लॉर्ड मिंटो (Lord Minto) का मूल्यांकन
कूटनीतिक सफलता के दम पर लॉर्ड वेलेजली ने भारत में जिस विशाल ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी थी, उसका उत्तराधिकारी लॉर्ड मिंटो (Lord Minto) बना। हालाँकि, वेलेजली के बाद कुछ समय तक बार्लो ने कार्यकारी गवर्नर जनरल के रूप में कार्य किया, लेकिन कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के सख्त आदेशों के चलते उसके काल में कोई विशेष घटना नहीं हुई। भारत आने से पहले ही मिंटो एक प्रख्यात राजनीतिज्ञ के रूप में अपनी पहचान बना चुका था। 1807 ई. में भारत आगमन के समय तक उसने लंबा राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन व्यतीत किया था। अपने अनुभवों के आधार पर मिंटो ने युद्ध से बचते हुए भारत में गैर-हस्तक्षेपवादी नीति अपनाई। उसने कूटनीतिक लड़ाइयाँ लड़ीं और उनमें सफलता पाई।
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मिंटो का पूरा नाम गिल्बर्ट इलियट-मरे-काइनमाउंड था। उसका जन्म 23 अप्रैल, 1751 को यूनाइटेड किंगडम के एडिनबर्ग में हुआ था। उसके दादा और परदादा दोनों स्कॉटिश न्यायाधीश थे और ‘लॉर्ड मिंटो’ की शिष्टाचार उपाधि धारण किए हुए थे। अपने साहसिक निर्णयों और देशभक्ति से प्रेरित सेवाओं के कारण गिल्बर्ट को भी यह उपाधि प्राप्त हुई, जिससे उसका नाम लॉर्ड मिंटो हो गया।
अपने पारिवारिक परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मिंटो ने वकालत की पढ़ाई की। उसने अपने भाई ह्यूग के साथ पेरिस में ब्रिटिश दूतावास के तत्कालीन सचिव और प्रसिद्ध दार्शनिक डेविड ह्यूम के मार्गदर्शन में अध्ययन किया। इसके बाद इंग्लैंड लौटकर उसने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय और लिंकन इन, लंदन से कानून की शिक्षा प्राप्त की। 1774 में उसने बार काउंसिल में प्रवेश किया।
1776 में मिंटो ब्रिटिश संसद का सदस्य बना। उसने 1776 से 1784 तक और फिर 1786 से 1790 तक संसद में कार्य किया। अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान उसने एडमंड बर्क द्वारा वॉरेन हेस्टिंग्स और सर एलिजा इम्पे के खिलाफ लाए गए महाभियोग का समर्थन किया। 1787 में नंद कुमार के मुकदमे में एलिजा इम्पे की भूमिका की आलोचना करते हुए संसद में उसके लंबे भाषणों ने उसकी प्रतिष्ठा को बढ़ाया। हालाँकि, उसका प्रस्ताव पारित नहीं हुआ, लेकिन उसकी साख में वृद्धि हुई।
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ब्रिटिश संसद में मिंटो ने फ्रांसीसी क्रांति का खुलकर विरोध किया। विदेशी मामलों पर उसकी पैनी नजर और विश्लेषणात्मक दृष्टिकोण ने उसे कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में स्थापित किया। हाउस ऑफ कॉमन्स में उसने दो बार अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा, लेकिन दोनों बार असफल रहा और अध्यक्ष बनने का उसका सपना अधूरा रह गया।
1793 में मिंटो को फ्रांस के टूलॉन में सिविल कमिश्नर नियुक्त किया गया। इसके बाद उसे प्रिवी काउंसलर और ऑक्सफोर्ड में डी.सी.एल. की उपाधि दी गई। इटली में उसने उत्तरी इतालवी राज्यों को फ्रांस के खिलाफ खड़ा करने का प्रयास किया, जो असफल रहा। 1794 में मिंटो को कोर्सिका का गवर्नर नियुक्त किया गया। अक्टूबर 1796 में उसे कोर्सिका से हटने का आदेश मिला, जिसके बाद वो नेपल्स चला गया। 1798 तक वहाँ रहने के दौरान उसने सेंट विंसेंट की लड़ाई में भाग लिया। उसकी इस साहसिक उपलब्धि के बाद इंग्लैंड लौटने पर उसे “लॉर्ड मिंटो” की उपाधि प्रदान की गई।
1799 में मिंटो को ब्रिटिश दूत के रूप में वियना भेजा गया, जहाँ उसने सम्राट फ्रांसिस के साथ फ्रांस के खिलाफ गठबंधन की संधि में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1806 में उसे नियंत्रण बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। अगले ही वर्ष, कॉर्नवालिस की अचानक मृत्यु के बाद मिंटो को भारत का गवर्नर-जनरल बनाया गया।
भारत आते समय मिंटो 56 वर्ष का था और उनके पास पर्याप्त प्रशासनिक अनुभव था। उसके परिवार के भारत से पुराने संबंध थे। उसका भाई अलेक्जेंडर ईस्ट इंडिया कंपनी का लेखक और वॉरेन हेस्टिंग्स का निजी सचिव था, जबकि दूसरा भाई मद्रास का गवर्नर था। ऐसे में भारत की परिस्थितियाँ उसके लिए नई नहीं थी। मिंटो ने कलकत्ता आते ही वित्तीय व्यवस्था को सुदृढ़ करने पर जोर दिया। वेलेजली के युद्धों के कारण कंपनी को हुए नुकसान की भरपाई के लिए उसने आर्थिक नीतियों को सशक्त बनाया। वेलेजली की युद्धक नीतियों के विपरीत मिंटो अहस्तक्षेप की नीति का समर्थक था। उसके कार्यकाल में भारत किसी बड़े युद्ध में नहीं उलझा।
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उसने अपनी कूटनीति से कई राजनीतिक सफलताएँ हासिल कीं। पंजाब, बुंदेलखंड और हरियाणा में अंग्रेजी प्रभुत्व को मजबूत किया। पिंडारियों की लूटपाट पर रोक लगाई और 1809 में पिंडारी नेता अमीर ख़ाँ को बरार में हस्तक्षेप से रोका। तंजौर में जनता द्वारा किए गए विद्रोह को कुचलते हुए उसने क्षेत्र में आंतरिक शांति स्थापित की। मिंटो ने अफगानिस्तान के शासक से मैत्रीपूर्ण संबंध स्थापित कर रूस और फ्रांस जैसे देशों की महत्वाकांक्षा पर लगाम लगाई। उसने 1808 में सर जॉन माल्कम को फारस, माउंट स्टुअर्ट एल्फिंस्टन को अफगानिस्तान के अमीर शाहशुजा के पास और सिंध के अमीर के लिए एक मिशन भेजा। इन तीनों राज्यों ने फ्रांसीसियों को अपने क्षेत्र से बाहर रखने और युद्ध की स्थिति में फ्रांस के खिलाफ ब्रिटिश सहयोग का आश्वासन दिया।
मिंटो की सबसे बड़ी सफलता पंजाब में रही। उसने महाराजा रणजीत सिंह के साथ 1809 में अमृतसर की संधि की। इस संधि के तहत सतलज नदी को पंजाब और ब्रिटिश भारत के बीच सीमा के रूप में स्वीकार किया गया। इस कूटनीतिक सफलता के बाद उसने समुद्री सीमाओं की रक्षा पर ध्यान केंद्रित किया। 1810 में उसने मॉरिशस और बौर्बन जैसे फ्रांसीसी द्वीपों तथा डचों के कब्जे वाले अंबोमना और मसाले वाले द्वीपों पर अंग्रेजी नियंत्रण स्थापित किया। 1811 में उसने जावा पर भी अधिकार कर लिया। जावा अभियान ने उसके स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव डाला। 1813 में उसे इंग्लैंड वापस बुलाया गया। उसे विस्काउंट मेलगुंड और अर्ल ऑफ मिंटो की उपाधि दी गई। 1814 में स्कॉटलैंड लौटते समय स्टीवनेज में ठंड और दम घुटने से उनकी मृत्यु हो गई।
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इसमें कोई दो राय नहीं कि मिंटो ने हर क्षेत्र में खुद को साबित किया। उसने भारत की वित्तीय स्थिति को सुधारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिना किसी बड़े युद्ध के उसने ब्रिटिश प्रभाव का विस्तार किया। फ्रांस और रूस के सम्मिलित खतरे के समय उसने भारत को सुरक्षित रखा। उसने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई और शिक्षा के क्षेत्र में सुधार किए। उसके कार्यकाल में मोहम्मडन कॉलेजों की स्थापना हुई। मिंटो एक विद्वान, साहित्य प्रेमी, कुशल राजनीतिज्ञ और ऊर्जावान प्रशासक के रूप में इतिहास में अमिट छाप छोड़ गया।
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