बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, Israel के साथ हालिया सैन्य संघर्ष के बाद Iran ने देश के भीतर एक व्यापक और सख़्त सुरक्षा अभियान चलाया है। दरअसल, 12 दिन तक चले इजराइली हमलों ने ईरान की सैन्य प्रतिष्ठानों और खुफिया ढांचे को गहरे स्तर पर झकझोर दिया। इस आघात के बाद ईरानी नेतृत्व ने देश के अंदर एक अभूतपूर्व सुरक्षा अभियान की शुरुआत की है, जिसका घोषित उद्देश्य “विदेशी हस्तक्षेप” और विशेषकर इजराइली गुप्तचर एजेंसी मोसाद से जुड़े नेटवर्क को बेनकाब करना है। देश में अचानक छापेमारी, गिरफ्तारियों और फांसी की घटनाओं में बढ़ोतरी देखी जा रही है, जिससे एक भय का माहौल बन गया है। सरकार ने इसे राष्ट्रीय सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम बताया है। लेकिन इस मुहिम की आड़ में जो हो रहा है—वह केवल जासूसी विरोधी कार्रवाई है या असहमति की हर आवाज़ को कुचलने की साज़िश?
ईरान सरकार के अनुसार, यह सुरक्षा सख्ती देश की संप्रभुता की रक्षा के लिए आवश्यक है। लेकिन मानवाधिकार संगठनों और स्वतंत्र विश्लेषकों का कहना है कि इसे राजनीतिक असंतोष को दबाने के उपकरण की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। हालात ऐसे हैं कि सैकड़ों लोगों को हिरासत में लिया गया है, अनेक को मृत्युदंड दिया गया है, और नागरिक समाज पर व्यापक निगरानी एवं सेंसरशिप लागू की गई है।
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ईरान सरकार की कार्रवाई आंतरिक सुरक्षा या असहमति का दमन?
ईरानी अधिकारियों ने दावा किया है कि इजराइली जासूसी एजेंसी मोसाद ने ईरान की सुरक्षा और खुफिया संस्थानों में गहरी पैठ बना ली है। उनका मानना है कि हाल ही में मारे गए वरिष्ठ सैन्य अधिकारियों और परमाणु वैज्ञानिकों की जानकारी अंदर से लीक की गई, जिससे इजराइल को अपनी कार्रवाई में सफलता मिली। इसी संदेह के आधार पर देशभर में छापेमारी और गिरफ्तारियां तेज़ हो गई हैं, जिसमें जासूसी के आरोप में अनेक लोगों को गिरफ्तार किया है।
हिरासत में लिए गए कई लोगों पर जासूसी के आरोप लगाए गए हैं और कुछ को सार्वजनिक रूप से फांसी भी दी जा चुकी है। जानकारों का कहना है कि इन कार्रवाइयों के पीछे केवल सुरक्षा नहीं, बल्कि राजनीतिक नियंत्रण भी एक बड़ा कारण है—खासतौर पर ऐसे समय में जब जनता में असंतोष और सरकार के प्रति अविश्वास बढ़ता जा रहा है।
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युद्ध के तुरंत बाद फांसी की सजा में बढ़ोत्तरी
12 दिन तक चले इजराइल-ईरान संघर्ष के तुरंत बाद, जासूसी के आरोप में फांसी की घटनाएं सामने आईं। युद्धविराम के अगले ही दिन तीन लोगों को मृत्युदंड दिया गया। इस दौरान ईरानी मीडिया में इन लोगों के “कबूलनामे” प्रसारित किए गए, जिन्हें मानवाधिकार समूह अक्सर ज़बरन स्वीकारोक्ति मानते हैं।
इसके अलावा, करीब 700 से अधिक संदिग्धों को हिरासत में लिया गया है, जिनका संबंध कथित तौर पर इजराइली जासूसी नेटवर्क से है। हालांकि, इन आंकड़ों की स्वतंत्र पुष्टि नहीं हो सकी है, लेकिन यह संख्या बताती है कि देशभर में किस स्तर पर दमनात्मक कार्रवाई चल रही है।
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विदेशी मीडिया और पत्रकार निशाने पर
ईरान के खुफिया मंत्रालय और इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) ने विदेशों में काम कर रहे फ़ारसी भाषा के पत्रकारों और उनके परिवारों को भी दबाव में लेने की रणनीति अपनाई है। रिपोर्टों के अनुसार, लंदन स्थित ईरान इंटरनेशनल और बीबीसी फ़ारसी जैसे संस्थानों से जुड़े पत्रकारों के परिवारों को गिरफ्तार किया गया या धमकियां दी गईं।
एक मामले में, ईरान इंटरनेशनल के एक टीवी एंकर को उनके पिता द्वारा फोन कर इस्तीफा देने की सलाह दी गई—जो कथित रूप से सुरक्षा एजेंसियों के कहने पर किया गया था। पत्रकारों को “मोहर्रिब” यानी ईश्वर के विरुद्ध युद्ध छेड़ने वाला घोषित किया गया है, जो ईरानी कानून के अंतर्गत मृत्युदंड योग्य अपराध है।
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डिजिटल प्रतिबंध और ऑनलाइन सेंसरशिप
संघर्ष के दौरान और उसके बाद भी इंटरनेट पर गंभीर प्रतिबंध लगाए गए। सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स जैसे इंस्टाग्राम, एक्स (पूर्व में ट्विटर), टेलीग्राम, यूट्यूब और बीबीसी फ़ारसी जैसी न्यूज वेबसाइट्स पहले से ही ईरान में अवरुद्ध हैं। लोग केवल वीपीएन के ज़रिये इन तक पहुंच बना सकते हैं।
ईरान सरकार की नीति रही है कि किसी भी विरोध या असंतोष के समय डिजिटल संचार को सीमित कर दिया जाए, जिससे प्रदर्शनकारियों के बीच संवाद कठिन हो जाए। यह रणनीति 2022 के ‘महिला, ज़िंदगी, आज़ादी’ आंदोलन के समय भी देखी गई थी।
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लेखकों, कलाकारों और कार्यकर्ताओं पर शिकंजा
सरकार की निगरानी से अब केवल पत्रकार नहीं, बल्कि लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता और कलाकार भी प्रभावित हो रहे हैं। कई को बिना किसी आरोप के हिरासत में लिया गया है। कुछ मामलों में, विरोध प्रदर्शनों में मारे गए नागरिकों के परिजनों को भी सरकारी कार्रवाई का सामना करना पड़ा है।
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ईरान में इतिहास की पुनरावृत्ति?
वर्तमान स्थिति को देखकर अनेक विश्लेषक 1980 के दशक की याद दिलाते हैं, जब ईरान-इराक युद्ध के दौरान हज़ारों राजनीतिक कैदियों को फांसी दी गई थी। 1988 में “डेथ कमीशन” के ज़रिए बंदियों की गुप्त सुनवाई कर उन्हें बाद फांसी दी गई थी। इनमें से कई पीड़ितों को बिना नाम-निशान वाली सामूहिक कब्रों में दफनाया गया था।
आज भी आशंका जताई जा रही है कि सरकार एक बार फिर भय और दमन की नीति अपनाकर देश के भीतर असहमति को कुचलना चाहती है। आलोचकों का कहना है कि इजराइल के साथ टकराव ने जो अंतरराष्ट्रीय दबाव और आंतरिक अशांति पैदा की है, उससे निपटने के लिए ईरान यह कठोर रणनीति अपना रहा है—जो सुरक्षा से अधिक सत्ता संरक्षण का प्रयास प्रतीत होता है।
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