महात्मा गांधी: एक विचारक, एक विरोधाभास, एक युग

Mahatma Gandhi UPSC

कार्ल पॉपर ने कहा था कोई भी प्लेटोनिक या एंटी-प्लेटोनिक हो सकता है लेकिन कोई गैर-प्लेटोनिक कभी नहीं हो सकता. भारत में गांधी के बारे में भी कुछ ऐसा ही कहा जा सकता है कि वो गाँधीवादी हो सकता है या गांधीवाद का विरोधी लेकिन गांधीवाद से तटस्थ नहीं हो सकता. गाँधी के विचारधारा से कोई तटस्थ हो भी तो कैसे उनकी विचारधारा कोई एक विचार तो है नहीं, वो तो समुच्चय है विभिन्न विचारधाराओं का. वो गीता से कर्म का सिद्धांत लेते हैं तो बाइबिल से करुणा का और जैन-बौद्ध धर्म से अहिंसा का. वो अहिंसा को अपने सबसे बड़ा हथियार मानते हैं तो कायरता से ज्यादा तवज्जो हिंसा को देते हैं. वो जाति व्यवस्था को श्रम सिद्धांत का अनिवार्य अंग बताते हैं तो अछूतों के समर्थन में आन्दोलन भी करते हैं. वे राजनीति में धार्मिक चिन्हों का उपयोग भी करते हैं और राजनीति में धर्म के समावेश का विरोध भी. वे बोस, भगत सिंह की नीतियों के आलोचक भी हैं और उनके त्याग का गुणगान करने से भी नहीं हिचकते. वे आपसी भाईचारे के सबसे प्रबल समर्थक भी हैं और लोग उनकी नीतियों में धार्मिक तुष्टिकरण के बीज भी खोज लेते हैं. वे भारत-पाकिस्तान विभाजन के सबसे बड़े विरोधी भी रहे और विभाजन के जिम्मेदार भी माने जाते हैं. वे कहीं तो कार्ल मार्क्स के सामानांतर खड़े हो जाते हैं और कभी पूंजीवादी व्यवस्था के. गांधी के चिंतन, दर्शन में कई बार नारीवाद के मूल्य नजर आते हैं तो कभी उसकी जद्दोजहद. गाँधी की विचारधारा में स्वतंत्रता है, लोकतंत्र है तो तानाशाही और बंधन भी. गांधी के सत्य, सत्याग्रह, अहिंसा के भी विभिन्न अर्थ हैं और परिस्थितियों के बदलने से वे भी बदल जाते हैं. देखा जाये तो गांधी सभी विचारधाराओं में हैं, वो किसी विचार के सिरे पर नहीं खड़े हैं बल्कि हर जगह अपनी जमीन, अपना आसमां तलाश रहे हैं. ऐसे में गांधी को किसी एक दायरे में न कैद किया जा सकता है न ही किसी एक पहचान के खूंटे से उन्हें बांधा ही जा सकता है. असल में गांधी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का मूल्यांकन उन विरोधी मत-मतान्तरों के चश्मे से ही किया जा सकता है जो उनके बारे में प्रचलित है. हालाँकि  ऐसा  करते हुए हमें दुष्यंत कुमार की यह पंक्ति याद रखनी चाहिए-

मत कहो आकाश में कोहरा घना है,

यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है…

गांधी ने कहा था हम जैसा सोचते हैं वैसे ही बन जाते हैं. ऐसे में गांधी कैसे थे यह जानने के लिए जरुरी है कि हम सबसे पहले वे कैसा सोचते थे यह जाने. पर क्या सोच स्वतंत्र होती है? नहीं! उसमें बहुत बड़ा हिस्सा परिवार, शिक्षा, संस्कार, वातावरण और परिस्थितियों का भी होता है. ऐसे में इसका अध्ययन कर ही हम गांधी का सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत कर सकते हैं.

गांधी, जिनके बचपन का नाम मोहनदास करमचंद गांधी था का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को पोरबंदर, गुजरात में हुआ था. वैसे यह वर्ष इसलिए भी खास है क्योंकि इसी वर्ष स्वेज नहर पहली बार खुली थी. ये दोनों घटना इतिहास में दर्ज होने वाले हैं, ऐसा उस समय शायद ही किसी ने सोचा हो. खैर, मोहनदास की माता पुतलीबाई और पिता करमचंद गांधी थे. माता बचपन से ही धार्मिक प्रवृत्ति की थी इसलिए उनमें धर्म के प्रति बचपन से ही एक सहज आकर्षण रहा. अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में गांधी अपनी माता का जिक्र करते हुए कहते भी हैं “मेरी स्मृति पर मेरी माँ ने जो उत्कृष्ट छाप छोड़ी है, वो पवित्रतम है”. वहीं पिता से मोहनदास ने सिखा विभिन्न धर्मों के बीच सामंजस्य बैठाना. छोटी उम्र में ही शादी तत्कालीन परिस्थितियों में सामान्य बात थी और गांधी के साथ भी यही हुआ. मात्र 13 वर्ष में गांधी को गृहस्थ जीवन में बाँध दिया गया. पत्नी थी कस्तूरबा बाई. 

इतनी छोटी उम्र में अपनी पत्नी पर अपने अधिकारों का दावा करने और उसे अपनी कैद में रखने वाला एक अभिमानी शख्स जैसा कि वे अपने बारे में खुद लिखते हैं – “मैं अपना ईर्ष्यालु स्वाभाव छोड़ नहीं पाया था, हर बात में मेरा संशय बना ही रहा इसलिए पत्नी के साथ मेरा सम्बन्ध जैसा मैं चाहता था वैसा बन नहीं पाया.” ऐसा शख्स कभी महिलाओं के हक़ में आवाज भी उठाएगा ये असंभव सा जान पड़ता है लेकिन समय के साथ बदलना गांधी बखूबी जानते थे. अपने शुरूआती वर्षों में स्त्रियों के बने-बनाये ढर्रे पर अपनी श्रद्धा जताने वाले गांधी उन्हें घर से बाहर भी निकालते हैं और स्वतंत्रता संग्राम में उन्हें बड़ी जिम्मेदारी भी देते हैं. उन्होंने कहा भी है कि जहाँ मेरी गलती थी वहां मैंने हमेशा कोशिश करी की उसे सुधारा जा सके. बचपन से ही धार्मिक रहने के बावजूद गांधी पर्दा प्रथा के सबसे बड़े विरोधियों में से एक रहे. उन्होंने सती प्रथा, दहेज प्रथा का भी विरोध किया. उन्होंने 1930 में ‘यंग इंडिया’ में लिखा, “महिलाओं को कमजोर कहना अपमान है. यह महिलाओं के प्रति पुरुषों का अन्याय है”. जैसा की नेहरु ने अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है- “गांधी ने न केवल महिलाओं को बहादुर बनने के लिए प्रेरित किया बल्कि उन्होंने पुरुषों को भी महिलाओं का सम्मान करना सिखाया. गांधी ने लैंगिक असंतुलन को ठीक करने और महिलाओं को भारत की सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मुख्यधारा में सबसे आगे लाने के लिए सब कुछ किया”. गांधी अपने अहिंसक सत्याग्रह का सबसे प्रबल समर्थक महिलाओं को ही मानते थे. यही कारण रहा की गांधी के पदार्पण के बाद स्वातंत्र्य संघर्ष में उनकी संख्या लगातार बढ़ी. वह चाहे 1917 का चंपारण सत्याग्रह हो या 1930 का सविनय अवज्ञा आन्दोलन महिलाओं की इतनी भागीदारी गांधी से पहले और बाद में किसी आन्दोलन में नहीं देखी गयी.

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गांधी बचपन से पढ़ने में कभी अच्छे नहीं रहे हालांकि अपने आचरण के कारण वे शिक्षकों का प्रेम अवश्य पा सके. वैसे हाई स्कूल तक उनकी गिनती मंदबुद्धि बालकों में तो नहीं रही और उन्हें कई पुरस्कार और छात्रवृत्ति भी मिले लेकिन वे सबसे ज्यादा सजग अपने आचरण के प्रति ही रहे. वे हमेशा कहते भी रहे कि विद्यालयी शिक्षा अक्षर ज्ञान सिखाती है और इससे ज्यादा जरुरी है चारित्रिक निर्माण. यही कारण रहा कि उन्होंने कभी अपने पुत्रों की पढाई पर ध्यान नहीं दिया. स्वयं गांधी के शब्दों में “पुत्रों के अक्षर-ज्ञान की कुरबानी भी मैंने अज्ञान से ही क्यों न हो, फिर भी सद्भावपूर्वक मानी हुई सेवा के लिए ही की है. मैं यह कह सकता हूँ कि उनके चरित्र-निर्माण के लिए जितना कुछ आवश्यक रूप से करना चाहिए था, वह करने में मैंने कहीं भी त्रुटि नहीं रखी है और मैं मानता हूँ कि हर माता-पिता का यह अनिवार्य कर्तव्य है’. हालाँकि बच्चों को पढ़ा न पाने का उन्हें ताउम्र दुःख रहा और उनके बच्चों की उनसे शिकायतें भी बनी रही.

बचपन में गांधी के स्कूल का किस्सा सुनाते हुए लूई फिशर लिखते हैं कि “जब गांधी अपने 12 वर्ष में राजकोट के एल्फ्रेड हाई स्कूल में पढ़ रहे थे उस दौरान शिक्षा-विभाग के इंस्पेक्टर जाइल्स विद्यालय का निरीक्षण करने आए थे. उन्होंने सभी बच्चों को 5-5 अंग्रेजी शब्द लिखने को दिए, जिसमें एक शब्द ‘केटल’ था। गाँधी ने उसकी स्पेलिंग गलत लिखी थी, जिसे देखकर शिक्षक ने अपने बूट की नोक से उन्हें सावधान किया ताकि वे दूसरे की कॉपी देखकर लिख ले, लेकिन गांधी ने ऐसा नहीं किया.”

वैसे ऐसा नहीं है कि गांधी ने कभी गलत किया ही नहीं उन्होंने चोरी भी की है और व्यसन से भी खुद को नहीं बचा सके. बचपन में गांधी को श्रवण कुमार की कहानी बहुत पसंद आई थी, वो ऐसा बनना भी चाहते थे, पर जाने-अनजाने उन्होंने अपने माता-पिता दोनों का ही बहुत दिल भी दुखाया है. गांधी ने एक बार अपन भाई के सोने का कड़ा चुराया था हालाँकि बाद में आत्मग्लानी में उन्होंने अपने पिता को चिट्ठी लिखकर इसकी माफ़ी भी मांगी. स्वयं गांधी के शब्दों में “पिता ने चिट्ठी पढ़ी, आँखों से मोती की बूँदें टपक पड़ी. चिट्ठी भीग गई. उन्होंने क्षण भर के लिए आँखें मूँदी और फिर चिट्ठी फाड़ डाली’. गांधी कहते हैं ‘मोती की बूँदों के उस प्रेमबाण ने मुझे बेध डाला. उसके बाद मैं शुद्ध बना’. इसके बाद गांधी ने कभी चोरी नहीं की. हालाँकि इससे पहले वे घर से छिप-छिपकर मांस खाने और सिगरेट जैसी आदत पाल चुके थे. लेकिन कुछ समय बाद माता-पिता को धोखा न देने के विचार ने उन्हें इस व्यसन से बचा लिया.

अपनी हाई स्कूल पूरी करने के बाद गांधी 1888 में इनर टेम्पल में वकालत पढ़ने गये. हालाँकि इंग्लैंड का प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर वैसा नहीं पड़ सका जैसा पड़ना चाहिए था. लूई फिशर कहते हैं कि “इंग्लैंड में गांधी के व्यक्तित्व का निर्माण इसलिए नहीं हो सका क्योंकि गांधी कर्म के द्वारा सीखते थे न की अक्षर ज्ञान के द्वारा”. इनर टेम्पल से वकालत पूरी करने के बाद गाँधी 1891 में वापस भारत लौट आये. जगह-जगह क्या बम्बई, क्या राजकोट सब जगह हाथ मारने के बाद भी वे एक वकील के रूप में सफल नहीं हो पाए. कैसा संयोग है न कि एक असफल वकील ने पहले दक्षिण अफ्रीका और बाद में भारत में अधिकारों की सबसे बड़ी लड़ाई जीती.

भारत में असफल होने के बाद 1893 में एक फर्म का केस लड़ने गांधी दक्षिण अफ्रीका पहुंचे. गांधी के व्यक्तित्व निर्माण की शुरुआत यहीं से हुई. दक्षिण अफ्रीका गांधी की कर्मभूमि बना. इसकी शुरुआत हुई अफ्रीका में अपने सबसे पहले सफ़र से- डरबन से प्रिटोरिया जाने के क्रम में. इस दौरान पहले दर्जे का टिकट कटाने के बाद भी  पुलिस अफसर ने गांधी को पीटरमेरिट्जबर्ग स्टेशन में उतार दिया. इस अपमान ने गांधी का अफ्रीका में भारतीयों पर हो रहे अन्याय से परिचय कराया. यहीं से गांधी का “गांधीवाद” की ओर का रुख शुरू हुआ.

प्रिटोरिया में ही गांधी भारतीयों की आर्थिक, सामाजिक-राजनीतिक स्थिति का गहरा अध्ययन कर सके. स्वयं गांधी के शब्दों में इस अध्ययन का आगे चलकर मेरे लिए उपयोग होनेवाला है, इसकी मुझे जरा भी कल्पना नहीं थी, पर ईश्‍वर ने कुछ और ही सोच रखा था!”

गांधी जिस मुक़दमे के लिए वहां गये थे वह मुकदमा भी उन्होंने कोर्ट के बाहर आपसी समझौते से ही सुलझा लिया था, ऐसे में उनके वहां ज्यादा रहने का औचित्य नहीं था पर विदाई पार्टी में उनकी नजर अंग्रेजी सरकार की ऐसी घोषणा पर पड़ी की वे वहां 20 वर्ष तक ठहर गये. दरअसल, नेटाल मर्करी में खबर छपी थी कि सरकार विधान मंडल में सदस्य चुनने के अधिकार से भारतियों को वंचित करने का एक बिल ला रही है. इसके विरोध में गांधी ने अपना संघर्ष शुरू किया. भारतीयों को अनिवार्यतः परमिट रखने के कानून का भी गांधी ने विरोध किया. गांधी वहां गिरमिटिया मजदूर के अधिकारों के लिए भी लड़े. लेकिन उनके संघर्ष का तरीका इतिहास के संघर्षों से अलग और अनोखा था. संघर्ष के अपने इसी नए रूप का इस्तेमाल गांधी ने भारत में भी किया.

गाँधी के संघर्ष का मूल था सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह. इस संघर्ष में वे विरोधी को हराना नहीं चाहते थे बल्कि उसका हृदय परिवर्तन करना चाहते थे और ऐसा तो बस ‘प्रेम’ से ही हो सकता है. इसलिए, उनके संघर्ष में विरोधियों के लिए घृणा नहीं थी, बल्कि स्वयं को कुर्बान कर देने का ‘आत्मबल’ था. सत्याग्रह का जो तरीका गांधी ने ईजाद किया उसमें विरोधी के खिलाफ़ न हथियार उठाना था, न उसके मार से अपना बचाव ही करना था. स्वयं को दुःख देकर, जो गलत है उसे मानने से इनकार करना था. गांधी कहते हैं ‘हिंसा निर्बलों का शस्त्र है, अहिंसा बलवानों का’. लेकिन उनके इस तरीके को कईयों ने हिंसा का ही रूप माना है. आर्थर मुर कहते हैं ‘गांधी की अहिंसा मानसिक हिंसा है’.

गांधी के इस तरीके की आलोचना इसलिए भी होती है क्योंकि एक ओर वे कहते हैं आत्महत्या कायरता है और दूसरी ओर आत्मत्याग को अहिंसा का सर्वोच्च रूप बताते हैं. वैसे गांधी अहिंसा के पक्के पुजारी इसलिए भी नहीं कहे जा सकते क्योंकि परिस्थितियों के साथ उनके प्रयोग बदलते रहते थे. न केवल 1899-1902 के दौरान हुए बोअर युद्ध में बल्कि 1906 के जुलू युद्ध में भी गांधी ने अंग्रेजों का सहयोग किया था. इस सम्बन्ध में गांधी का मानना था कि ऐसा कर वे भारतीयों के लिए रियायत की उम्मीद कर रहे थे लेकिन अगर गाँधी मानते हैं कि ‘साधन उतना ही पवित्र होना चाहिए जितना की साध्य’ तो फिर युद्ध में सहायता देकर रियायत की उम्मीद का अर्थ तो यही है की साधन ही अपवित्र है. गांधी ने खुद माना भी है की बोअर युद्ध में उनकी सहानुभूति बोअरों के प्रति थी फिर भी उन्होंने अंग्रेजों को सहायता देने का निश्चय किया. इतना ही नहीं दोनों महायुद्धों में भी वे बिना शर्त के भारतीयों द्वारा अंग्रेजों के सहयोग का आह्वाहन करते रहे. इसपर गांधी का कहना है कि ‘तनाव के समय हम वफादार रहे हैं, यह स्वराज के लिए उपयुक्तता की कोई परीक्षा नहीं है. वफादारी कोई योग्यता नहीं है. यह पूरी दुनिया में नागरिकता की एक आवश्यकता है’.

1915 में महात्मा गाँधी दक्षिण अफ्रीका से हमेशा के लिए भारत वापस लौटे थे और 1920 में उनके द्वारा भारत में पहला जन आन्दोलन असहयोग आन्दोलन चलाया गया. इस दौरान 4 फरवरी 1922 को गोरखपुर के चौरी-चौरा नामक स्थान पर हिंसा की एक छोटी घटना होती है और वे पूरा आन्दोलन वापस ले लेते हैं. जबकि 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान जगह-जगह पर पूरे भारत में हिंसा की सैंकड़ों घटनाएं हुई लेकिन आन्दोलन वापस लेना तो दूर गांधी ने इसकी निंदा तक नहीं की. इस परिप्रेक्ष्य में भी अक्सर उनपर अवसरवादी और झूठी अहिंसा के आरोप लगाये जाते हैं. लेकिन हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि 1922 में जब गांधी ने आन्दोलन वापस लिया था तो जैसा की बिपिन चन्द्र ने कहा है ‘यह गांधी के संघर्ष-विराम-संघर्ष की नीति का हिस्सा थी. वे जानते थे की जन आन्दोलन को बहुत लम्बे समय तक नहीं खिंचा जा सकता, इससे न केवल लोगों में उत्साह की कमी आती है बल्कि इसके हिंसात्मक रूप धारण करने से दमनात्मक कार्रवाई भी बढ़ जाती है’. इसलिए गांधी ने 2 वर्षों के लम्बे अन्तराल के बाद आन्दोलन वापस ले लिया जबकि 1942 में हिंसा की घटनाओं के बावजूद इसे वापस नहीं लिया गया. वैसे भी गांधी ने कहा है ‘हिंसा और कायरता में से किसी एक को चुनना होगा तो मैं हिंसा चुनुँगा’.

गाँधी के इस हिंसा-अहिंसा के द्वन्द में अक्सर उनपर यह आरोप भी लगते हैं कि अपनी छदम अहिंसा की आड़ में उन्होंने भगत सिंह की फांसी नहीं रुकवाई. इस सम्बन्ध में गांधी ने क्या कहा क्या नहीं, इससे ज्यादा जरुरी है इस मसले पर अंग्रेजों की राय. तत्कालीन वाइसराय इरविन ने ब्रिटिश सरकार को भेजी अपनी रिपोर्ट में भगत सिंह की सजा और गांधी के बारे में कहा था- “गांधी चूंकि अहिंसा में यकीन करते हैं इसीलिए वो किसी की भी जान लिए जाने के खिलाफ हैं. मगर उन्हें लगता है कि मौजूदा हालात में बेहतर माहौल बनाने के लिए ये सजा फिलहाल मुलतवी कर देनी चाहिए.” रॉबर्ट बर्नेज जो उस समय न्यूज़ क्रॉनिकल के सम्पादक और तत्कालीन वाइसराय इरविन के सहयोगी थे ने लिखा है कि ‘अगर भगत सिंह की फांसी रोक देने की बात मान ली जाती तो पंजाब के सारे पुलिस कर्मी इस्तीफा दे देते, इस डर से इरविन इस बात के लिए कभी राजी ही नहीं हुए’. वहीं सर पेंडरेल मून ने ‘ब्रिटिश शासन के अध्ययन’ में लिखा है कि ‘भगत सिंह की राहत के मामले में, इरविन ने राजनीतिक विचारों से प्रभावित होने से इनकार कर दिया’.

भगत सिंह की आत्मकथा लिखने वाले कुलदीप नैय्यर अपनी किताब ‘बुक विथआउट फियर’ में लिखते हैं की भगत सिंह द्वारा की गयी हिंसा के गांधी खिलाफ थे लेकिन फिर भी उनको बचाने का गांधी ने हरसंभव प्रयास किया. हालाँकि ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ के मोहन सिंह ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं कि ‘उन्होंने जानकर भगत सिंह को बचाने का प्रयास नहीं किया क्योंकि  इससे देश में क्रांतिकारी नायकों की संख्या बढ़ती और गाँधी ऐसा नहीं चाहते थे’. इस बाबत कांग्रेस के इतिहासकार पट्टाभि सितामरैय्या का कहना है कि ‘इरविन ने इसका कोई आश्वासन ही नहीं दिया क्योंकि इस मामले पर सहयोग करने में वे असमर्थ थे’. अंत में इन सम्पूर्ण मसले पर गांधी ने क्या कहा था यह जान लिया जाये- ‘किसी खूनी, चोर या डाकू को भी सजा देना मेरे धर्म के खिलाफ है. मैं भगत सिंह को नहीं बचाना चाहता था, ऐसा शक करने की तो कोई वजह ही नहीं हो सकती. मैं वायसराय को जितनी तरह से समझा सकता था, मैंने समझाया. मैंने हर तरीका आजमा कर देखा. 23 मार्च को मैंने वायसराय के नाम एक चिट्ठी भेजी थी. इसमें मैंने अपनी पूरी आत्मा उड़ेलकर रख दी. लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार हुई’. इन सबसे इतर एक महत्वपूर्ण मुद्दा जो अक्सर हम भूल जाते हैं वो है भगत सिंह क्या सही में चाहते थे की उनकी सजा माफ़ की जाये. तो इसका जवाब है नहीं, अपने पिता को लिखी चिट्ठी में इस बात के साफ़ संकेत मिलते हैं कि भगत सिंह सजा माफ़ी के सख्त खिलाफ थे.

“भगत सिंह, बोस और महात्मा” आर्टिकल में अशोक सेली लिखते हैं कि ‘भगत सिंह की फांसी के प्रति गांधी उदासीन रहे क्योंकि वे एक क्रांतिकारी थे’. अपनी बात पर जोर देते हुए वे कहते हैं कि 1939 में सुभाषचंद्र बोस को केवल वैचारिक मतभेदों के कारण गांधी ने कांग्रेस से बाहर कर दिया था, ऐसे में भगत सिंह को गांधी क्यों ही बचाते. यूँ भी बोस के साथ संबंधों को लेकर गांधी अक्सर विवादों में रहते हैं. चंद्रचूर घोष अपनी किताब में इनके बीच के संबंधो पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि इनके बीच विचारों में क्या बल्कि जीवन के किसी भी मुद्दे पर कोई समानता नहीं थी. हालाँकि सुशांत सिंह ऐसा नहीं मानते. वे कहते हैं कि दोनों के बीच एक आपसी समझ, प्यार और सम्मान का रिश्ता था. 1939 में बोस के अध्यक्ष पद जीतने के बाद गांधी ने ‘यंग इंडिया’ में लिखा था कि “सुभाष की जीत से मैं खुश हूं. सुभाष बाबू उन लोगों की कृपा के सहारे अध्यक्ष नहीं बने हैं जिन्हें अल्पमत गुट वाले लोग दक्षिणपंथी कहते हैं, बल्कि चुनाव में जीतकर अध्यक्ष बने हैं. इससे वे अपने ही समान विचार वाली कार्य-समिति चुन सकते हैं और बिना किसी बाधा या अड़चन के अपना कार्यक्रम अमल में ला सकते हैं”. इसके साथ ही 1939 में जब पटना में बोस को काले झंडे दिखलाए गए थे तो गांधी ने खुलकर इसकी आलोचना भी की थी. 1945 में आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिक जब गिरफ़्तार हुए तो लाल क़िले में गांधी उनसे मिलने भी गए. इस मुलाकात के बाद आजाद हिंद फौज के लोगों में कौमी एकता की जो मिसाल देखी उसे देखने के बाद गांधी ने कहा था कि ‘सुभाष चंद्र बोस एक राष्ट्रवादी नेता हैं और उनका सबसे बड़ा योगदान एक पूरा संगठन खड़ा करना और उसमें हिंदू-मुसलमान का भेद मिटा देना है और इसके लिए मैं उन्हें सलाम करता हूं’. बोस भी गांधी को अपना मानते थे इसके सबसे बड़ा उद्धरण यह है कि 4 जून 1944 को सिंगापुर रेडिया से एक संदेश प्रसारित करते हुए बोस ने सर्वप्रथम महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहकर संबोधित किया. हालाँकि इस वाकये को चंद्रचूर घोष बोस की महानता बताते हैं. जहाँ सुशांत सिंह कहते हैं कि इंडियन नेशनल आर्मी के एक बटालियन का नाम बोस ने गांधी ब्रिगेड रखा था. वहीं चंद्रचूर घोष इसे गलत मानते हैं. वे कहते हैं बोस के दक्षिण पूर्व एशिया में आने से पहले ही ये नाम दिए गए थे।

गांधी पर कट्टर धार्मिक होने का आरोप लगाकर उन्हें जाति व्यवस्था का समर्थक भी माना जाता है. ऐसे में इतिहासकार अक्सर अम्बेडकर और गाँधी को एक दूसरे के सामानांतर न खड़ा करके आमने-सामने खड़ा कर देते हैं. गांधी के लिए जहाँ ‘देश की स्वतंत्रता’ ज्यादा जरुरी थी, वहीं अम्बेडकर के लिए ‘देश में स्वतंत्रता’. गांधी एक धार्मिक व्यक्ति थे, इसमें कोई संदेह नहीं है लेकिन उनका धर्म उन्मादी नहीं था. वे भेद-भाव के समर्थक नहीं थे. धर्म उनके लिए नितांत निजी मान्यता और सह अस्तित्व पर आधारित था. उनका एकमात्र ईश्वर ‘सत्य’ था. वे जाति व्यवस्था को श्रम सिद्धांत का अंग मानते थे लेकिन किसी भी काम को छोटा-बड़ा नहीं मानते थे. दक्षिण अफ्रीका में जिस फिनिक्स आश्रम की गांधी ने स्थापना की थी वहां वे सभी से यह उम्मीद भी करते थे कि पखाना साफ़ करने में भी किसी को तकलीफ न हो. कोई काम किसी जाति विशेष का है, गांधी ऐसा नहीं मानते थे.वहीं छुआ-छूत का तो उन्होंने हमेशा विरोध ही किया.

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अम्बेडकर ने जब द्वितीय गोलमेज सम्मलेन में दलितों के लिए पृथक निर्वाचन की मांग की तो गांधी ने इसका कड़ा विरोध किया और जब 1932 में रामजे मैकडोनाल्ड द्वारा पृथक निर्वाचन लागू कर  दिया गया तो गांधी इसके खिलाफ आमरण अनशन पर बैठ गये. लेकिन ये आमरण अनशन क्यों था? अम्बेडकर के विरोध में? नहीं…यह अम्बेडकर के विरोध में नहीं बल्कि उन हिन्दुओं के विरोध में किया गया था जो छुआछुत मानते थे. अपनी आहुति देकर गांधी उन करोड़ों का ह्रदय परिवर्तन करना चाहते थे, जो पृथक निर्वाचन के द्वारा कभी संभव ही नहीं था. लुई फिशर लिखते हैं कि “गांधी हिन्दुओं के लिए महात्मा थे और उपवास कर उन्होंने अपनी मृत्यु की जिम्मेदारी उन करोड़ों हिन्दुओं पर डाल दी थी. इसलिए जब नेतागण अम्बेडकर को मना रहे थे उस दौरान सम्पूर्ण भारत में मंदिरों के पट अछूतों के लिए खोले जा रहे थे”. स्वयं टैगोर ने गांधी के उपवास पर कहा था “भारतीय समाज का अंग विच्छेद रोकने के लिए गांधीजी एक व्यक्ति की, स्वयं अपनी बलि दे रहे हैं.” पुणा समझौता के बाद स्वयं अम्बेडकर ने भाषण दिया था कि “मैं स्वीकार करता हूँ कि जब मैं उनसे मिला तो मुझे आश्चर्य हुआ और महान आश्चर्य हुआ कि उनके और मेरे बीच परस्पर मेल खाने वाली कितनी अधिक बातें थी”. गांधी के उपवास के औचित्य पर लुई फिशर लिखते हैं कि “इससे अस्पृश्यता का अभिशाप तो नहीं मिटा, परन्तु इसके बाद सार्वजनिक रूप से अस्पृश्यता का समर्थन समाप्त हो गया. केवल गाँधी-आंबेडकर समझौते अथवा पृथक निर्वाचन से यह हासिल नहीं हो पाता”. गांधी-अम्बेडकर विवाद पर निशिकांत कोलगे कहते हैं कि ऐसा क्यों है कि दलित विमर्श में हम केवल एक के विचार को माने और दूसरे को विरोधी जबकि देखा जाये तो दोनों के विचार का मिश्रण ही दलित विरोधी मानसिकता का जवाब हो सकता है. शिक्षा और कानून दलित मसले का हल है लेकिन समाज की व्यापक सहमती भी उतनी ही आवश्यक है. इसलिए दलित विमर्श में गाँधी-अम्बेडकर विरोधी नहीं हैं बल्कि एक साथ खड़े हैं.

गांधी की आलोचना उनकी आर्थिक नीतियों को लेकर भी की जाती है. गांधी को मार्क्सवादी विचारक पूंजीवादी व्यवस्था का एजेंट मानते हैं. गांधी के “ट्रस्टीशिप सिद्धांत” की भी यह कहकर आलोचना की जाती है की यह पूंजीवाद के समर्थन में है. हालाँकि गांधी ने यह विचार 20वीं सदी के उस दौर में दिया जब पूंजीवाद जनित समस्याओं के परिणाम नजर आने लगे थे. इश्वास्योपनिषद, बाइबिल और जॉन रस्किन से प्रभावित गांधी का यह सिद्धांत मानता है कि उत्पादन पर हुए लाभ पर सबका समान अधिकार है, यह समाजवाद की ही भांति निजी संपत्ति के अधिकार को नहीं मानता. यह सामाजिक समरसता-समता पर आधारित है जहाँ पूंजीपति वर्ग लाभ को अपने उपभोग में इस्तेमाल नहीं करता बल्कि केवल उसका न्यासी बन सभी के बारे में सोचता है. गांधी के इस सिद्धांत का अंतिम लक्ष्य भी वही है जो समाजवाद का है. बस अंतर है केवल तरीकों का. समाजवाद हिंसा और क्रांति की बात करता है जबकि गांधी अहिंसा और हृदय परिवर्तन की. कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर) की अवधारणा भी गांधी के ट्रस्टीशीप अवधारणा की ही उपज है. गाँधी समाजवाद से इस मामले में भी सामान हैं की दोनों राजनीतक  रूप से एक राज्यविहीन समाज की स्थापना करना चाहते हैं. हालाँकि गांधी लोकतंत्र को मानते हैं. अस्थायी तौर पर विकेंद्रीकृत लोकतंत्र की अवधारणा भी देते हैं कि इसकी शुरुआत गाँवों से होनी चाहिए. गाँवों को आत्मनिर्भर होना चाहिए लेकिन आदर्श रूप में उनका भी लक्ष्य है एक राज्यविहीन समाज. गांधी ऐसा कहकर अराजकतावादी के गुट में भी खड़े हो जाते हैं. 

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भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में धर्म बीज गांधी ने डाले इसके आरोप भी उनपर लगते हैं. गांधी के राम राज्य की कल्पना, गाय को लेकर उनका प्रेम ये सब कुछ मुद्दे थे जिसने मुस्लिमों को पाकिस्तान की मांग पर मजबूर किया, यह भी कहा जाता है. लेकिन क्या गांधी से पहले राजनीति में धर्म के समावेश का पदार्पण नहीं हो गया था. क्या धार्मिक संगठन तब तक अपनी पौध नहीं बढ़ा चुके थे? गांधी जब राम राज्य की बात करते हैं तो वो इसकी तुलना हिन्दुओं के राज से नहीं करते हैं बल्कि एक आदर्श राज्य से करते हैं. वहीं गाय के प्रति प्रेम इसलिए प्रदर्शित करते हैं क्योंकि कृषि को गांधी अर्थव्यवस्था की रीढ़ मानते थे. खिलाफत आन्दोलन और असहयोग आन्दोलन को मिलाने पर जब कांग्रेस उनके खिलाफ खड़ी थी तब भी उन्होंने ऐसा किया क्योंकि वे इसे हिन्दू–मुस्लिम एकता का सबसे बड़ा अवसर मानकर चल रहे थे. रही बात विभाजन में गांधी की भूमिका की तो राम मनोहर लोहिया ने अपनी किताब “गिल्टी मेन ऑफ़ इंडिया” में लिखा है ‘गांधी एकलौते बड़े नेता थे, जो अंत तक विभाजन के खिलाफ रहे’. एच वी सेशाद्री ने अपनी पुस्तक “द ट्रैजिक स्टोरी ऑफ़ पार्टीशन” में भी कुछ ऐसा ही लिखा है कि ‘गांधी ने विभाजन का आखिरी सांस तक विरोध किया था’. इतना ही नहीं पटेल द्वारा लिखे पत्रों से भी इसकी झलक मिलती है. स्वयं पटेल ने अपने पत्रों में लिखा है कि ‘विभाजन के लिए बापू को मैंने मनाया’.

विभाजन से गांधी किस हद तक दुखी थे इसका सबसे बड़ा उदाहरण है की जब भारत के सभी बड़े नेता स्वतंत्रता आन्दोलन का जश्न मना रहे थे तब भी गांधी विभाजन से लगी आग शांत करने के लिए नोआखाली में उपवास कर रहे थे. दंगों के दौरान गांधी के उपवास का असर लॉर्ड माउंटबेटन के शब्दों से समझा जा सकता है. “पंजाब में हमारे पास 55,000 सैनिक हैं, और बड़े पैमाने पर दंगे हो रहे हैं. बंगाल में हमारी सेना में एक आदमी है, और कोई दंगा नहीं है. एक सेवारत अधिकारी के साथ-साथ एक प्रशासक के रूप में, मुझे वन-मैन बाउंड्री फ़ोर्स को श्रद्धांजलि अर्पित करने की अनुमति दी जाए.”

देश को आजाद हुए ज्यादा वक्त गुजरा भी नहीं था कि 30 जनवरी, 1948 को गांधी की हत्या कर दी गयी. जिस विभाजन, हिंसा, धर्मान्धता के कारण वे ताउम्र लड़ते रहे उसी ने आखिर उनकी जान ले ली. लेकिन जैसा कि 1931 के कराची अधिवेशन में गाँधी ने कहा था “गांधी मर सकता है, गांधीवाद नहीं”. गांधी के जाने के बाद नेल्सन मंडेला ने दक्षिण अफ्रीका में और मार्टिन लुथर किंग ने अमेरिका में रंगभेद के खिलाफ गांधी की नीतियों का अनुसरण कर जिस तरह जीत हासिल की वह गांधी की प्रासंगिकता का सबसे अच्छा जवाब है. आज भी लोकतान्त्रिक सरकार में विरोध का सबसे प्रभावी तरीका गांधीवादी तरीका बनकर उभरा है. ऐसे में यह माना जा सकता है कि गांधी यही कहते होंगे जैसा की दुष्यंत कुमार ने लिखा है –

मैं फिर जन्म लूँगा

फिर मैं

इसी जगह आऊंगा

तुम मुझको दोषी ठहराओ

मैंने तुम्हारे सुनसान का गला घोंटा है

पर मैं गाऊँगा

चाहे इस प्रार्थना सभा में

तुम सब मुझ पर गोलियां चलाओ

मैं मर जाऊँगा

लेकिन मैं कल फिर जनम लूँगा

कल फिर आऊंगा…


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