डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) : चीन के लिए बड़ी चुनौती?

US-China Relations in the Trump 2.0

दुनिया के बदलते राजनीतिक समीकरण हमें यह समझने पर मजबूर कर देते हैं कि कूटनीति में स्थायित्व शायद ही कभी स्थायी होता है। यानी दुनिया की राजनीति में हर दिन, हर क्षण, शक्ति-संतुलन के बदलाव की आहट होती रहती है। इन बदलावों का असर उन देशों पर गहराई से पड़ता है, जो वैश्विक शक्ति-संतुलन में अपनी अहम भूमिका निभाने की कोशिश कर रहे हैं। अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के तौर पर डोनाल्ड ट्रंप (Donald Trump) ने अपना पदभार संभाल लिया है। डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के साथ ही दुनिया की राजनीति में भूचाल सा आ गया है। उनकी “अमेरिका फर्स्ट” नीति ने न केवल पारंपरिक सहयोगियों को झटका दिया, बल्कि उनके सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी चीन के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं। ट्रंप के पिछले कार्यकाल में उनके फैसलों ने कई बार दुनिया को हैरान किया। इस बार भी उन्होंने ऐसा ही किया है। अपनी जिम्मेदारी संभालते ही उन्होंने कई अहम फैसले लिये। चाहे वह पेरिस जलवायु समझौते से बाहर होना हो या WHO को अलविदा कहना। उन्होंने मेक्सिको की खाड़ी का नाम बदलकर ‘अमेरिका की खाड़ी’ करने का भी आदेश दिया है। ट्रंप लगातार विवादित बयानबाजी भी कर रहे हैं। वो कनाडा, मेक्सिको और ग्रीनलैंड को अपने देश में मिलाने की कई बार बात कर चुके हैं। वो कनाडा को अमेरिका का 51वाँ राज्य बनाना चाहते हैं।

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ट्रंप ने ब्रिक्स देशों के समूह को भी धमकी देते हुए कहा कि अगर ये समूह अमेरिका विरोधी नीतियाँ लाता है तो उन्हें भी परिणाम भुगतना पड़ेगा और वे खुश नहीं रह पाएंगे। ट्रंप ने चीन को सीधे चुनौती देने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर उनका दूसरा कार्यकाल चीन के लिए खासा चुनौतीपूर्ण साबित हो सकता है। अमेरिका के राष्ट्रपति तौर पर शपथ ग्रहण के बाद से ट्रंप ने चीन को लेकर कई बड़े ऐलान किये हैं, जिससे साफ हो गया कि वो चीन को बैकफुट पर धकेलने के लिए बड़ी रणनीति बना जा रहे हैं। अगर चीन ने पलटवार किया तो एक तरह से महायुद्ध की शुरुआत हो सकती है।

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दरअसल, डोनाल्ड ट्रंप का अमेरिकी राष्ट्रपति के तौर पर रिकॉर्ड बताता है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में अमेरिका-चीन संबंधों को एक असामान्य मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया था। ट्रंप की ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति का सीधा असर उनके कूटनीतिक निर्णयों पर दिखा। एक ओर, उन्होंने चीन पर कई आर्थिक प्रतिबंध लगाए और उसे एक वैश्विक प्रतिस्पर्धी के रूप में चिह्नित किया। वहीं दूसरी ओर, उनके एकतरफा फैसलों ने पारंपरिक अमेरिकी साझेदारों को भी परेशान किया। उदाहरण के लिए, ट्रंप ने चीनी उत्पादों पर बड़े पैमाने पर टैरिफ लगाए। उन्होंने दावा किया कि चीन अमेरिका का आर्थिक शोषण कर रहा है। इन टैरिफ्स ने अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक तनाव को नई ऊंचाई पर पहुँचा दिया। उनके व्यापार युद्ध ने चीनी अर्थव्यवस्था को झकझोर दिया था। भारी टैरिफ, तकनीकी प्रतिबंध और आर्थिक दबाव… ट्रंप ने हर संभव मोर्चे पर चीन को बैकफुट पर धकेलने की कोशिश की। उन्होंने चीनी टेक कंपनियों जैसे हुआवेई और टिकटॉक पर सख्त कार्रवाई की और अब उनके दूसरे कार्यकाल में इन नीतियों के और आक्रामक होने की संभावना है। जानकारों की मानें तो चीन अपनी तकनीकी क्षमताओं के चलते अमेरिका के लिए सबसे बड़ा प्रतिस्पर्धी बन गया है। ऐसे में ट्रंप चीन के तकनीकी उद्योगों, विशेष रूप से 5जी और एआई टेक्नोलॉजी में उसके प्रभुत्व को चुनौती देने के लिए प्रतिबंधों और कड़े नियमों का सहारा ले सकते हैं। इससे चीन की अर्थव्यवस्था पर बड़ा असर पड़ सकता है।

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इतना ही नहीं, ट्रंप ने पनामा नहर को लेकर चीन को सीधे चेतावनी दी है। उनका दावा है कि यह नहर अमेरिका ने बनाई थी, और चीन ने इसे कब्जे में लेकर भारी टैक्स वसूलना शुरू कर दिया है। ट्रंप इसे चीन के नियंत्रण से मुक्त करने की बात कर चुके हैं, और यह मुद्दा दोनों देशों के बीच नए टकराव का कारण बन सकता है।

दक्षिण चीन सागर में भी ट्रंप का रुख सख्त रहा है। चीन की सैन्य गतिविधियों को चुनौती देने के लिए वहाँ अमेरिकी नौसेना को सक्रिय रूप से तैनात किया गया है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की बढ़ती मौजूदगी चीन के लिए पहले ही सिरदर्द बन चुकी है। ट्रंप के इरादे साफ हैं कि वो चीन को उसके सामरिक अड्डों से हटाने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ेंगे। पनामा नहर को लेकर उनका बयान इस ओर साफ संकेत देता है। चीन को घेरने के लिए ट्रंप क्वाड जैसे संगठनों को भी और ज्यादा मजबूत करने का प्रयास कर सकते हैं। भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के साथ मिलकर चीन के खिलाफ रणनीतिक गठजोड़ को और धार दी जा सकती है।

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वहीं, रूस और चीन की बढ़ती नजदीकियां भी अमेरिकी प्रशासन के लिए चिंता का विषय हैं। ऐसे में ट्रंप इस गठजोड़ को तोड़ने के लिए रूस के साथ अपने संबंध सुधारने की कोशिश कर सकते हैं। इसका सीधा असर चीन पर पड़ सकता है, जो अमेरिका के खिलाफ रूस को अपने पक्ष में देखना चाहता है। ट्रंप के तहत अमेरिका चीन के खिलाफ कूटनीतिक दबाव बनाने की कोशिश करेगा। उदाहरण के लिए, ट्रंप प्रशासन चीन को मानवाधिकार उल्लंघन, उइगर मुस्लिमों के दमन और हॉन्ग कॉन्ग की स्वायत्तता को कुचलने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर और कठघरे में खड़ा कर सकता है।

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इस तरह है साफ है कि डोनाल्ड ट्रंप का दूसरा कार्यकाल वैश्विक राजनीति में कई महत्वपूर्ण मोड़ ला सकता है। उनके कार्यकाल में चीन को कई मोर्चों पर अमेरिका का सामना करना पड़ेगा। आर्थिक प्रतिबंधों और सामरिक दबाव के चलते चीन की ग्रोथ पर असर पड़ सकता है। हालाँकि, चीन के पास भी विकल्प हैं, जैसे कि रूस और अन्य विकासशील देशों के साथ मिलकर अमेरिका के प्रभाव को कमजोर करना। लेकिन, अगर ट्रंप अपने इरादों में सफल रहते हैं, तो चीन को वैश्विक शक्ति-संतुलन में बैकफुट पर जाना पड़ सकता है। चीन के लिए यह एक कड़ी परीक्षा होगी। लेकिन, यह बात भी साफ है कि ट्रंप के इस रवैये का असर केवल चीन पर ही नहीं होगा। इससे वैश्विक राजनीति के समीकरण बदलने की भी पूरी संभावना है। ये टकराव महज दो देशों का नहीं होगा, बल्कि नई विश्व व्यवस्था की दिशा भी तय करेगा। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि चीन इन चुनौतियों से कैसे निपटता है और क्या वह अमेरिका के इस आक्रामक रवैये का तोड़ निकालने में सफल हो पाता है। आपकी इस मामले में क्या राय है कि क्या डोनाल्ड ट्रंप की नीतियां चीन को वैश्विक शक्ति-संतुलन में बैकफुट पर धकेल पाएंगी? या फिर चीन इस चुनौती का कोई तोड़ निकालकर दुनिया को चौंका देगा? क्या ट्रंप का दूसरा कार्यकाल दुनिया को एक और राजनीतिक रोलर-कोस्टर पर ले जाने को तैयार है? हमें कमेंट करके जरूर बताएँ।


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