सहायता प्राप्त मृत्यु (Assisted Dying): ब्रिटेन का नया विधेयक और भारत की स्थिति

UK's Assisted dying Bill

सहायता प्राप्त मृत्यु (Assisted Dying):

सहायता प्राप्त मृत्यु (Assisted dying) अत्यंत संवेदनशील और जटिल मुद्दा है। यह न केवल चिकित्सा और कानून, बल्कि नैतिकता, सामाजिक मूल्यों और व्यक्तिगत अधिकारों से भी गहराई से जुड़ा हुआ है। सामान्य शब्दों में इसे सहायता प्राप्त मृत्यु भी कहा जा सकता है। दरअसल, यू.के. के नए प्रस्तावित विधेयक ने इस बहस को नई दिशा दी है। 29 नवंबर को यू.के. यानी यूनाइटेड किंगडम के हाउस ऑफ कॉमन्स में घातक रूप से बीमार वयस्कों के जीवन अंत के लिए विधेयक के पक्ष में मतदान करवाया गया। ये मतदान “स्वतंत्र रूप से हुआ, मतलब ये कि सांसदों को पार्टी लाइन का पालन करने के बजाय अपने विवेक के अनुसार मतदान करने की अनुमति दी गई थी। आखिरकार बिल को 330 में से 275 का बहुमत मिला, जिसमें 38 सांसदों ने मतदान नहीं किया था। हम आगे इसी बिल के बारे में विस्तार से चर्चा करेंगे। साथ ही इससे ही मिलती जुलती भारत में इच्छा मृत्यु की स्थिति और इसकी मांग व नैतिक पक्ष की भी चर्चा करेंगे।

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यह बिल घातक रूप से बीमार रोगियों को अपना जीवन ख़त्म करने के लिए अनुरोध करने की अनुमति देता है। ये ऐसे रोगी होते हैं जिनकी घातक बीमारियों से ठीक होने की बहुत कम या कोई उम्मीद नहीं बची होती है। हालाँकि, हाउस ऑफ कॉमन्स से ये बिल पास हो गया है, लेकिन अब इसे एक “सार्वजनिक बिल समिति” के पास भेजा जाएगा, जो हाउस ऑफ कॉमन्स में फिर से मतदान करने से पहले किसी भी प्रस्तावित संशोधन पर मतदान करेगी। फिर इसे हाउस ऑफ लॉर्ड्स में भेजा जाएगा, जहां अंतिम मतदान से पहले और बदलाव किए जा सकते हैं। लेकिन, अब सवाल है कि यू.के. में सहायता प्राप्त मृत्यु विधेयक को पेश करने के पीछे क्या कारण था? बिल में क्या प्रक्रिया प्रदान की गई है? यह भारत के कानून से तुलना करने पर कैसा दिखता है?

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तो चलिये सबसे पहले समझ लेते हैं कि यू.के. में वर्तमान स्थिति क्या है?

UK Parliament UK's Assisted dying Bill

दरअसल सहायता प्राप्त मृत्यु एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें एक मरीज डॉक्टर की मदद से अपना जीवन समाप्त कर सकता है। इच्छा-मृत्यु में गंभीर रूप से बीमार मरीज का जीवन लेने के लिए डॉक्टर की ज्यादा अधिक सक्रिय भागीदारी की ज़रूरत होती है। अभी यू.के. का कानून किसी भी तरह की सहायता प्राप्त मृत्यु या इच्छा-मृत्यु की अनुमति नहीं देता, वहाँ “सहायता प्राप्त आत्महत्या” एक ऐसा अपराध है जिसके लिए 14 साल तक की जेल भी हो सकती है। 2013 के बाद से यू.के. में इच्छा मृत्यु की अनुमति देने के लिए तीन बिल पेश किए जा चुके हैं। हाल के वर्षों में, देश में इस मुद्दे पर काफी काम्प्लेक्स और पोलराइज़्ड बहस छिड़ी हुई है।

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इसके समर्थकों का तर्क है कि गंभीर रूप से बीमार मरीजों के लिए अपने जीवन के अंतिम दिनों में उसकी देखभाल अक्सर कष्टदाई  होती है। उनका दावा है कि इच्छा-मृत्यु कानून मरीज को मानवीय तरीके से अपना जीवन समाप्त करने की गरिमा देगा। उनका ये भी दावा है कि ये कानून लोगों को आत्महत्या करके मरने से रोकेगा, या उसके परिवार वालों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर करने से रोकेगा।

UK's Assisted Debate In UK

वहीं आलोचकों का कहना है कि कानून का दुरुपयोग किया जा सकता है, खासकर तब जब विकलांग मरीजों की बात आती है। इस बात पर चिंता जताई गई है कि इच्छामृत्यु कानून  के कारण बुजुर्गों, विकलांगों और गरीब व्यक्तियों को अपनी ही मृत्यु पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया जा सकता है या दबाव बनाकर उनकी अनुमति ली जा सकती है।  विरोधियों का कहना है की इच्छामृत्यु की बजाय जीवन के अंत में देखभाल में सुधार पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए और इसके पक्ष में कोई बिल लाना चाहिए।

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बिल के मुख्य प्रावधान:

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बिल कहता है कि केवल 18 वर्ष से अधिक आयु का एक गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति और ऐसा निर्णय लेने की मानसिक “क्षमता” रखने वाला व्यक्ति ही इच्छामृत्यु का अनुरोध कर सकता है। साथ ही ये भी प्रावधान है कि रोगी को अनुरोध करने से पहले 12 महीने तक इंग्लैंड या वेल्स में पंजीकृत होना चाहिए और निवास करना चाहिए।

बिल में गंभीर रूप से बीमार व्यक्ति को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जिसकी बीमारी या चिकित्सा स्थिति बिगड़ रही है जिसे “उपचार से ठीक नहीं किया जा सकता ”, और जिसके कारण  6 महीने के भीतर उसकी मृत्यु की उम्मीद है”। इसमें विकलांग या “मानसिक विकार” वाले व्यक्तियों को बाहर रखा गया है।

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हालाँकि, इच्छा-मृत्यु का अनुरोध करने वाले व्यक्ति को एक डिक्लेरेशन पर हस्ताक्षर करने होंगे। ऐसा करते वक़्त एक योग्य डॉक्टर वहाँ होना चाहिए जो इस प्रक्रिया में शामिल होने का इच्छुक हो। कोऑर्डिनेट करने वाला डॉक्टर इसका मूल्याङ्कन करेगा की पूरी प्रक्रिया मरीज की मर्जी से हो रही है। यदि चिकित्सक संतुष्ट है कि ये सभी शर्तें पूरी हो गई हैं, तो वह दूसरे “स्वतंत्र चिकित्सक” को इसे रेफर करेगा, जो कम से कम सात-दिन की अवधि के बाद निरीक्षण करेगा।

यदि स्वतंत्र चिकित्सक समन्वय करने वाले चिकित्सक के मूल्यांकन से सहमत होने से इनकार करता है, तो बाद वाला डॉक्टर इस अनुरोध को किसी अन्य स्वतंत्र चिकित्सक को रेफर कर सकता है। हालाँकि ऐसा केवल एक बार ही किया जा सकता है।

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यदि समन्वय करने वाला और स्वतंत्र चिकित्सक दोनों अनुरोध से सहमत होते हैं, तो इसे लंदन के उच्च न्यायालय में भेजा जायेगा, जहाँ न्यायालय यह फैसला करेगा कि अनुरोध को स्वीकार करने के लिए सभी आवश्यकताएँ पूरी की गई हैं या नहीं। कोर्ट रोगी और दोनों डॉक्टर्स की सुनवाई कर सकता है और उनसे सवाल भी कर सकता है। यदि कोर्ट अनुरोध को अस्वीकार कर देता है, तो रोगी अपील न्यायालय के समक्ष निर्णय को चुनौती दे सकता है। यदि उच्च न्यायालय या अपील न्यायालय अनुरोध को स्वीकार करता है, तो “अनुरोध पर विचार करने की दूसरी अवधि” शुरू होगी। 14 दिनों के बाद रोगी को इच्छामृत्यु के लिए अपने अनुरोध की पुष्टि करने के लिए एक “डिक्लेरेशन” पर हस्ताक्षर करने की अनुमति दी जाएगी, जिसे डॉक्टर और एक तीसरे व्यक्ति द्वारा देखा जाएगा।

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समन्वय करने वाला डॉक्टर (या उनके द्वारा नामित कोई चिकित्सक) फिर रोगी को एक “स्वीकृत पदार्थ” प्रदान देगा – ये जो पदार्थ दिया जायेगा इसका विवरण एक अलग कानून में बताया जायेगा। हालाँकि, बिल में कहा गया है कि “स्वीकृत पदार्थ को लेने का फैसला उस व्यक्ति का होगा जिसे ये दिया जा रहा है। समन्वय करने वाले डॉक्टर को इसका फैसला करने का अधिकार नहीं होगा।

भारत में ‘निष्क्रिय इच्छामृत्यु’ (Passive Euthanasia) की स्थिति:

Status of 'passive euthanasia' in India

साल 2018 में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि “सम्मान के साथ मरने का अधिकार” भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत सम्मान के साथ जीने के अधिकार का ही एक हिस्सा है, और “गंभीर रूप से बीमार रोगियों या “स्थायी रूप से निष्क्रिय अवस्था” में रोगियों को निष्क्रिय इच्छामृत्यु” की वैधता को मान्यता दी –  इसमें रोगी को लाइफ सपोर्ट सिस्टम से हटा दिया जाता है। यह रोगी को प्राकृतिक मृत्यु की अनुमति देता है, जबकि सहायता प्राप्त मृत्यु विधेयक रोगियों को यह चुनने में  सक्रिय भूमिका निभाता है कि उन्हें कब मरना है।

सुप्रीम कोर्ट ने निष्क्रिय इच्छामृत्यु को प्रभावी बनाने के लिए दिशा-निर्देश भी दिए, ऐसे मामलों में  पहले परिवार की सहमति लेनी होती है ताकि रोगी से लाइफ सपोर्ट हटाया जा सके।

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दिशा-निर्देशों में यह शर्त भी शामिल थी कि लिविंग विल पर दो गवाहों की मौजूदगी में हस्ताक्षर किए जाने चाहिए, और एक न्यायिक मजिस्ट्रेट द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। यह भी कहा गया है कि गंभीर रूप से बीमार मरीज के मामले को मंजूरी देने से पहले कई तरह की मंजूरी लेनी होगी – इलाज करने वाले चिकित्सक, एक उपयुक्त रूप से योग्य मेडिकल बोर्ड और स्थानीय प्रशासन के प्रतिनिधित्व के साथ एक अन्य बाहरी मेडिकल बोर्ड से भी मंजूरी लेनी होगी।

हालाँकि, 2019 में इंडियन सोसाइटी ऑफ क्रिटिकल केयर मेडिसिन ने दिशा-निर्देशों को संशोधित करने के लिए एक आवेदन दायर किया, जिसमें इन गाइडलाइन्स को बोझिल और अव्यावहारिक बताया गया। हालाँकि अदालत ने 2023 में दिशा-निर्देशों को संशोधित करके प्रत्येक चरण में सख्त समय सीमा शुरू की और न्यायिक मजिस्ट्रेट की भागीदारी को सीमित कर दिया, लेकिन इन दिशा-निर्देशों और देश भर में उनके कार्यान्वयन के बारे में जागरूकता सीमित रही।

निष्कर्ष:

हालाँकि, भारत और यू.के. की स्थिति की तुलना नहीं करनी चाहिए, लेकिन देश में बहुत से ऐसे मरीज हैं जिनके कारण उनके परिवारजनों की आर्थिक और मानसिक स्थिति पर बहुत प्रभाव पड़ता है। भारत में ये कानून आते-आते आएँगे लेकिन इन पर सामाजिक बहस शुरू करना इसका पहला चरण हो सकता है। यह विषय न केवल कानून और चिकित्सा से जुड़ा है, बल्कि मानव गरिमा, करुणा और अधिकारों से भी गहराई से संबंध रखता है। इसे हल करने के लिए संवेदनशीलता और सामूहिक सहमति आवश्यक है। यहाँ आपको समझ लेना चाहिए कि कानून कोर्ट या संसद से पहले समाज में तय कर दिए जाते हैं।


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