आज हम एक सवाल उठाने जा रहे हैं, जो शायद आपके मन में भी कहीं न कहीं छिपा हो। यह एक ऐसा सवाल हैं, जो इतिहास के पन्नों में बार-बार लिखा गया, लेकिन दुनिया उसे अक्सर भूल जाती है। सवाल है कि क्या अमेरिका वाकई वो दोस्त है, जो मुसीबत में साथ देता है? या वो एक स्वार्थी ताकत है, जो सिर्फ अपना फायदा देखता है और दूसरों को तबाह छोड़ देता है? यूक्रेन की ताजा मिसाल हमारे सामने है। 28 फरवरी 2025 को अमेरिका के ओवल ऑफिस में हुई वो मुलाकात, जहाँ यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की को अपमानित होकर लौटना पड़ा। एक ऐसी मुलाकात, जिसने अमेरिका की दोस्ती का असली चेहरा बेनकाब कर दिया। तो चलिए, इस सच्चाई को करीब से देखते हैं।
28 फरवरी 2025, अमेरिका का राष्ट्रपति कार्यालय यानी ओवल ऑफिस में यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमिर ज़ेलेंस्की मदद की गुहार लेकर पहुंचते हैं, जो पिछले कई सालों से रूस के खिलाफ जंग लड़ रहे हैं। रूस के खिलाफ उनकी जंग में हथियार, पैसा और समर्थन चाहिए था। लेकिन बदले में उन्हें मिलता है अपमान और ठुकराहट। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प और उपराष्ट्रपति जे.डी. वेंस उन्हें मदद की जगह ताने देते हैं। ट्रंप ने कहा कि जेलेंस्की युद्धविराम न करके लाखों लोगों की जिंदगी के साथ खेल रहे हैं। ट्रम्प ने कहा कि या तो हमारी शर्तों पर समझौता करो, वरना हम बाहर हैं। उन्होंने यहाँ तक कहा कि आप तीसरे विश्वयुद्ध के लिए जुआ खेल रहे हैं। आप शांति नहीं, जंग चाहते हैं। उनके उप-राष्ट्रपति जे.डी. वेंस ने तो ज़ेलेंस्की को अपमानजनक तक कह डाला। और फिर ट्रम्प का आखिरी तंज—”जब शांति के लिए तैयार हों, तो हमारे पास आ आना। है न मजाक! ये वही अमेरिका है, जो यूक्रेन को सहयोगी कहता था—लेकिन अब जरूरत पढ़ने पर उसे ताने दे रहा है।
ज़रा सोचिए—एक देश अपनी जमीन, अपने लोगों की हिफाजत के लिए लड़ रहा है। वो अमेरिका की तरफ उम्मीद से देखता है—नाटो का सपना दिखाया गया, हथियारों का भरोसा दिया गया। लेकिन जब वक्त आया, तो अमेरिका ने दरवाजा दिखा दिया। ट्रम्प ने प्रेस कॉन्फ्रेंस तक कैंसिल कर दी और कहा, ‘ज़ेलेंस्की ने मेरे ओवल ऑफिस का अपमान किया। लेकिन सवाल ये है—असली अपमान किसका हुआ? स्वाभाविक तौर पर यूक्रेन का हुआ, जो अमेरिका को अपना सबसे बड़ा सहयोगी मानता था और उसी के दम पर उछल रहा था। यूक्रेन ने अमेरिका पर भरोसा किया था। ज़ेलेंस्की का वो दर्द भरा बयान—”‘हमें अपने दोस्तों का साथ चाहिए, ताने नहीं—क्या बताता है यह बयान? अमेरिका की दोस्ती एक छलावा है, एक ढोंग है।
ये पहली बार नहीं है जब अमेरिका ने अपने दोस्तों को बीच मझधार में छोड़ा है। इतिहास गवाह है कि अमेरिका बार-बार अपने ‘दोस्तों’ को धोखा देता है। अफगानिस्तान को देखिए—20 साल तक अमेरिका ने तालिबान से जंग लड़ी और तमाम वादे किये, लोकतंत्र का ढोल पीटा। लेकिन 2021 में क्या हुआ? अपने हित पूरे होते ही अमेरिका वहाँ से रातोंरात भाग खड़ा हुआ। अफगान सरकार ढह गई, तालिबान सत्ता में आया और लाखों लोग बेसहारा छूट गए। वो अफगानी जो अमेरिका के भरोसे जिए, उनके सपने कुचल दिए गए। अफगान जनता अमेरिका की ‘दोस्ती’ का असली चेहरा देखती रह गई।
शीत युद्ध को दौरान वियतनाम में भी ऐसा ही हुआ। अमेरिका ने वियतनाम को साम्यवाद के खिलाफ लड़ने का भरोसा दिया, लेकिन जब युद्ध में हार दिखी तो अपने सैनिकों को समेटा और वहाँ से भाग खड़ा हुआ और वियतनाम को अपने हाल पर छोड़ दिया। लाखों लोगों की मौत हुई और अमेरिका का वादा खोखला साबित हुआ। अमेरिका को क्या फर्क पड़ा? उसका हित पूरा हो चुका था।
अभी उदाहरण खत्म नहीं हुए हैं। अमेरिका ने 2003 से 2011 में इराक में भी यही किया। अमेरिका ने सद्दाम हुसैन को हटाने के लिए इराक पर हमला किया। और फिर अमेरिका ने सद्दाम हुसैन को हटाया, लोकतंत्र का वादा किया। लेकिन क्या हुआ? देश बर्बाद हो गया, ISIS पैदा हुआ और अमेरिका ने धीरे-धीरे पल्ला झाड़ लिया। सीरिया में कुर्दों के साथ भी यही हुआ। अमेरिका ने कुर्दों को ISIS के खिलाफ लड़ने के लिए इस्तेमाल किया। कुर्दों को ISIS से लड़वाया, लेकिन जब 2019 में तुर्की ने कुर्दों पर हमला किया, तो अमेरिका ने अपने हाथ खड़े कर दिए और उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया। मध्य पूर्व और अफ्रीका में भी अमेरिका के कारनामे भरे पड़े हैं। 2011 में लीबिया में कर्नल गद्दाफी को हटाने में अमेरिका ने मदद की, लेकिन उसके बाद देश को अराजकता में छोड़ दिया। इसके अलावा भी कई अफ्रीकी देशों में अमेरिका ने अस्थिरता बढ़ाई, लेकिन जिम्मेदारी लेने से बचता रहा। इस सब में बार-बार एक ही पैटर्न दिखता है। अमेरिका मदद का वादा करता है, इस्तेमाल करता है और फिर अपने हितों के लिए सब कुछ भूलकर बाय-बाय कर देता है। सच तो ये है कि अमेरिका की दोस्ती सिर्फ तब तक है, जब तक उसका फायदा हो। यूक्रेन की घटना ने भी साबित कर दिया कि अमेरिका पर भरोसा करना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है।
तो दोस्तों अमेरिका की कहानी यही है। वो दोस्ती नहीं, सौदा करता है। यूक्रेन हो, अफगानिस्तान हो या कोई और—जब तक फायदा है, वो साथ है। फायदा खत्म, तो रिश्ता खत्म। ये वो ताकत है, जो अपने हितों के लिए युद्ध शुरू करवाती है और हालात बिगड़ने पर किनारा कर लेती है। यानी अमेरिका केवल अपने स्वार्थ के लिए देशों को समर्थन देता है और जब उसका मकसद पूरा हो जाता है, तो उन्हें उनके हाल पर छोड़ देता है। तो दोस्तों, अगली बार जब अमेरिका किसी देश को ‘मित्र’ कहे, तो इतिहास के इन सबक को याद रखिए। वो सिर्फ अपना फायदा देखता है, न कि दूसरों की मदद।
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