक ऐसे नए प्रस्ताव को पेश करने की अनुमति नहीं दी जाए। वहीं मंत्रिपरिषद में विश्वास की कमी व्यक्त करने वाले प्रस्ताव पर नियम 198 के तहत कोई अनुमति तब तक नहीं दी जाए, जब तक कि उसके साथ किसी नामित व्यक्ति पर विश्वास व्यक्त करने वाला प्रस्ताव न हो। विधि आयोग ने यह भी सुझाव दिया है कि “केवल नामित व्यक्ति पर विश्वास व्यक्त करने वाले प्रस्ताव पर ही मतदान किया जाए ताकि सरकार गिरने की स्थिति में वैकल्पिक सरकार का गठन किया जा सके। इससे एक तरफ खर्च घटेगा तो वहीं चुनाव आयोग और विभिन्न सरकारी संगठनों पर भार भी कम होगा। साथ ही इससे दुरुपयोग की संभावना भी घटेगी और देश को 1990 के दशक में लगातार होते रहे आम चुनाव जैसे दौर से दोबारा नहीं गुजरना होगा। केंद्र सरकार द्वारा गठित संविधान समीक्षा आयोग ने भी ऐसी ही सिफारिशें की थीं।
निष्कर्ष: अविश्वास प्रस्ताव का लोकतंत्र को मजबूत करने में योगदान
ऐसे में अविश्वास प्रस्ताव के दुरुपयोग कि संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन, हमें यह भी मानना होगा कि अविश्वास प्रस्ताव विधायिका के प्रति कार्यपालिका को जिम्मेदार ठहराते हुए तानाशाही और स्वच्छंदतावाद को रोकता है। इससे सरकार जनता के प्रति अधिक जवाबदेह बनती है और लोकतंत्र लोगों का तंत्र बना रहता है। हालाँकि, केवल राजनितिक मंशा के उद्देश्य से इसके इस्तेमाल से बचना चाहिए।
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