Lord Cornwallis: एक प्रशासक, सुधारक और औपनिवेशिक रणनीतिकार का मूल्यांकन

Lord Cornwallis UPSC

लॉर्ड कॉर्नवालिस का इतिहास ( History of Lord Cornwallis)

‘आपदा में अवसर’ यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी, लेकिन इसे लॉर्ड कॉर्नवालिस (Lord Cornwallis) ने बनाया। कॉर्नवालिस एक मिलिट्री कमांडर था, जिसके सेना में रहते इंग्लैंड अमेरिकी स्वतंत्रता युद्ध हार गया था। ऐसे में इस हार का कॉर्नवालिस को बड़ा ही धक्का लगा। शायद इसलिए अमेरिका के हाथ से जाने के बाद उसने भारत पर पकड़ मजबूत करने के लिए अपनी जी-जान लगा दी। कॉर्नवालिस जिसे अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में 1781 में यॉर्कटाउन की घेराबंदी में अपने आत्मसमर्पण के लिए जाना जाता था, उसने भारत में एक सफल जनरल की भूमिका निभाई और इंग्लैंड के क्षेत्र विस्तार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

कॉर्नवालिस का जन्म 31 दिसंबर 1738 को इंग्लैंड के कुलीन परिवार में हुआ था। वह भविष्य में सैन्य कमांडर बनेगा यह शायद उसके जन्म से ही तय हो गया था। इसका कारण था सैन्य और राजनीतिक करियर में उसके परिवार की पहुँच। दरअसल, कॉर्नवालिस एक लंबी सैन्य परंपरा का हिस्सा था। उसके चाचा एडवर्ड कॉर्नवालिस सेना में लेफ्टिनेंट जनरल थे। वहीं उसके भाई भी सैन्य सेवा में थे। इसी परंपरा को बरकरार रखते हुए कॉर्नवालिस ने बचपन में ईटन कॉलेज में शिक्षा प्राप्त की और मार्शल गतिविधियों में जाने से पहले कुछ समय के लिए कैम्ब्रिज में अध्ययन किया। इटली के एक सैन्य अकादमी में भी उसने सैन्य शिक्षा प्राप्त की। इसके बाद उसने फुट गार्ड्स की पहली रेजिमेंट में काम किया।

कॉर्नवालिस के करियर की शुरुआत ‘सप्तवर्षीय युद्ध’ से हुई। यहाँ से उसका तबादला 12वीं फ़ुट रेजिमेंट में हो गया और तीन साल तक उसने जर्मनी में सेवा की। लेकिन जल्द ही 1762 में अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी जगह पर कॉर्नवालिस को ‘हाउस ऑफ लॉर्ड्स’ में नियुक्त कर लिया गया। उस दौरान अमेरिका में इंग्लैंड द्वारा लाए गए स्टाम्प एक्ट का भारी विरोध हो रहा था। इस संबंध में कॉर्नवालिस की सहानुभूति अमेरिकियों के प्रति थी। इसे इस बात से समझा जा सकता है कि स्टाम्प अधिनियम, 1765 को निरस्त करने के प्रस्ताव के पक्ष में मतदान करने वाले पाँच सदस्यों में वह भी शामिल था। वह हमेशा इंग्लैंड की उन नीतियों का विरोध करता रहा जो उत्तरी अमेरिका में स्वतंत्रता संग्राम को तीव्र कर रही थी। हालाँकि, इसका अर्थ यह कतई नहीं है कि वो उपनिवेशवाद का विरोधी था। बल्कि, यह उपनिवेशवाद को स्थायित्व प्रदान करने की उसकी नीति का हिस्सा भर था।

ऐसा इसलिए क्योंकि वर्ष 1775 में जब अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम अपने चरम पर पहुँच गया तो उसने औपनिवेशिक सहानुभूति से परे जाकर इंग्लैंड की तरफ से ही युद्ध किया। असल में, लेक्सिंगटन और कॉनकॉर्ड की लड़ाई के बाद, 1775 में कॉर्नवालिस को लेफ्टिनेंट जनरल के पद पर पदोन्नति मिली और उसे अमेरिका रवाना कर दिया गया। उसने चार्ल्सटन के खिलाफ पहले ब्रिटिश अभियान में भाग लिया और न्यूयॉर्क और फिलाडेल्फिया अभियानों में भी लड़ाई लड़ी। इस दौरान कॉर्नवालिस सबसे बेहतरीन सेनापति साबित हुआ। लेकिन, अंततः 1781 में यॉर्कटाउन की घेराबंदी में उसे अमेरिकी-फ्रेंच की संयुक्त सेना के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। युद्ध बंदी कॉर्नवालिस को बाद में कॉन्टिनेंटल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष पैट्रियट हेनरी लॉरेन्स से बदल दिया गया। इस तरह वह अमेरिका से सुरक्षित वापस आ गया। उसे पैरोल द्वारा युद्ध में आगे भाग लेने से रोक दिया गया। हालाँकि, इस हार से कॉर्नवालिस को भले गहरा धक्का लगा हो, लेकिन इससे उसके करियर पर कोई आंच नहीं आई। जल्द ही भारत में बंगाल के गवर्नर जनरल के रूप में काम करने का बेहतरीन अवसर उसके हाथ लग गया।

इस बात का प्रस्ताव इंग्लैंड की आम सभा में सर्वप्रथम 1782 में रखा गया था। हालाँकि, कॉर्नवालिस इस पद को स्वीकार करने के लिए मान गया था लेकिन इसके लिए उसने दो शर्तें रखीं। पहली ये कि गवर्नर जनरल को काउंसिल के निर्णय पर वीटो करने और दूसरी विशेष परिस्थितियों में इच्छानुसार कार्य करने की स्वतंत्रता दी जाएगी। तत्कालीन समय में वह पूरा नहीं हो पाया। उसे इसी दौरान आयरलैंड में भी काम करने का प्रस्ताव दिया गया, लेकिन कॉर्नवालिस ने उसे ठुकरा दिया। अंततः 1783 में पिट के सत्ता में आने के बाद 1786 में कॉर्नवालिस को यह भूमिका सौंपी गयी। कॉर्नवालिस की शर्तों को मानते हुए ही पिट्स इंडिया एक्ट में 1786 में संशोधन किया गया और उसकी दोहरी मांगों को मान लिया गया। इस तरह भारत और कॉर्नवालिस के इतिहास एक-दूसरे से जुड़ गए।

कॉर्नवालिस ने जॉन मैकफर्सन की जगह ली, जो इस फैसले से खुश नहीं था। उसने गवर्नर जनरल के आवास को छोड़ने से भी इनकार कर दिया था। लेकिन, कॉर्नवालिस ने शपथ ग्रहण के साथ ही यह साफ कर दिया कि आवास पर वह किसी के दावे को मान्यता नहीं देगा। इस तरह उसने भारत आते ही अपने कड़े तेवर से सबको वाकिफ करा दिया।

भारत आते ही कॉर्नवालिस ने सुधारों की झड़ी लगा दी। उसने प्रशासनिक, न्यायिक, राजस्व जैसे सभी क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन किए। दरअसल, वारेन हेस्टिंग्स के कई सुधारों के बावजूद कंपनी के कर्मचारियों के भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आ रही थी, इसके उलट कंपनी के पास प्रशासनिक जिम्मेदारी आ जाने से इसमें और वृद्धि ही हो रही थी। कॉर्नवालिस खुद भी ईमानदार था, ऐसे में उसने प्रशासन में भ्रष्टाचार रोकने के कई कदम उठाए।

कंपनी के कर्मचारियों के भ्रष्ट आचरण का सबसे बड़ा कारण था उनका कम वेतन होना। ऐसे में उसने सबसे पहले अधिकारियों की संख्या में कमी की और उनके वेतन में वृद्धि की। उसने निदेशक मंडल और नियंत्रण बोर्ड के सदस्यों की कृपा पर अंग्रेजों को अधिक सहायता करने से इनकार कर दिया। वह ऐसा पहला प्रशासक बना जिसने योग्यता के आधार पर भर्ती की। हालाँकि, अमेरिकी औपनिवेशिक लोगों के प्रति उसकी स्वाभाविक सहानुभूति के विपरीत, कॉर्नवालिस ने भारतीयों के प्रति कोई हमदर्दी नहीं दिखाई। उसने भारतीयों के साथ तिरस्कार का व्यवहार किया।

वह मानता था कि भारतीय भ्रष्ट होते हैं और प्रशासन के लिए अयोग्य हैं, इसलिए उसने उच्च पदों पर भारतीयों की नियुक्ति बंद कर दी। 1793 के एक अधिनियम द्वारा उसने यह प्रावधान किया कि 200 पाउंड से अधिक वेतन के पद पर भारतीयों को नियुक्त नहीं किया जा सकता। इस तरह अपने ही देश के शासन से उसने भारतीयों को बाहर कर दिया।

भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए उसने बोर्ड ऑफ ट्रेड के सदस्यों की संख्या भी 11 से घटाकर 5 कर दी। उसने ठेकेदारों से सामान खरीदने की प्रथा को भी बंद कर दिया। इतना ही नहीं, भ्रष्ट ठेकेदारों के विरुद्ध कार्यवाही करते हुए उसने उन पर मुकदमे भी दायर किए। उसने कलेक्टर की शक्ति भी कम की। शक्ति पृथक्करण सिद्धांत को लागू करते हुए कॉर्नवालिस ने कलेक्टर के हाथों से न्यायिक शक्ति ले ली और उसे केवल राजस्व संग्रह का अधिकार दिया। इसमें वसूल की गई राशि को 1% कमीशन के रूप में दे दिया और उनका मासिक वेतन बढ़ाकर 1500 रुपये कर दिया।

तत्कालीन समय में सबसे उच्च वेतन भारतीय सिविल सेवकों का ही था। अपने लोक सेवा और पुलिस सुधारों के कारण कॉर्नवालिस को भारत में सिविल और पुलिस सेवा का जनक भी माना जाता है। पुलिस सुधारों के तहत, कॉर्नवालिस ने जमींदारों से पुलिस कार्य ले लिया और आधुनिक थाना व्यवस्था का निर्माण किया। उसने थाने को दरोगा के अंतर्गत रखा और उसके ऊपर एक अधीक्षक (Superintendent) के पद का भी सृजन किया।

वारेन हेस्टिंग्स ने जिन न्यायिक सुधारों की शुरुआत की थी, वे अपर्याप्त साबित हुए। दरअसल, हेस्टिंग्स ने जिन न्यायिक सुधारों की शुरुआत की, वे भारतीय पद्धति पर ही आधारित थे। जबकि, कॉर्नवालिस में ब्रिटिश श्रेष्ठता का भाव भरपूर था। ऐसे में उसने ब्रिटिश व्यवस्था में अपनी आस्था प्रकट करते हुए कई सुधार किए। उसने दीवानी और फौजदारी अदालतों को पुनर्गठित किया।

दीवानी अदालत में सबसे नीचे मुंसिफ़ की अदालत थी, जो 50 रुपये तक के मामले की सुनवाई करती थी। इसके ऊपर रजिस्ट्रार की अदालत थी, जो यूरोपीय न्यायाधीश के अंतर्गत आती थी और 200 रुपये तक के मामलों की सुनवाई करती थी। इसके ऊपर जिला न्यायालय था, जिसके ऊपर 4 प्रांतीय अदालतें थीं- कलकत्ता, मुर्शिदाबाद, ढाका और पटना में। ये अदालतें 1000 रुपये तक के मुकदमों की सुनवाई करती थीं। सबसे ऊपर कलकत्ता की सदर दीवानी अदालत थी, जो गवर्नर जनरल और उसकी परिषद के अंतर्गत थी। इन सबके इतर 5000 रुपये से ऊपर के मामले किंग-इन-काउंसिल में भेजे जाते थे।

दीवानी न्यायालय के साथ ही उसने फौजदारी अदालतों की भी एक नई श्रृंखला लागू की। उसने जिला फौजदारी न्यायालय के ऊपर 4 सर्किट कोर्ट स्थापित किए। ये न्यायालय वर्ष में 2 बार किसी क्षेत्र में भ्रमण करते थे। हालाँकि, ये मृत्युदंड दे सकते थे, लेकिन इसके विरुद्ध सदर निजामत अदालत में अपील की जा सकती थी, जो फौजदारी मामलों में सबसे उच्च न्यायालय था।

इन सुधारों के अतिरिक्त कॉर्नवालिस ने भू-राजस्व में भी सुधार किए। कॉर्नवालिस ने 1787 ई. में प्रांत को राजस्व क्षेत्रों में विभाजित किया एवं प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक कलेक्टर की नियुक्ति की। इनकी संख्या पहले 36 थी, जिसे घटाकर उसने 23 कर दिया। 1790 ई. में कॉर्नवालिस ने जमींदार को भूमि का स्वामी स्वीकार कर लिया। इन जमींदारों को कंपनी को वार्षिक कर देना होता था। ठेके की राशि में से भी 1/11 भाग कम कर दिया गया।

यह व्यवस्था पहले 10 वर्ष के लिए की गई थी, परंतु 1793 ई. में उसे स्थायी कर दिया गया। इसी व्यवस्था को स्थायी या इस्तमरारी बंदोबस्त कहा गया। कॉर्नवालिस के ये सभी सुधार सम्मिलित रूप से कॉर्नवालिस कोड कहलाए। हालाँकि, उसके सुधार भारत के लिए लाभकारी सिद्ध नहीं हुए, लेकिन एक सबसे अच्छी बात यह रही कि उसके न्यायिक सुधारों से न्यायिक व्यवस्था में धार्मिक-जातीय विभेदीकरण मिट गया और कानून सभी पर समान रूप से लागू हुए।

इसके साथ ही एक अच्छी पहल यह रही कि 1789 में उसने दासों के व्यापार पर रोक लगा दी। 1791 में बनारस में जोनाथन डंकन द्वारा स्थापित संस्कृत कॉलेज की स्थापना में भी उसने सहयोग किया। उसने कलकत्ता में एक टकसाल की भी स्थापना कराई। देखा जाए तो कॉर्नवालिस के इन सुधारों का उद्देश्य भारतीय हित में नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य अमेरिका के हाथ से जाने के बाद भारत पर अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखना था।

इससे एक ओर कंपनी को सुदृढ़ वित्तीय व्यवस्था का आधार मिला तो दूसरी ओर इसकी निरंतरता सुनिश्चित हुई। भारत में इन सुधारों के माध्यम से उसने यह भी सिद्ध करने का प्रयास किया कि ब्रिटिश व्यवस्था श्रेष्ठ है और जो संस्थाएँ वहाँ सफल हुई हैं, वे और कहीं भी सफल हो सकती हैं। ब्रिटिश श्रेष्ठता का यह भाव इस बात से भी सिद्ध हो जाता है कि उसने भारत के स्वतंत्र राज्यों को कमजोर करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792) में उसने टीपू सुल्तान को भारी शिकस्त दी और बाकी स्वतंत्र शक्तियों जैसे हैदराबाद के निजाम और मराठों को भी कमजोर किया। इस संबंध में कॉर्नवालिस ने कहा भी कि मैंने अपने मित्रों को शक्तिशाली बनाए बिना ही अपने शत्रु को कमजोर कर दिया।

ब्रिटेन के लिए इस जीत के मायने इस बात से भी समझे जा सकते हैं कि जब कॉर्नवालिस 1793 ई. के अंत तक वापस इंग्लैंड लौटा तो उसके स्वागत में ब्रिटेन में जश्न मनाया गया।

आयरलैंड और ब्रिटेन में भूमिका

भारत से लौटने के बाद लॉर्ड कैमडेन ने 1797 में कमांडर-इन-चीफ के पद के लिए कॉर्नवालिस का सुझाव दिया। हालाँकि, कॉर्नवालिस ने इस प्रारंभिक प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया क्योंकि यह पद लॉर्ड लेफ्टिनेंट के अधीन था। उसे लगा कि इससे उसकी प्रभावशीलता कम हो जाएगी। मार्च 1798 में, कैमडेन ने पिट को सुझाव दिया कि उन्हें लॉर्ड लेफ्टिनेंट के रूप में कॉर्नवालिस से बदल दिया जाए अथवा कॉर्नवालिस को दोनों पद दिए जाएँ।

यह व्यवस्था भारत में उसके पद के समान थी। इस तरह वह भारत के साथ ही आयरलैंड में भी प्रशासन का कर्ता-धर्ता बना। उस दौरान आयरलैंड में इंग्लैंड के खिलाफ चल रहे विद्रोह में उसकी सहानुभूति पूरी तरह से आयरलैंड के विद्रोहियों के प्रति थी। उसने लिखा भी कि “आयरलैंड के एक लॉर्ड लेफ्टिनेंट का जीवन मेरे लिए एक पूर्ण दुख का विचार है; लेकिन अगर मैं ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत करने के महान उद्देश्य को प्राप्त कर सकता हूँ तो मुझे पर्याप्त भुगतान मिलेगा।”

उसने उन विद्रोहियों को माफी की पेशकश करते हुए भी एक उद्घोषणा जारी की, जिन्होंने अपने हथियार डाल दिए और इंग्लैंड के ताज के प्रति शपथ ली। हालाँकि, उसके इस प्रस्ताव का ब्रिटेन में कड़ा विरोध हुआ। इस विद्रोह में फ़्रांसीसी भूमिका को देखते हुए उसने फ्रांसीसी आक्रमण को सफलतापूर्वक नाकाम किया।

इसके बाद उसने आयरिश संसद द्वारा 1800 ई. में संघ अधिनियम पारित कराने के लिए काम किया, जिससे आयरलैंड ताज के साम्राज्य में शामिल हो गया। इससे ग्रेट ब्रिटेन साम्राज्य को ग्रेट ब्रिटेन और आयरलैंड के यूनाइटेड किंगडम में बदल दिया गया। नेपोलियन के साथ ब्रिटेन की 1802 में हुई अमीन्स की संधि में भी उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

आयरलैंड के बाद कॉर्नवालिस एक बार फिर 1804 ई. में भारत वापस लौटा। 7 जनवरी 1805 को कॉर्नवालिस को फिर से भारत के गवर्नर-जनरल और कमांडर-इन-चीफ के पद पर मद्रास में नियुक्त किया गया। हालाँकि, इस दौरान उसकी स्वास्थ्य स्थिति ठीक नहीं थी। जब कॉर्नवालिस 27 सितंबर 1805 को ग़ाज़ीपुर पहुँचा, तो वह इतना बीमार था कि आगे नहीं बढ़ सका और एक सप्ताह बाद, 5 अक्टूबर 1805 को उसकी वहीं मृत्यु हो गई। इसके बाद उसे ग़ाज़ीपुर में दफनाया गया। यहाँ आज भी उसका मकबरा बना हुआ है, जो पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। कॉर्नवालिस एक अकेला गवर्नर जनरल है जिसकी मृत्यु भारत में हुई।

सार (Synopsis)

कॉर्नवालिस का नाम भारतीय इतिहास में एक ऐसे गवर्नर-जनरल के रूप में लिया जाता है जिसने ब्रिटिश प्रशासन को मजबूत किया। हालाँकि, उसे अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में 1781 में यॉर्कटाउन की घेराबंदी में आत्मसमर्पण के लिए जाना जाता है, लेकिन भारत में उसने ब्रिटिश क्षेत्र विस्तार और प्रशासनिक सुधारों में निर्णायक भूमिका निभाई।


प्रारंभिक जीवन और सैन्य करियर

जन्म और पारिवारिक पृष्ठभूमि

  • जन्म: 1738 में इंग्लैंड के एक कुलीन परिवार में।
  • परिवार की सैन्य परंपरा: उसके चाचा एडवर्ड कॉर्नवालिस लेफ्टिनेंट जनरल थे। उसके भाई भी सैन्य सेवा में थे।
  • शिक्षा: ईटन कॉलेज और कैम्ब्रिज में अध्ययन।
  • सैन्य प्रशिक्षण: इटली की एक सैन्य अकादमी में।

प्रारंभिक सैन्य सेवा

  • सप्तवर्षीय युद्ध: 1757 से सैन्य सेवा की शुरुआत।
  • हाउस ऑफ लॉर्ड्स में प्रवेश: 1762 में पिता की मृत्यु के बाद।
  • स्टाम्प एक्ट पर विचार: 1765 में अमेरिकियों के पक्ष में मतदान।

अमेरिका में भूमिका

अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

  • न्यूयॉर्क और फिलाडेल्फिया अभियानों में भागीदारी।
  • यॉर्कटाउन में आत्मसमर्पण: 1781 में अमेरिकी और फ्रांसीसी सेनाओं के सामने।

युद्ध के बाद की स्थिति

  • आत्मसमर्पण के बावजूद करियर पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ा।
  • भारत में बंगाल के गवर्नर-जनरल का पद स्वीकार किया।

भारत में आगमन और शर्तें

गवर्नर-जनरल नियुक्ति की शर्तें

1786 में पिट्स इंडिया एक्ट के तहत:

  1. वीटो अधिकार: काउंसिल के निर्णयों पर।
  2. स्वतंत्र निर्णय का अधिकार: विशेष परिस्थितियों में।

प्रारंभिक चुनौतियाँ

  • जॉन मैकफर्सन से सत्ता हस्तांतरण।
  • अपने अधिकार स्थापित करने के लिए कड़े कदम उठाए।

प्रशासनिक सुधार

भ्रष्टाचार पर नियंत्रण

  • कंपनी कर्मचारियों का वेतन बढ़ाया।
  • योग्यता के आधार पर नियुक्ति शुरू की।
  • निदेशक मंडल की कृपा से लाभ देने से इनकार किया।

भारतीयों के प्रति दृष्टिकोण

  • भारतीयों को प्रशासनिक पदों से दूर रखा।
  • 1793 में अधिनियम पारित: 200 पाउंड से अधिक वेतन के पद पर भारतीयों की नियुक्ति पर रोक।

पुलिस सुधार

  • आधुनिक थाना प्रणाली लागू की।
  • दरोगा और अधीक्षक (Superintendent) के पद सृजित किए।

न्यायिक सुधार

न्यायालयों का पुनर्गठन

  • दीवानी अदालत:
    • सबसे नीचे मुंसिफ़ की अदालत (50 रुपये तक के मामले)।
    • रजिस्ट्रार की अदालत (200 रुपये तक के मामले)।
    • जिला न्यायालय और प्रांतीय अदालतें (1000 रुपये तक के मामले)।
    • सदर दीवानी अदालत (सर्वोच्च)।
  • फौजदारी अदालत:
    • जिला फौजदारी अदालत।
    • सर्किट कोर्ट (वार्षिक भ्रमण)।
    • सदर निजामत अदालत (सर्वोच्च)।
  • समान न्याय व्यवस्था
  • कानून सभी पर समान रूप से लागू किए।
  • धार्मिक और जातीय भेदभाव समाप्त किया।

भू-राजस्व सुधार

स्थायी बंदोबस्त

  • जमींदारों को भूमि का स्वामित्व दिया।
  • वार्षिक राजस्व तय किया।
  • 1793 में इस व्यवस्था को स्थायी बनाया गया।

प्रशासनिक पुनर्गठन

  • राजस्व क्षेत्रों को पुनर्गठित किया।
  • कलेक्टरों की संख्या 36 से घटाकर 23 की।

भारत में ब्रिटिश विस्तार

तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-1792)

  • टीपू सुल्तान को हराया।
  • हैदराबाद के निजाम और मराठों को कमजोर किया।

रणनीति

  • “मित्रों को शक्तिशाली बनाए बिना शत्रु को कमजोर करना”।

भारत के बाहर भूमिका

आयरलैंड का विद्रोह

  • आयरिश विद्रोहियों को माफी की पेशकश।
  • फ्रांसीसी आक्रमण को विफल किया।

संघ अधिनियम, 1800

  • आयरलैंड को यूनाइटेड किंगडम में शामिल किया।
  • ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया।

अमीन्स की संधि, 1802

  • नेपोलियन के साथ ब्रिटेन के संबंधों में मध्यस्थता की।

भारत में अंतिम कार्यकाल और निधन

पुनः भारत वापसी

  • 1804 में गवर्नर-जनरल और कमांडर-इन-चीफ नियुक्त।
  • स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद गाज़ीपुर पहुँचे।

निधन और अंतिम संस्कार

  • 5 अक्टूबर 1805 को गाज़ीपुर में मृत्यु।
  • गाज़ीपुर में मकबरा, जो आज भी एक ऐतिहासिक स्थल है।

निष्कर्ष

लॉर्ड कॉर्नवालिस का उद्देश्य भारतीयों के हित में सुधार लाना नहीं था, बल्कि ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत करना था। फिर भी, उनके प्रशासनिक और न्यायिक सुधारों ने भारत में आधुनिक प्रशासन की नींव रखी।


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