AMU के अल्पसंख्यक दर्जे की कसौटी: सुप्रीम कोर्ट का दृष्टिकोण

Aligarh Muslim University minority status

AMU का अल्पसंख्यक दर्जा

सुप्रीम कोर्ट ने अपने हालिया निर्णय में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश दिए हैं। सात न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने 4:3 के बहुमत से लिये निर्णय में शैक्षणिक संस्थान के ‘अल्पसंख्यक चरित्र’ को निर्धारित करने के लिए एक ‘समग्र और यथार्थवादी’ परीक्षण भी निर्धारित किया। लेकिन, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय पर तथ्यात्मक निर्धारण को एक सामान्य पीठ पर छोड़ दिया है। हालाँकि, इस फैसले ने एएमयू के लिए अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा सुरक्षित करने का रास्ता साफ कर दिया है। दरअसल, पीठ ने सुप्रीम कोर्ट के ही वर्ष 1967 के निर्णय को इस हद तक खारिज कर दिया कि किसी क़ानून द्वारा निगमित कोई संस्था अल्पसंख्यक संस्था होने का दावा नहीं कर सकती। सुप्रीम कोर्ट ने 1967 के अपने फ़ैसले में कहा था कि एएमयू जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा हासिल नहीं हो सकता था, क्योंकि इसकी स्थापना कानून के जरिए की गई थी। गौरतलब है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन यह फैसला सुनाया।

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इस लेख में हम सुप्रीम कोर्ट के हालिया निर्णय के महत्त्व, इसके पीछे की कानूनी पृष्ठभूमि और इसके संभावित प्रभावों पर चर्चा करेंगे। लेकिन, सबसे पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जान लेते हैं।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

Historical Background of Aligarh Muslim University(AMU)

दरअसल, सैयद अहमद खान का लक्ष्य मुस्लिम समाज के पिछड़ेपन को दूर करना और उसका आधुनिकीकरण करना था। इसके लिये उन्होंने आधुनिक शिक्षा पर बल दिया। वर्ष 1870 में सर सैयद अहमद खान ने सोचा था कि मुस्लिम समुदाय का पिछड़ापन आधुनिक शिक्षा की उनकी उपेक्षा के कारण है। इसलिए उन्होंने मुसलमानों को साहित्य और विज्ञान में उदार शिक्षा प्रदान करने के विचार की कल्पना की। साथ ही मुस्लिम धर्म और परंपराओं की भी शिक्षा दी जानी थी। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए, उन्होंने मुसलमानों के शैक्षिक उत्थान के लिए तरीके और साधन तैयार करने के लिए एक समिति का गठन किया और मई 1872 में सर सैयद अहमद खान द्वारा परिकल्पित लक्ष्य को साकार करने के लिए सदस्यता एकत्र करने के लिए मुहम्मदन/मुहम्मद एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज फंड कमेटी नामक एक सोसायटी शुरू की गई। इस कमेटी की गतिविधियों के परिणामस्वरूप वर्ष 1875 में सैयद अहमद खान द्वारा मुहम्मद एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज (Muhammadan Anglo-Oriental: MAO) के की स्थापना की गई।

इसे शुरू में एक प्राथमिक विद्यालय के रूप में बनाया गया था, लेकिन बाद में इसे कॉलेज स्तर का संस्थान बनाया गया। वर्ष 1877 में भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड लिटन ने एक कॉलेज की स्थापना के लिए आधारशिला रखी। इसके बाद मुहम्मद एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज, अलीगढ़ की स्थापना की गई। यह कॉलेज, ऑक्सफ़ोर्ड एवं कैम्ब्रिज शिक्षा प्रणाली से प्रेरित था। इसका प्रथम प्रचारक थियोडर बेफ था। इसका उद्देश्य भारतीय मुसलमानों के सांस्कृतिक और शैक्षणिक उत्थान को बढ़ावा देना था। शुरुआत में यह कॉलेज कलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बद्ध था तथा बाद में वर्ष 1885 में इसने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संबद्धता प्राप्त की। वर्ष 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) अधिनियम पारित होने के बाद MAO कॉलेज को AMU का दर्जा मिला। इसकी पहली महिला कुलाधिपति (Chancellor) सुल्तान जहाँ बेगम थीं। वे वर्ष 1920 से आजीवन अर्थात् अपनी मृत्यु तक एएमयू की कुलाधिपति रहीं थीं।

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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की कानूनी पृष्ठभूमि

Legal Background of Aligarh Muslim University

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम, 1920 की प्रस्तावना और धारा 3 और 4 से पता चलता है कि एम.ए.ओ. कॉलेज, मुस्लिम विश्वविद्यालय संघ और मुस्लिम विश्वविद्यालय फाउंडेशन कानूनी रूप से समाप्त हो गए और तीनों निकायों ने स्वेच्छा से अपनी सारी संपत्ति अलीगढ़ विश्वविद्यालय को सौंप दी, ताकि उनकी सभी चल और अचल संपत्ति अलीगढ़ विश्वविद्यालय में निहित हो जाए। अधिनियम की धारा 23 में विश्वविद्यालय के न्यायालय के गठन का प्रावधान किया गया। धारा 23(1) के प्रावधान के अनुसार मुस्लिम के अलावा कोई भी व्यक्ति विश्वविद्यालय के न्यायालय का सदस्य नहीं हो सकता था और धारा 23(2) के अनुसार विश्वविद्यालय का न्यायालय विश्वविद्यालय का सर्वोच्च शासी निकाय होगा। उपधारा (3) के अनुसार विश्वविद्यालय के न्यायालय को क़ानून बनाने की शक्ति दी गई। धारा 13 में भारत के गवर्नर जनरल को विश्वविद्यालय का लॉर्ड रेक्टर होने का प्रावधान किया गया। वहीं धारा 14 में प्रावधान किया गया कि संयुक्त प्रांत का गवर्नर, उसकी कार्यकारी परिषद के सदस्य, मंत्री, एक सदस्य सरकार द्वारा नामित किया जाएगा और एक सदस्य शिक्षा मंत्री द्वारा विश्वविद्यालय के विजिटिंग बोर्ड के रूप में नामित किया जाएगा। ये व्यक्ति आवश्यक रूप से मुस्लिम नहीं थे, लेकिन उनके पास विश्वविद्यालय के प्रशासन पर अधिकार थे, जो विश्वविद्यालय के न्यायालय के अधिकारों से अधिक थे। इसके अलावा, धारा 28(2) और 30(3) में यह निर्धारित किया गया है कि कोई भी क़ानून या अध्यादेश या मौजूदा क़ानून या अध्यादेश में संशोधन या निरसन तब तक वैध नहीं होगा जब तक कि इसे गवर्नर जनरल इन काउंसिल द्वारा अनुमोदित नहीं किया जाता है।

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आगे वर्ष 1951 में, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम, 1951 पारित किया गया। इस संशोधन ने संविधान के लागू होने के कारण 1920 के अधिनियम में कुछ परिवर्तन किए। धारा 13 और 14 में इस प्रकार संशोधन किया गया कि लॉर्ड रेक्टर के स्थान पर विश्वविद्यालय में विजिटर होना था और विजिटिंग बोर्ड की शक्तियाँ विजिटर को प्रदान की गईं। वहीं, धारा 23(1) के प्रावधान को हटा दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप गैर-मुस्लिम भी विश्वविद्यालय न्यायालय के सदस्य हो सकते थे। फिर, वर्ष 1965 के अध्यादेश II द्वारा आगे संशोधन किए गए, जिन्हें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (संशोधन) अधिनियम, 1965 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया। उन संशोधनों के परिणामस्वरूप विश्वविद्यालय न्यायालय अब सर्वोच्च शासी निकाय नहीं रहा। इसकी कई शक्तियाँ छीन ली गईं और कार्यकारी परिषद की शक्तियों को तदनुसार बढ़ा दिया गया। न्यायालय व्यावहारिक रूप से विजिटर द्वारा नामित निकाय बन गया।

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एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मामला (1967)

एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मामला

वर्ष 1967 में एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मामले में 1951 और 1965 के अधिनियमों की संवैधानिक वैधता को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई। याचिकाकर्ताओं ने तर्क करते हुए कहा कि ये संशोधन उनके अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, जो कि अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार देते हैं। याचिकाकर्ताओं का कहना था कि चूँकि AMU की स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा की गई थी, इसलिए उन्हें इसे प्रशासित करने का अधिकार था। संशोधनों ने इसके अलावा भले ही अल्पसंख्यक ने विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की हो, वे इसे एक शैक्षणिक संस्थान के रूप में प्रशासित कर रहे थे और इसलिए उन्हें इसका प्रशासनिक अधिकार था। अनुच्छेद 26(ए) के तहत मुस्लिम अल्पसंख्यक को विश्वविद्यालय को धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए बनाए रखने का अधिकार था, जिसका इन दोनों संशोधनों द्वारा उल्लंघन किया गया है।

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सुप्रीम कोर्ट की पाँच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने तमाम दलील सुनने के बाद एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ मामले में निर्णय दिया कि अलीगढ़ विश्वविद्यालय की स्थापना न तो मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा की गई थी और न ही इसका प्रशासन मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा किया गया था। इसलिए 1920 के अधिनियम में अनुच्छेद 30(1) का उल्लंघन करने वाले किसी संशोधन का कोई प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि यह अनुच्छेद विश्वविद्यालय पर बिल्कुल भी लागू नहीं होता। कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 30(1) में स्थापित और प्रशासित शब्दों को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए। अर्थात् अनुच्छेद 30(1) यह निर्धारित करता है कि किसी धार्मिक समुदाय को अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा। इसका अर्थ यह है कि जहाँ कोई धार्मिक अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्था स्थापित करता है, उसे उसका प्रशासन करने का अधिकार होगा, लेकिन अन्यथा नहीं। अनुच्छेद के उद्देश्य के लिए स्थापित शब्द का अर्थ है अस्तित्व में लाना और शैक्षणिक संस्थाओं में विश्वविद्यालय शामिल हैं।

इस प्रकार पीठ ने कहा कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है, जिसके लिये उसने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम, 1920 का हवाला दिया। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय वर्ष 1920 के अधिनियम द्वारा अस्तित्व में लाया गया था और इसलिए इसे केंद्रीय विधायिका द्वारा स्थापित किया गया माना जाना चाहिए। इसलिए संसद को शिक्षा के हित में 1920 के अधिनियम में संशोधन करने का अधिकार था और 1951 और 1965 के अधिनियमों द्वारा किए गए संशोधन पूरी तरह से वैध थे। चूँकि, अल्पसंख्यकों ने विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की थी, इसलिए वे इसे प्रशासित करने के अधिकार का दावा नहीं कर सकते।

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डॉ. नरेश अग्रवाल बनाम भारत संघ (2005)

Allahabad high court and AMU case
इलाहाबाद उच्च न्यायालय भवन

वर्ष 1981 में सरकार ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय अधिनियम में फिर से संशोधन किया। इस संशोधन ने सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के प्रभाव को समाप्त कर दिया। इसने विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक का दर्जा दे दिया। इसमें कहा गया कि यह संस्थान मुसलमानों के सांस्कृतिक और शैक्षणिक विकास के लिए स्थापित किया गया था। इसका लाभ उठाते हुए वर्ष 2005 में विश्वविद्यालय ने खुद को अल्पसंख्यक संस्थान बताते हुए स्नातकोत्तर चिकित्सा कार्यक्रमों में मुसलमानों के लिए 50% आरक्षण प्रदान किया। इसे डॉ. नरेश अग्रवाल बनाम भारत संघ (2005) में चुनौती दी गई थी। इसमें पाँच संबंधित रिट याचिकाएँ 34 याचिकाकर्ताओं द्वारा दायर की गईं थीं। याचिकाकर्ताओं ने एस. अजीज बाशा मामले में दिये निर्णय के आधार पर तर्क दिया कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। वहीं, संघ (सरकार) और विश्वविद्यालय ने तर्क दिया कि वर्ष 1981 के संशोधन द्वारा एस. अजीज बाशा के निर्णय को निरस्त कर दिया गया था। इसलिए, विश्वविद्यालय मुस्लिम छात्रों के लाभ के लिए प्रावधान कर सकता है।

इसमें न्यायालय ने माना कि संविधान के अनुच्छेद 30 के अर्थ में एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है, इसलिए विश्वविद्यालय किसी विशेष धार्मिक समुदाय से संबंधित छात्रों के संबंध में कोई आरक्षण प्रदान नहीं कर सकता। न्यायालय ने एएमयू की आरक्षण नीति को असंवैधानिक करार दिया और इस नीति के तहत किए गए दाखिलों को रद्द करने का निर्देश दिया। न्यायालय ने विश्वविद्यालय को धर्म के आधार पर आरक्षण के बिना नए सिरे से प्रवेश परीक्षा आयोजित करने का निर्देश दिया। तदनुसार, यह माना गया कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय संशोधन अधिनियम, 1981 के बाद भी अज़ीज़ बाशा में दिया गया निर्णय अभी भी मान्य है।

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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाम मलय शुक्ला मामला (2006)

इसके बाद अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बनाम मलय शुक्ला मामले (2006) के तहत यह मामला एक बार फिर से इलाहाबाद उच्च न्यायालय पहुँचा। इसमें शामिल याचिकाओं में बुनियादी मुद्दा यह था कि क्या अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय एक अल्पसंख्यक संस्थान है नहीं? इस पर सुनवाई करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने कुछ संशोधनों के साथ डॉ. नरेश अग्रवाल बनाम भारत संघ में एकल न्यायाधीश के निर्णय को वैध ठहराया। साथ ही न्यायालय ने कहा कि यह निर्धारित करने के लिए कि कोई शैक्षणिक संस्थान अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं, निम्नलिखित संकेत हैं: (i) इसे किसने स्थापित किया; (ii) प्रशासन के लिए कौन जिम्मेदार है; और (iii) स्थापना का उद्देश्य।

न्यायालय अपने निर्णय में कहा कि वर्ष 1981 का संशोधन अधिनियम अज़ीज़ बाशा में दिए गए निर्णय के आधार को नहीं बदल सकता। एएमयू केवल एक विश्वविद्यालय नहीं है, बल्कि संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची I की प्रविष्टि 63 में विधायी शक्ति का क्षेत्र है। 1981 के संशोधन अधिनियम ने सातवीं अनुसूची की प्रविष्टि में एक शब्द की परिभाषा को संशोधित किया है। संविधान में किसी शब्द की परिभाषा को संविधान संशोधन के अलावा बदला नहीं जा सकता। इसलिए एएमयू (संशोधन) अधिनियम 1981 विधायी क्षमता की कमी से ग्रस्त है। संसद के पास अल्पसंख्यक संस्था बनाने का अधिकार नहीं है। केवल अल्पसंख्यक ही ऐसा कर सकते हैं और न्यायालय यह घोषित कर सकता है कि अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यक संस्था स्थापित करने में सफल हुआ है या नहीं। इस प्रकार इस मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एएमयू (संशोधन) अधिनियम, 1981 के प्रावधान को रद्द कर दिया था। साथ ही अज़ीज़ बाशा में दिये गए सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर भरोसा करते हुए न्यायालय इस फ़ैसले पर पहुँचा था कि एएमयू एक गैर-अल्पसंख्यक संस्थान है।

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अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार फैजान मुस्तफा बनाम नरेश अग्रवाल के मामला

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय को वर्ष 2006 में ही केंद्र सरकार और विश्वविद्यालय ने सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी। इस पर 24 अप्रैल 2006 को जस्टिस के.जी. बालाकृष्णन और डी.के. जैन की खंडपीठ ने एएमयू की आरक्षण नीति पर रोक लगा दी। साथ ही नीति की संवैधानिकता पर निर्णय लेने के लिए इसे बड़ी पीठ को भेज दिया गया। लेकिन, वर्ष 2016 में केंद्र सरकार यह कहते हुए अपनी अपील वापस ले ली कि वह विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे को स्वीकार नहीं करती है। इसके बाद विश्वविद्यालय ने अकेले ही अपना मामला पेश किया। आगे 12 फरवरी 2019 को मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई और न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव और संजीव खन्ना की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने एस. अजीज बाशा मामले में दिए गए निर्णय को पुनर्विचार के लिए सात न्यायाधीशों की पीठ के पास भेज दिया। इसके बाद 12 अक्टूबर 2023 को यह मामला मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.. चंद्रचूड़ के समक्ष सूचीबद्ध किया गया। इन्होंने मामले की सुनवाई के लिए सात न्यायाधीशों की पीठ गठित की, जिसमें मुख्य न्यायाधीश के अलावा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, सूर्यकांत, जे.बी. पारदीवाला, दीपांकर दत्ता, मनोज मिश्रा और एस.सी. शर्मा शामिल थे।

इस पीठ के सामने विचार के लिए प्रमुख रूप से चार मुद्दे थे। पहला यह है कि क्या एक अधिनियम के तहत बना और शासित विश्वविद्यालय अल्पसंख्यक दर्जे का दावा कर सकता है। दूसरा, एस. अज़ीज़ बाशा बनाम भारत संघ के मामले में सुप्रीम कोर्ट का निर्णय कितना उचित है। तीसरा मुद्दा यह था कि अज़ीज़ बाशा मामले में आए निर्णय के बाद एएमयू अधिनियम में 1981 का संशोधन कितना सही है, इसकी जाँच करना। जबकि, चौथा मुद्दा यह था कि क्या एएमयू बनाम मलय शुक्ला मामले (2006) में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा बाशा निर्णय पर भरोसा करना सही था। इस पर एक लंबी सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने 8 नवंबर 2024 को अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के बारे में 1967 के अपने फैसले को पलट दिया है, जो संस्थान को अल्पसंख्यक का दर्जा देने से इनकार करने का आधार बना था। 4:3 के बहुमत वाले फैसले में, मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.. चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली पीठ ने कहा कि कोई संस्था अपना अल्पसंख्यक दर्जा केवल इसलिए नहीं खो सकती क्योंकि इसे कानून द्वारा स्थापित किया गया है। विश्वविद्यालय की स्थापना किसने की और इसके पीछे की मंशा क्या थी, यह महत्त्वपूर्ण है। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे का निर्णय वर्तमान मामले में निर्धारित परीक्षणों के आधार पर किया जाना चाहिए। इस मामले पर निर्णय करने के लिए एक पीठ का गठन होना चाहिए और इसके लिए मुख्य न्यायाधीश के सामने दस्तावेज रखे जाने चाहिए। इस प्रकार इस निर्णय ने अनिवार्य रूप से एएमयू के लिए अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा सुरक्षित करने का रास्ता साफ कर दिया। हालाँकि, एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा प्राप्त होगा या नहीं इसका निर्णय सुप्रीम कोर्ट की एक सामान्य/नियमित पीठ करेगी। यह तय करेगी कि एएमयू वास्तव में अल्पसंख्यक दर्जे के लिए आवश्यक मानदंडों को पूरा करती है या नहीं।

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित अल्पसंख्यक चरित्र के मुख्य तत्व

supreme court of India UPSC
उच्चतम न्यायालय भवन

मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.. चंद्रचूड़ द्वारा स्वयं तथा न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा के लिए लिखे गए बहुमत के निर्णय में अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक चरित्र के ‘मुख्य अनिवार्य तत्व’ सूचीबद्ध किए गए हैं।

  1. अल्पसंख्यक संस्थान की स्थापना का उद्देश्य भाषा और संस्कृति का संरक्षण होना चाहिए, लेकिन यह एकमात्र उद्देश्य नहीं होना चाहिए;
  2. अल्पसंख्यक संस्थान गैर-अल्पसंख्यकों से संबंधित छात्रों को प्रवेश देकर अपना अल्पसंख्यक चरित्र नहीं खोएगा;
  3. अल्पसंख्यक संस्थान में उसके अल्पसंख्यक चरित्र को प्रभावित किए बिना धर्मनिरपेक्ष शिक्षा प्रदान की जा सकती है;
  4. यदि अल्पसंख्यक संस्थान को सरकार से सहायता मिली है, तो किसी भी छात्र को धार्मिक शिक्षा में भाग लेने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है;
  5. यदि संस्थान का पूर्ण रखरखाव राज्य के धन से किया जाता है, तो वह धार्मिक शिक्षा प्रदान नहीं कर सकता है। हालाँकि इन संस्थानों को अभी भी अल्पसंख्यक संस्थान माना जाना चाहिए।

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सुप्रीम कोर्ट द्वारा अल्पसंख्यक दर्जे के लिये निर्धारित परीक्षण

यह निर्धारित करने के लिए कि क्या किसी संस्था का वास्तव में अल्पसंख्यक चरित्र है, न्यायालय ने कहा कि उसे ‘पर्दा भेदना’ (Pierce the veil) होगा और यह देखना होगा कि इसकी स्थापना कैसे हुई। ऐसा करने के लिए, उसने कुछ मानदंड या ‘संकेत’ निर्धारित किए जिनका उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाएगा कि किसी संस्था का अल्पसंख्यक चरित्र है या नहीं।

  1. स्थापना का उद्देश्य
  2. वित्तीय और प्रशासनिक पहलू
  3. प्रशासनिक नियंत्रण
  4. संविधान लागू होने से पहले की स्थिति

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निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट का हालिया यह निर्णय अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे के मामले में महत्त्वपूर्ण साबित हो सकता है। न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि किसी संस्था का अल्पसंख्यक चरित्र निर्धारित करने के लिए कई पहलुओं पर विचार किया जाएगा, जिसमें स्थापना का उद्देश्य, प्रशासनिक ढाँचा और वित्तीय योगदान आदि शामिल हैं। यह निर्णय न केवल AMU बल्कि अन्य शैक्षणिक संस्थानों पर भी प्रभाव डाल सकता है जो अल्पसंख्यक दर्जे का दावा करते हैं। गौरतलब है कि अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा मिलने पर एएमयू मुस्लिम छात्रों को 50% तक आरक्षण दे सकेगा।


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