इतिहास क्या है? व्यक्ति, समाज, देश-दुनिया की महत्वपूर्ण विशिष्ट और सार्वजनिक क्षेत्र की घटनाओं का क्रमवार विवरण. पर कैसे माना जाये क्या महत्वपूर्ण है क्या नहीं. व्यक्ति के इतिहास लेखन में क्या अक्सर हम क्रमवार घटनाओं का विवरण लिखते हुए उसके व्यक्तित्व के कई पहलुओं को नजर अंदाज नहीं कर देते. जब हम कहते हैं अम्बेडकर ‘दलितों के मसीहा’ थे तो हम उनके उस समाजवादी चेहरे को भूल जाते हैं जो मजदूरों के लिए आवाज उठाता है, उस नारीवाद चिंतन को अनदेखा कर देते हैं जो औरतों के अधिकार के लिए लड़ता है. उस राजनीतिक व्यक्ति को दरकिनार कर देते हैं जो राजनीति में समाज के हर वर्ग के समावेश की वकालत करता है, जो सम्प्रदायवाद के खिलाफ लड़ता है, राष्ट्रवाद पर नए विचार देता है और जो विश्व के सबसे बेहतर संविधान का निर्माण करता है. अम्बेडकर की पहचान बस इतनी भर नहीं है कि वह दलित थे, वह देश के सबसे प्रसिद्ध वकीलों में से एक भी थे, वह शिक्षक भी थे जिसे शिक्षा की ताकत पर इतना भरोसा था कि वह कहते- ‘शिक्षा वह शेरनी का दूध है, जो जितना पिएगा, उतना दहाड़ेगा’. वह तत्कालीन समय में भारत के सबसे पढ़े-लिखे विद्वान् भी थे और एक अर्थशास्त्री भी, जिसने अर्थशास्त्र पर ‘द प्रॉब्लम ऑफ़ रूपी’ जैसी बेहतरीन थेसिस लिखी है. अम्बेडकर की पहचान गांधी के विरोधी भर की भी नहीं है, हम केवल गांधी के चश्मे से अम्बेडकर को देखकर भी उनके साथ न्याय नहीं कर पाएँगे. असल में इनमें से किसी भी एक आयाम में अम्बेडकर को परिभाषित किया ही नहीं जा सकता, अम्बेडकर की सम्पूर्णता उनके समस्त विचारों के लेखे-जोखे से ही प्राप्त की जा सकती है और ऐसा न करना उनके मूल्यों के साथ धोखा होगा.
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अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को मध्य प्रदेश के इन्दौर के पास स्थित महू के छावनी क़स्बे में तत्कालीन समाज में अछूत माने जाने वाले महाड़ जाति में हुआ था. अम्बेडकर का परिवार मराठा रियासत की कोंकण तटीय पट्टी गाँव अम्बावाड़े का था, जो इंदौर आकर बस गये थे, लिहाजा बचपन में उनका नाम भीमराव रामजी अंबावाड़ेकर रखा गया था. अम्बेडकर के पिता रामजी सकपाल ब्रिटिश सेना में थे. अम्बेडकर की माँ भी सैनिक विरासत वाले महाड़ परिवार से सम्बन्धित थी. इस सैनिक विरासत का अम्बेडकर को फायदा मिला क्योंकि सैनिकों के बच्चों के लिए शिक्षा अनिवार्य थी शायद इसलिए भी अम्बेडकर बचपन में पढ़ पाए. अपने 14 भाई-बहनों में सबसे छोटे भीमराव बचपन से ही पढ़ने में काफी तेज थे. उनकी इसी कुशाग्र बुद्धि से प्रभावित होकर सतारा के एक ब्राह्मण शिक्षक ने अपना सरनेम देते हुए 1900 में उनका नाम अंबावाड़ेकर से अम्बेडकर कर दिया.
ब्रिटिश छावनी में जन्म लेने के कारण कुछ समय तक तो अम्बेडकर अस्पृश्यता के दंश से बचे रहे लेकिन जल्द ही उनका सामना समाज के निकृष्ट रूप से होने लगा. ‘भीमराव अम्बेडकर एक जीवनी’ किताब में क्रिस्तोफ जाफ्रलो लिखते हैं कि ‘बचपन में ही अम्बेडकर यह समझ गये थे कि कोई नाई उनके बाल नहीं काटता’. हालाँकि बहुत छोटी उम्र में ही एक ऐसी घटना घटी जिसने अम्बेडकर के जीवन की दिशा ही बदल दी. इस सम्बन्ध में सविता अम्बेडकर अपनी किताब ‘बाबासाहेब माई लाइफ विद डॉ.अम्बेडकर’ में लिखती है कि एक दिन अम्बेडकर अपने भाई-बहन के साथ पिता से मिलने उनके गाँव गये. स्टेशन पर स्टेशन मास्टर उनसे पूछताछ करने लगा. लेकिन जैसे ही उसे उनकी जाति का पता चला,वह पीछे हट गया. जब वे स्टेशन से बाहर निकले तो कोई ताँगे वाला उन्हें ले जाने को तैयार नहीं हुआ. एक ताँगेवाला तैयार तो हुआ मगर उसने शर्त रखी की ताँगा बच्चों को ख़ुद ही हाँकना होगा. कुछ दूर जाने पर ताँगेवाला नाश्ता करने के लिए एक ढाबे के सामने रुक गया, मगर बच्चों को बाहर ही इन्तज़ार करना पड़ा. भरी गर्मी की धूप में भूखे-प्यासे बच्चों को पास में बह रही एक धारा के रेतीले पानी से ही अपनी प्यास बुझानी पड़ी.’
सैनिक स्कूल से निकलकर बाहर भी अम्बेडकर को हमेशा ऐसी समस्याओं का सामना करना पड़ा. न कोई शिक्षक उनकी मदद ही करता, न स्कूल के घड़े से उन्हें पानी पीने दिया जाता. पढाई में अव्वल होने के बावजूद उन्हें सबसे पीछे बैठना होता था. कहते हैं ‘अन्याय क्रांति को जन्म देती है’. यही अन्याय अम्बेडकर की क्रांति का कारण बना. पर कैसे लाई उन्होंने क्रांति, क्या था उनका हथियार?
उनकी क्रांति हिंसा और रक्तपात की नहीं थी, न उनका हथियार ही हिंसक था. दलितों की दशा बदलने के लिए वे शिक्षा को सबसे महत्वपूर्ण मानते थे, यही शिक्षा उनका हथियार था. यही कारण रहा की अम्बेडकर ने खूब पढ़ाई की. अम्बेडकर ने वर्ष 1907 में बम्बई स्थित एल्फ़िन्स्टन हाईस्कूल से मेट्रिकुलेशन पास किया. अम्बेडकर की प्रतिभा को देखते हुए उनके शिक्षक केलुस्कर की दरख्वास्त पर बड़ौदा के महाराजा से अम्बेडकर को आगे पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति मिल गयी, जिससे एल्फ़िन्स्टन कॉलेज में दाख़िला लेकर उन्होंने वहां से 1912 में अंग्रेज़ी और फ़ारसी में बी.ए. की डिग्री ली. हालाँकि वह संस्कृत भी पढ़ना चाहते थे मगर अपनी जाति के कारण वह संस्कृत नहीं पढ़ पाए. अगले साल 1913 में वह बड़ौदा रियासत की सेना में लेफ़्टिनेंट के पद पर भर्ती हो गए. लेकिन कुछ ही दिन बाद उनके पिता की मृत्यु हो गयी. इसके बाद एक बार फिर बड़ौदा के राजा ने उन्हें अमेरिका में पढने के लिए छात्रवृत्ति दी. उन्होंने 1915 में न्यूयॉर्क स्थित कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से एम.ए. की डिग्री ली.
कोलंबिया यूनिवर्सिटी का अम्बेडकर के व्यक्तित्व पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा. वहां वे अपने दो प्रोफेसर जॉन ड्यूवी और आर.ए. सेलिग्मान से खासा प्रभावित हुए. इसके आलावा वे टस्केजी इंस्टिट्यूट के संस्थापक बुकर टी. वॉशिंगटन से भी काफी प्रभावित हुए जो अफ्रीकी अमेरिकियों की मुक्ति के लिए शिक्षा को एक माध्यम के रूप में देखते थे. अम्बेडकर का अम्बेडकरवाद यहीं से दृष्टिगोचर हुआ. दरअसल, यहीं पर अम्बेडकर ने सर्वप्रथम ‘कास्ट्स इन इंडिया ऐण्ड देअर मैकेनिज़्म, जेनेसिस ऐण्ड डेवलपमेंट’ और ‘ब्रिटिश भारत में वित्त’ पर अपनी थीसिस लिखी थी. लेकिन अम्बेडकर केवल इन सबसे खुश होने वाले नहीं थे, वे सामाजिक परिवर्तन का हिस्सा बनना चाहते थे. बचपन में उनके साथ जो अन्याय हुआ, वे उसे जड़ से समाप्त करने के प्रयास में लग गये. इसी क्रम में उन्होंने 1915 में डिप्रेस्ड क्लासेज एसोसिएशन का गठन किया. इससे पहले की वे इस बैनर तले कुछ कर पाते, 1916 में वे स्कूल ऑफ़ इकोनॉमिक्स में पढ़ने के लिए लन्दन रवाना हो गए. हालाँकि जुलाई 1917 में बड़ौदा महाराजा के निर्देश पर उन्हें भारत वापस लौटना पड़ा. यहाँ उन्हें महाराजा के सैन्य सचिव के रूप में नौकरी मिली. लेकिन अपनी जाति के कारण एक बार फिर उन्हें अपमान का सामना करना पड़ा और वे अपने लिए रहने का ठिकाना तक नहीं ढूंढ पाए. भगवान दास अपनी किताब Thus Spoke Ambedkar में अम्बेडकर के शब्दों में इसे यूँ बयाँ करते हैं-
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“पूरे दिन मैं रहने के लिए एक अदद मकान तलाशता रहता था मगर आख़िरकार मुझे कोई मकान नहीं मिला। मैंने अपने दोस्तों से भी बात की मगर सभी ने कोई न कोई बहाना बनाकर मुझे उल्टे पाँव लौटा दिया. मैं पूरी तरह हताश और थक चुका था. अब क्या करूँ, मैं तय नहीं कर पा रहा था. परेशान और व्यथित, मैं एक जगह जाकर बैठ गया. मुझे कोई उम्मीद दिखाई नहीं दे रही थी. अब मेरे पास अपनी नौकरी और ये शहर छोड़ने के अलावा कोई चारा नहीं था. मैंने इस्तीफ़ा दिया और रात की गाड़ी से बम्बई के लिए रवाना हो गया.”
इस घटना ने एक नए अम्बेडकर को जन्म दिया. अपनी शिक्षा के कारण अम्बेडकर की ख्याति पहले ही फैल चुकी थी. ऐसे में उन्हें 1919 के भारत शासन अधिनियम की रूपरेखा तैयार करने वाली 1917 में गठित साउथबोरो कमेटी के सामने बयान देने के लिए बुलाया गया.इस सुनवाई के दौरान ही उन्होंने प्रशासनिक तौर पर सर्वप्रथम अछूतों और अन्य धार्मिकों समुदायों के लिए अलग निर्वाचक मंडल व आरक्षण लागू करने का सुझाव दिया. दरअसल, अम्बेडकर पश्चिमी चिंतकों द्वारा प्रस्तुत जाति व्यवस्था के विचार से असहमत थे क्यूंकि अम्बेडकर मानते थे कि जाति कोई नस्ली परिघटना नहीं है बल्कि एक सामाजिक परिघटना है. ऐसे में वे सामाजिक बदलाव को अहम् मानते थे लेकिन साथ ही शिक्षा, राजनीती और प्रशासन में दलितों का प्रतिनिधित्व भी जरुरी समझते थे. ऐसे में एक ओर वे अंग्रेजों से रियायत की मांग कर रहे थे तो दूसरी ओर सामाजिक परिवर्तन की वकालत. इसी क्रम में अम्बेडकर ने 1920 में कोल्हापुर के महाराजा छत्रपति शाहू महाराज के सहयोग से अस्पृश्यों के लिए मराठी पाक्षिक ‘मूकनायक’ की शुरुआत की. दलितों को लेकर उठाये गए उके इन कदम से धीरे-धीरे वे दलितों के नेता के रूप में प्रसिद्ध होने लगे. हालाँकि उन्होंने अपनी पढ़ाई फिर भी जारी रखी. अक्तूबर 1920 में वह अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए इंग्लैंड लौट गए. 1921 में उन्होंने एक और मराठा प्रभु, कोल्हापुर महाराज की आर्थिक सहायता से अपनी स्नातकोत्तर की डिग्री पूरी की. यहाँ उन्होंने ‘द प्रॉब्लम ऑफ रूपी’ पर अपनी थीसिस जमा की.
“अम्बेडकर की यह उपलब्धियां कितनी महत्वपूर्ण है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि जब अम्बेडकर मात्र चौथी कक्षा में अच्छे अंकों से पास हुए थे तो पूरे गाँव ने समारोह का आयोजन किया था क्योंकि अपने पूरे गाँव में ऐसी उपलब्धि हासिल करने वाले वे एकमात्र महाड़ थे”.
भारत वापस आने के बाद 1923 में अम्बेडकर ने बॉम्बे बार में अपना पंजीकरण कराया और अगले साल से ही उच्च न्यायालय में वकालत की प्रैक्टिस करने लगे. अपने पहले ही केस में उन्होंने अपने मुवक्किल को फँसी की सजा से बचा लिया. इससे उनकी प्रसिद्धि तो फैली लेकिन अस्पृश्य होने के कारण ज्यादा मुवक्किल हासिल नहीं कर पाए. इसी दौर में उन्होंने अपने सामाजिक दायरे का विस्तार किया. 1924 में अम्बेडकर ने अपने प्रथम सामाजिक संगठन ‘बहिष्कृत हितकारिणी सभा’ की स्थापना की. 1927 में नए मराठी पाक्षिक ‘बहिष्कृत भारत’ का प्रकाशन शुरू किया. इसी वर्ष उनका मुंबई प्रांत विधान परिषद् में सदस्य के रूप में मनोनयन किया गया. यह वर्ष इसलिए भी ख़ास रहा क्योंकि इसी वर्ष उनके द्वारा चलाये गए महाड़ सत्याग्रह ने समूचे राष्ट्र का ध्यान अपनी ओर खींचा. दरअसल, 4 अगस्त, 1927 को नगरपालिका ने 1924 में लिए गए अपने उस फ़ैसले को रद्द कर दिया जिसमें अस्पृश्यों को चवदार तालाब के इस्तेमाल की इजाज़त दी गई थी. दरअसल यह कदम सवर्ण जातियों के विरोध के कारण लिया गया था. इसके विरोध में अम्बेडकर ने महाड़ सत्याग्रह का आयोजन किया. इस दौरान हजारों दलितों के साथ अम्बेडकर ने चवदार तालाब से पानी पीया. गांधी के नामक सत्याग्रह की तरह यह भी प्रतिकात्म्क और अहिंसक आन्दोलन था. इस दौरान सवर्णों द्वारा डंडा बरसाने और मार-पीट करने के बावजूद जब किसी दलित ने अपना बचाव तक नहीं किया तो गांधी इससे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने यंग इंडिया में लिखा ‘तथाकथित रूढ़िवादी पार्टी ने बिना कारण के, दलितों पर ‘सरासर पाशविक बल’ का प्रयोग किया. गांधी ने ‘अस्पृश्यता का विरोध करने वाले प्रत्येक हिंदू’ से सार्वजनिक रूप से दलितों की रक्षा करने का भी आग्रह किया.’’ यहीं से शायद गांधी और अम्बेडकर की एक-दुसरे को लेकर अप्रत्यक्ष रूप से पहली सार्वजनिक चर्चा हुई.
19वीं सदी में शुरू हुए सामाजिक-धार्मिक आन्दोलन के कारण अम्बेडकर से पहले से कई सुधारक जाति व्यवस्था पर प्रहार कर रहे थे, लेकिन अम्बेडकर इन सब से अलग थे. जैसा कि गेल ऑमवेट ने कहा है, ‘दूसरे नेता एक ऐसी हिन्दूवादी समेकन मॉडल के हिमायती थे, जिसमें संस्कृतिवादी सुधार और भक्ति परम्परा की धार्मिक जड़ों का आह्वान भी शामिल था. दूसरी तरफ़, अम्बेडकर ने ‘अन्तर्विरोध को व्यक्त करने वाली और ब्राह्मणवादी एवं भक्ति धार्मिक परम्पराओं को ख़ारिज करने वाली विचारधारा के साथ ‘दलित स्वायत्तता’ पर ज़ोर दिया.” ऐसे में टकराव लाजिमी था. इन अंतर्विरोधों के बीच शुरुआत से ही अम्बेडकर को मुश्किलों का सामना करना पड़ा.
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अम्बेडकर तत्कालीन दौर के नेताओं से अलग-थलग इसलिए भी हो गए क्योंकि जहाँ सब राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत थे वहीं अम्बेडकर की लड़ाई सामाजिक सुधार को लेकर थी. अम्बेडकर का कहना था कि ‘समाज की पुनर्रचना के अर्थ में राजनीतिक सुधार को सामाजिक सुधार पर बिना किसी क्षति के प्रत्मिकता नहीं दी जा सकती’. इसी अंतर्विरोध के कारण गांधी से भी उनका टकराव हुआ. गांधी और अम्बेडकर की पहली मुलाकात 14 अगस्त, 1931 को हुई. इस मुलाकात में गांधी ने अम्बेडकर से कहा कि “मैं अछूतों की समस्याओं के बारे में तब से सोच रहा हूँ जब आप पैदा भी नहीं हुए थे. मुझे ताज्जुब है कि इसके बावजूद आप मुझे उनका हितैषी नहीं मानते?” धनंजय कीर डॉ.अम्बेडकर लाइफ एंड मिशन में लिखते हैं कि इस पर अम्बेडकर ने गांधी से कहा कि अगर आप अछूतों के खैरख्वाह होते तो आपने कांग्रेस का सदस्य होने के लिए खादी पहनने के बजाय अस्पृश्यता निवारण को पहली शर्त बनाया होता.” हालाँकि यह टकराहट शुरू से नहीं थी. जैसा कि 1927 में गांधी ने महाड़ सत्याग्रह का समर्थन किया था, तो फिर यह टकराहट क्यों शुरू हुई? यह जानने के लिए जाति को लेकर अम्बेडकर और गांधी के विचार को समझना जरुरी है. जाति पर लेकर अम्बेडकर के विचार को उनकी पुस्तक “जाति का विनाश” से समझा जा सकता है. गांधी जहाँ वेद के चतुर्वर्ण सिद्धांत को सही और इसे श्रम विभाजन का अभिन्न अंग मानते थे वहीं अम्बेडकर मानते थे कि जाति व्यवस्था के उन्मूलन के लिए धार्मिक ग्रन्थ ही जिम्मेदार हैं. जहाँ गांधी मानते थे कि जाति व्यवस्था श्रम को उसके उच्चतम स्तर पर ले जाएगी वहीं अम्बेडकर का मानना था कि श्रम का यह विभाजन स्वत:स्फूर्त नहीं है, न ही इसका आधार प्राकृतिक रुझान है. अम्बेडकर के शब्दों में सामाजिक और व्यक्तिगत दक्षता की मांग यह है कि हम किसी भी व्यक्ति की क्षमता को इस ऊंचाई तक विकसित करें कि वह अपना व्यवसाय चुन सके और उसमें आगे बढ़ सके. जाति व्यवस्था में इस सिद्धांत का उल्लंघन होता है, क्योंकि यह व्यवस्था पहले से निर्धारित कर देती है कि किसी व्यक्ति का व्यवसाय क्या होगा. मूल क्षमताओं के प्रशिक्षण के आधार पर नहीं, बल्कि इस बात पर कि उसके माता-पिता की सामाजिक हैसियत क्या है?’ अम्बेडकर जहाँ शिक्षा, राजनीति प्रतिनिधित्व को जाति व्यवस्था के समापन के लिए अनिवार्य मांगते थे वहीं गांधी हृदय परिवर्तन के द्वारा सामाजिक समावेश की वकालत करते थे. गांधी मंदिर प्रवेश आन्दोलन के समर्थक थे अम्बेडकर ने भी शुरूआती चरणों में ऐसा किया लेकिन वे ऐसा करके सिर्फ सामाजिक समर्थन पाना चाह रहे थे, यही उनका लक्ष्य नहीं था. इन्हीं सब विविधताओं के मद्देनजर अक्सर गांधी-अम्बेडकर विरोध की बातें की जाती है हालाँकि जैसा कि निशिकांत कोलगे कहते हैं कि गांधी-अम्बेडकर को परस्पर विरोधी नहीं, सामानांतर देखना चाहिए. अम्बेडकर के कदम जितने महत्वपूर्ण थे उतने ही गांधी के क्यूंकि जैसा की हम जानते हैं केवल कानून बना देने से कुछ नहीं होता बल्कि उसकी सामाजिक स्वीकृत्ति ज्यादा महत्वपूर्ण है.
अम्बेडकर को अक्सर समाजवाद का विरोधी भी माना जाता है क्यूंकि जहाँ समाजवादी आर्थिक कारण को एकमात्र शक्ति का स्त्रोत मानते हैं वहीं अम्बेडकर मानते हैं कि सामाजिक स्थिति, धर्म और संपत्ति ये तीनों ही शक्ति के स्त्रोत हैं. अम्बेडकर जाति व्यवस्था को भी समाजवाद से जोड़ते हुए कहते हैं जाति व्यवस्था ‘श्रम का विभाजन’ नहीं बल्कि ‘श्रमिकों का विभाजन’ है. उनका मानना था कि समाजवादी क्रांति भारत में तब तक संभव नहीं है जब तक जाति व्यवस्था बरक़रार है क्योंकि यह व्यवस्था उन्हें आपस में संपर्क स्थापित करने ही नहीं देगी. अम्बेडकर कहते हैं कि जब समाजवाद समानता के मूल्य पर आधारित है तो जब तक एक वर्ग द्वारा दूसरे वर्ग के दमन और दुर्व्यवहार का लेश मात्र चिह्न भी बचा हुआ है, तब तक भारत में एक आदर्श समाजवादी समाज की स्थापना संभव नहीं है. अम्बेडकर मानते हैं कि समाजवादी अगर क्रांति से पहले जाति की ओर ध्यान नहीं देंगे, तो क्रांति के बाद उसे ऐसा करना ही होगा. अम्बेडकर को समाजवादी क्रांति का विरोधी इसलिए भी नहीं माना जा सकता क्यूंकि अम्बेडकर ने मजदूरों को संगठित करने पर हमेशा जोर दिया. अम्बेडकर ने 1935 में बॉम्बे म्यूनिसिपल कामगार संघ के नाम से एक ट्रेड यूनियन का गठन किया था. हिल्टन यंग कमीशन जिसके सुझाव पर 1935 में आरबीआई की स्थापना की गयी थी, में भी अम्बेडकर से सलाह ली गयी थी. 21 सितम्बर 1938 को अम्बेडकर ने औद्योगिक विवाद विधेयक के विरोध में भी आवाज़ उठाई. इस विधेयक के माध्यम से यह प्रावधान किया जा रहा था कि अगर मजदूरों और मालिकों के बीच किसी तरह का विवाद होता है तो उनके बीच सुलह की यानी कंसीलिएशन की व्यवस्था का सहारा लिया जाएगा, मजदूरों द्वारा हड़ताल नहीं किया जाएगा. इतना ही नहीं 1942 में जब वे वायसराय की परिषद में श्रम मंत्री बने तब उन्होंने आठ घंटे के कार्य दिवस, समान वेतन और मातृत्व अवकाश की मांगों पर श्रमिक वर्गों के लिए कई लाभ की भी पेशकश की. आजादी के बाद बीबीसी को दिए इंटरव्यू में अम्बेडकर यह तक कहते हैं कि लोकतंत्र का विकल्प कम्युनिस्ट सिस्टम है.
अम्बेडकर को अक्सर अंग्रेजों का एजेंट कहा जाता है उनपर यह आरोप लगता है कि देश की स्वतंत्रता से उनके लिए देश में स्वतंत्रता ज्यादा जरुरी थी. पर ऐसा क्यूँ? जैसा कि फर्डीनांड लसल ने कहा है संवैधानिक प्रश्न, सबसे पहले, औचित्य के प्रश्न नहीं, बल्कि सत्ता के प्रश्न हैं. किसी भी देश के वास्तविक संविधान का अस्तित्व देश में मौजूद सत्ता की वास्तविक अवस्थिति में होता है. इसलिए राजनीतिक संविधानों में मूल्य और स्थिरता तभी आता है, जब वे समाज के भीतर अस्तित्वमान शक्तियों की अवस्थिति को यथार्थ रूप से व्यक्त करते है. ऐसे में अम्बेडकर अंग्रेजी समर्थन के साथ भारत में समानता लाना चाहते थे क्यूंकि कांग्रेस को वे सवर्णों की पार्टी मानते थे. हालाँकि वे अंग्रेजों से भी कम नाराज नहीं थे. जैसा कि क्रिस्टोफ जाफ्रलो लिखते हैं 1942 में अम्बेडकर ने यह ऐलान किया था कि ‘अगर हिन्दू डिप्रेस्ड क्लासेज़ को पर्याप्त आश्वासन देते हैं तो वे उनकी लड़ाई में कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ देंगे. अन्यथा उनके साथ समझौते का कोई मतलब नहीं.” शुरू में भी उन्होंने अंग्रेजों का सहयोग इसलिए दिया था क्यूंकि वे अंग्रेजों के रहते दलितों के लिए अलग प्रतिनिधित्व चाहते थे. अम्बेडकर का मानना था की कम्युनल अवार्ड से देश को कोई नुकसान नहीं होगा क्यूंकि आयरलैंड, रोम जैसे देशों में पहले से ऐसी व्यवस्था कायम है और वहां सब सही है. वे यह भी मानते थे कि राजनीतिक क्रांतियाँ बिना धार्मिक क्रांतियाँ के नहीं आती. ऐसे में कम्युनल अवार्ड उसी क्रांति को जन्म देगा जिससे आगे चलकर राजनीतिक क्रांति आएगी.
अरविन्द घोष ने कहा था राष्ट्र कोई भूमि का टुकड़ा नहीं है, न ही कोई शाब्दिक रचना है, यह मानसिक कल्पना भी नहीं है बल्कि यह इसका गठन करने वाले करोड़ों लोगों की शक्ति है.’ अम्बेडकर भी कुछ ऐसा ही मानते थे. दरअसल, अम्बेडकर के राष्ट्रवाद का ब्रांड भी उनसे बिलकुल अलग था जो ब्रिटिश शासन से भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहे थे. डॉ. अम्बेडकर का राष्ट्रवाद केवल भारतीयों को सत्ता हस्तांतरण तक सीमित नहीं था. उनकी दृष्टि में राष्ट्रवाद एक स्थायी प्रकृति के राष्ट्रीय पुनर्निर्माण का कार्य था अर्थात् यह सामाजिक समानता और सांस्कृतिक एकता के जरिए युगों पुरानी जातिग्रस्त, अन्यायपूर्ण, भेदभाव युक्त सामाजिक व्यवस्था को छोड़कर लोकतांत्रिक गणराज्य का निर्माण था. यही कारण था कि संविधान ड्राफ्टिंग समिति के अध्यक्ष होने के नाते उन्होंने संविधान में स्वतंतत्रता,समानता, लोकतंत्र, संघवाद और गणराज्य जैसे सभी विचारों को समाहित किया.
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अम्बेडकर ने न केवल जातिगत समानता की वकालत की बल्कि आधी आबादी के अधिकारों के प्रति भी वे उतना ही मुखर रहे. जैसा कि साम्भवी चौधरी लिखती है अम्बेडकर ने व्यक्तिगत और व्यावसायिक दोनों क्षेत्रों में महिलाओं की समान भागीदारी की वकालत की. वे कार्यस्थलों में महिलाओं के साथ असमान व्यवहार के खिलाफ आवाज उठाने वाले पहले व्यक्ति थे.उन्होंने मातृत्व लाभ अधिनियम जैसे कानून का मसौदा तैयार किया. महिलाओं के अधिकारों के लिए अम्बेडकर का सबसे महत्वपूर्ण योगदान स्वतंत्रता के बाद तैयार हिंदू कोड बिल था. इसके तहत महिलाओं को क़ानूनी रूप से संपत्ति का अधिकार दिया गया तो वहीं महिलाओं के लिए भरण-पोषण का कानून स्थापित किया गया. इसने महिलाओं को कानूनी रूप से बच्चा गोद लेने की अनुमति दी, विवाह प्रथाओं में क्रन्तिकारी परिवर्तन लाया और महिलाओं को समाज में बराबरी का दर्जा दिलाया. अम्बेडकर कहते भी थे “मैं किसी समुदाय की प्रगति को महिलाओं द्वारा हासिल की गई प्रगति की डिग्री से मापता हूं.”
इन सबसे इतर उनपर अक्सर पाकिस्तान समर्थक होने का भी इल्जाम लगाया जाता है लेकिन असल में उन्होंने कभी पाकिस्तान का समर्थन नहीं किया. अपनी पुस्तक “पाकिस्तान या भारत का विभाजन” में वे लिखते हैं कि मुस्लिम लीग की शिकायत अतिश्योक्ति है. भारत इकलौता ऐसा देश नहीं है जहाँ सांप्रदायिक संघर्ष होते हैं, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका में भी ऐसा होता है लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं की जानबूझकर देश को विभाजित कर दिया जाये. ऐसा करना घोर अपराध है. अम्बेडकर मानते थे की देश की भौगोलिक इकाई ही ऐसी है की पाकिस्तान का बंटवारा संभव ही नहीं है.
निष्कर्ष में इतना कहा जा सकता है कि अम्बेडकर को एक दलित नेता मानना गलत है. अम्बेडकर एक राजनेता, चिंतक, वकील जो भी थे लेकिन उन्हें सबसे अच्छा लगता था लिखना-पढ़ना. इस बारे में ‘इनसाइड एशिया’ के लेखक जॉन गुन्थेर ने लिखा है 1938 में जब मेरी राजगृह में अम्बेडकर से मुलाकात हुई थी तो उनके पास 8000 किताबें थी, उनकी मृत्यु तक ये संख्या 35000 हो चुकी थी. अपनी पुस्तक ‘डॉ अम्बेडकर लाइफ एंड मिशन’ में धनञ्जय कीर लिखते हैं कि अम्बेडकर पूरी रात पढ़ने के बाद भोर में सोने जाते थे, कोर्ट समाप्त होने के बाद वे किताब दुकानों का चक्कर लगाया करते थे और शाम में जब घर लौटते थे तो उनके हाथों में नए किताबों का बंडल हुआ करता था.
शंकरानंद शास्त्री अपनी किताब ‘माई एक्सपीरियंस एंड मेमोरी ऑफ़ बाबा साहेब अम्बेडकर’ में लिखते हैं कि ‘अम्बेडकर को किताबें पढ़ना इतना पसंद था कि वे सुबह तक अपनी किताबों में ही लीन रहते थे. शायद यही कारण रहा कि 6 दिसम्बर, 1956 को उनकी मृत्यु की खबर उनकी पत्नी को भी देर से मालूम हुई. दरअसल, उस दिन देर तक अम्बेडकर के नहीं उठने पर भी उनकी पत्नी यही मानती रही कि शायद वे किताब पढ़ रहे हैं.
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