रिचर्ड वेलेजली (Richard Wellesley): भारत में ब्रिटिश साम्राज्य विस्तार का सूत्रधार

Richard Colley Wellesley UPSC

रिचर्ड वेलेजली का मूल्यांकन

कहते हैं क्लाइव ने बंगाल पर ब्रिटिश नियंत्रण स्थापित किया, परंतु ब्रिटिश शासन को सुदृढ़ करने का काम कॉर्नवालिस ने किया जबकि इसका विस्तार वेलेजली (Wellesley) ने किया। वेलेजली, जिसे नेपोलियन के खतरे को देखते हुए भारत भेजा गया था, उसने न केवल इस खतरे से ब्रिटिश साम्राज्य को बचाया बल्कि इसे स्थायित्व भी प्रदान किया। वेलेजली ऐसा करने में इसलिये संभव हो पाया क्योंकि अपने पूर्ववर्ती गवर्नर के विपरीत उसकी कूटनीतिक योजना ज्यादा सफल रही। कहते भी हैं ‘युद्ध कूटनीतिक असफलता है और इसे आखिरी उपाय के रूप में ही तब प्रयोग करना चाहिए जब बाकी सारी कूटनीतिक वार्ताएं असफल साबित हो जाएं’। वेलेजली ने इसी रणनीति के तहत युद्ध का कम और कूटनीति का अधिक इस्तेमाल किया। वेलेजली की इस रणनीति को ‘सहायक संधि’ के नाम से जाना जाता है। इसके तहत ही वह भारत में ब्रिटिश क्षेत्र का विस्तार करने में सफल रहा। यूँ तो इस रणनीति का जन्मदाता फ़्रांसीसी गवर्नर डुप्ले को माना जाता है, लेकिन इसे मुकाम तक वेलेजली ने पहुँचाया। वेलेजली की जीत इसलिए भी ख़ास है क्योंकि उसने उस समय ब्रिटिश शक्ति को संकट से उबारा, जब वह फ्रांस के साथ चल रहे अपने संघर्षों में जिंदगी मौत से जूझ रहा था। बाद में आयरलैंड के लॉर्ड लेफ्टिनेंट के रूप में भी उसने एक बुरी तरह से विभाजित देश में प्रोटेस्टेंट और रोमन कैथोलिकों के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास किया। कहा जाये तो एक ब्रिटिश प्रशासक के रूप में वेलेजली काफी सफल रहा। हालाँकि, पारिवारिक जीवन में वह उतना ही असफल साबित हुआ। उसकी अपने भाई से कभी नहीं बनी, तो वहीं वह स्थायी परिवार के बंधनों में भी खुद को बाँध नहीं सका। देखा जाए तो उसकी व्यक्तिगत जिंदगी ने उसकी नीतियों को काफी प्रभावित किया और अपने भाई से आगे बढ़ने की होड़ में उसने वैसे कदम उठाये जिसने उसे नाम और मुकाम दोनों ही दिया।

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वेलेजली का पूरा नाम रिचर्ड कौली वेलेजली (Richard Colley Wellesley) था। उसका जन्म 1760 में आयरलैंड में हुआ था। उसकी शिक्षा हैरो स्कूल, ईटन कॉलेज और क्राइस्ट चर्च, ऑक्सफ़ोर्ड में हुई। हालाँकि, डिग्री पूरी करने से पहले ही पिता की मृत्यु के कारण उसने 1781 में चर्च छोड़ दिया था। पिता और दादा के कर्जे और छोटे भाइयों को पढ़ने की जिम्मेदारी उसे ही लेनी थी। ऐसे में पिता कि विरासत संभालते हुए उसने 1780 में आयरिश हाउस ऑफ कॉमन्स में प्रवेश किया। जल्द ही 1781 में वह आयरिश हाउस ऑफ लॉर्ड्स में शामिल हो गया। यहीं पर उसकी मुलाकात अपने स्कूल के दोस्त विलियम ग्रेनविले से हुई। विलियम पिट जूनियर (1783 से 1800 तक ग्रेट ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के तौर पर काम किया) इसी का रिश्तेदार था। इस कारण वेलेजली पिट के करीब आ पाया, जिसका उसे भरपूर फायदा मिला। 1784 में वेलेजली ने ब्रिटिश हाउस ऑफ कॉमन्स में भी एक सीट जीती और 1797 तक वहाँ सेवा की। 1793 में वह ब्रिटिश प्रिवी काउंसिल का सदस्य और भारत नियंत्रण बोर्ड का आयुक्त भी बना। ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पिट के करीबी होने के कारण उसे ऐसे मौके ज्यादा मिले। असल में, ब्रिटेन में वह पिट की विदेश नीति के बचाव में अपने भाषणों के लिए ही सबसे ज्यादा जाना जाता था। प्रधानमंत्री के साथ उसकी करीबियों का और उसकी नीतियों का ही असर रहा की जब ब्रिटेन को नेपोलियन का डर सताया और उपनिवेशों पर खतरा नजर आया, तो उनकी सुरक्षा और स्थायित्व के लिए सबसे पहला नाम वेलेजली का ही आया। अपनी इन उपलब्धियों के दौरान ही 1794 में उसकी शादी गेब्रिले से हो गयी। हालाँकि, यह शादी चल नहीं पाई और उसने वेलेजली के साथ भारत आने का प्रस्ताव भी ठुकरा दिया।

वेलेजली भारत में 1798 ई. में आया। भारत आते ही उसने पूर्व गवर्नर जनरल जॉन शोर की अहस्तक्षेप की नीति को परिवर्तित कर दिया। उसका मानना था की इस नीति का फायदा अंग्रेजों के शत्रुओं को मिला है, इसलिए इसे त्याग कर सक्रिय हस्तक्षेप और साम्राज्य विस्तार की नीति अपनानी चाहिए। इसका नतीजा यह रहा कि भारत में ब्रिटिश प्रशासन का दूसरा सबसे बड़ा विस्तार वेलेजली के समय में ही हुआ। अपनी इस साम्राज्यवादी नीति के क्रियान्वयन में उसे न केवल ब्रिटिश सरकार और कंपनी के डायरेक्टरों का बल्कि ब्रिटेन के उद्योगपतियों का भी भरपूर सहयोग मिला। औद्योगिक क्रांति के परिणामस्वरूप उत्पादित माल की खपत के लिए बड़े बाजार की आवश्यकता थी और उपनिवेश उस खपत के लिए आवश्यक थे। ऐसे में वेलेजली ने न केवल फ्रांस के खतरे से ब्रिटेन को बचाने की जिम्मेदारी अपने सर ली, बल्कि इंग्लैण्ड में औद्योगिक क्रांति को तेज करने का जिम्मा भी उठाया। इसके लिए उसने एक विशिष्ट राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना की, जिससे ब्रिटिश हित भी सुरक्षित रह सकें और ब्रिटिश वस्तुओं का आयात-निर्यात, उपभोग भी बाधित न हो।

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उसकी योजना प्रमुख भारतीय राज्यों के साथ एक सामान राजनीतिक संबंध बनाने की थी। अपने इसी उद्देश्य के तहत उसने सहायक संधि प्रणाली की शुरुआत की। विखंडित भारत में जब सभी शासक एक-दूसरे के विरुद्ध मोर्चा बनाने में लगे थे, उस दौरान उनके इसी डर को अपना हथियार बनाकर वेलेजली ने भारतीय शासकों को अपने अधीन कर लिया। सहायक संधि दो या दो से अधिक राजनीतिक शक्तियों के मध्य प्रतिकूल परिस्थितियों में सुरक्षात्मक दृष्टिकोण से सहायता प्राप्ति के लिए की गयी संधि थी। लेकिन, व्यवहार में यह क्या थी? मुनरो के शब्दों में कहा जाये तो “देशी रियासतों ने अपनी स्वतंत्रता, राष्ट्रीय चरित्र अथवा वह सब, जो देश को प्रतिष्ठित बनाते हैं, उन्हें बेचकर सुरक्षा मोल ले ली”। इससे भारतीय राज्यों की सैन्य क्षमता कमजोर हुई, तो वहीं विदेशी संबंधों पर वे कंपनी पर ही निर्भर हो गये। इससे उनकी आपस में गुट बनाकर कंपनी के विरुद्ध लड़ने की संभावना भी खत्म हो गयी। इससे कंपनी के लिए राजस्व प्राप्ति आसान हुई और दूसरे के राजस्व पर बड़ी सेना रखना संभव हो सका। वेलेजली की यह नीति बहुत सफल रही, इसने एक ही झटके में बड़े-बड़े राज्यों को कंपनी के अधीन कर दिया। सर्वप्रथम, 1798 ई. में हैदराबाद के निजाम ने इस संधि को अपनाया। धीरे-धीरे मैसूर, तंजावुर, अवध, पेशवा, भोंसले, सिंधिया, जोधपुर और भरतपुर जैसे सभी बड़े भारतीय राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता अंग्रेजों के अधीन गिरवी रख दी।

जब वेलेजली भारत आया था तो तत्कालीन समय में उसके सामने सबसे बड़ा खतरा मैसूर का शासक टीपू सुल्तान था। वह फ्रांसीसियों से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध षड्यंत्र में लगा था। तृतीय-आंग्ल मैसूर युद्ध के बाद श्रीरंगपट्टनम की अपमानजनक संधि अपनाने के लिए उसे विवश तो होना पड़ा, लेकिन वह अपनी पराजय मानने वालों में से नहीं था। उसने फ्रांसीसियों की सहायता से नए सैनिक शस्त्रागारों की स्थापना करने का प्रयास किया, तो वहीं उसने नेपोलियन को पत्र लिखकर भारत आने का निमंत्रण भी दिया। टीपू के आश्वासन के बाद नेपोलियन भारत पर हमले के उद्देश्य से मिस्र तक आ पहुँचा था। अफ़ग़ानिस्तान, तुर्की, ईरान, मॉरिशस जैसे देशों में भी अपने दूत भेजकर उसने वैश्विक स्तर पर ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध संयुक्त मोर्चा बनाने का प्रयास किया था। टीपू की इन गतिविधियों से साफ़ था कि उसे अगर दबाया नहीं गया तो भविष्य में वह अंग्रेजों के लिए बड़ा खतरा बन सकता है। उसे दबाने के लिए वेलेजली ने टीपू को सहायक संधि का प्रस्ताव भेजा, जिसे टीपू ने अस्वीकार कर दिया। इससे चतुर्थ-आंग्ल मैसूर युद्ध की भूमिका तैयार हुई।

1799 ई. में वेलेजली ने युद्ध की घोषणा कर दी और हेरिस तथा स्टुअर्ट की सहायता से टीपू को सदसिर और मलावली के युद्ध में हराया। अंत में, श्रीरंगपट्टनम में अपने दुर्ग की रक्षा करते हुए टीपू मारा गया और इस तरह मैसूर पर अंग्रेजों का नियंत्रण स्थापित हुआ। टीपू सुल्तान की मृत्यु के बाद मैसूर में फैले असंतोष को दूर करने के लिए वेलेजली ने मैसूर के एक छोटे से भाग को वहाँ के पुराने शासक आडयार राजवंश को दे दिया। इस तरह असंतोष भी दब गया और मैसूर पर अंग्रेजों का प्रत्यक्ष नियंत्रण भी स्थापित हो गया। इस जीत के बाद वेलेजली ने गर्व भरे शब्दों में कहा- ‘अब पूरब का राज्य हमारे क़दमों में है’।

1799 में उसने तंजौर को भी अपने अधीन करने के लिए वहाँ के शासक सफोजी से संधि की। इन राज्यों पर अधिकार के बाद वेलेजली ने कर्नाटक पर अपनी आँखें गड़ाईं। अंग्रेज-फ़्रांसीसी के मध्य हुए कर्नाटक युद्धों में अंग्रेजी जीत के कारण ही मुहम्मद अली अर्काट का नवाब बना था। इसलिए, अंग्रेजों का अप्रत्यक्ष तौर पर कर्नाटक पर नियंत्रण बना रहा। लेकिन कहा जाता है कि टीपू की मृत्यु के बाद जब 1801ई. में उसके पत्रों की जाँच की गयी तो पता चला कि टीपू के साथ मिलकर मुहम्मद अली के बेटे उमदतुल उमरा ने अंग्रेजों के विरूद्ध योजना बनाई थी। इस बात का हवाला देते हुए, वेलेजली ने उमरा की मृत्यु के बाद उसके पुत्र को मजबूर किया कि वह पेंशन लेकर अपना राज्य उसे सौंप दे। इस तरह मैसूर, मालाबार और कर्नाटक के सभी हड़पे गए क्षेत्रों को मिलाकर वेलेजली ने मद्रास प्रेसिडेंसी का गठन किया, जो आजादी तक कायम रहा। उसने तीनों प्रेसिडेंसियों के मध्य स्थल मार्ग से संबंध भी स्थापित किया।

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अवध जैसा समृद्ध प्रान्त यूँ तो 1765 की इलाहाबाद की संधि से ही अंग्रेजों के नियंत्रण में था, वहीं अवध के नवाब ने ऐसा कोई काम भी नहीं किया था जिससे अंग्रेजों को रुष्ट होने का कोई कारण मिले, लेकिन फिर भी वेलेजली ने अफ़ग़ानिस्तान के शासक जमानशाह और मराठों के संभावित आक्रमण का बहाना बनाकर 1801 में अवध के साथ लखनऊ की संधि कर ली। इसका एक फायदा यह भी हुआ कि उसने ऐसा करके मराठों और अवध को गठजोड़ बनाने से रोक लिया। वहीं, जनरल लेक को कमांडर बनाकर उसने दिल्ली और आगरा पर भी अधिकार कर लिया। इसने मुगलों को ब्रिटिश पर आश्रित बना दिया। अब वेलेजली अपना पूरा ध्यान मराठों पर लगा सकता था।

वेलेजली के नेतृत्व में जब अंग्रेज लगातार अपनी शक्ति का विस्तार कर रहे थे, उसी दौरान मराठे आपसी संघर्षों में उलझे हुए थे। पर कहते हैं न जब आंतरिक अशांति हो तो बाहरी लोग इसका फायदा उठाते हैं। कुछ ऐसा ही मराठा शक्ति के साथ भी हुआ। प्रथम पीढ़ी के योग्य मराठा नेताओं की मृत्यु के बाद द्वितीय पीढ़ी के नेता मराठी संघर्षों को सुलझा न सके और मराठा 5 परिसंघों में विभाजित हो गया। इसमें पूना के पेशवा, बरौदा के गायकवाड, ग्वालियर के सिंधिया, इंदौर के होलकर और नागपुर या बरार के भोंसले थे। इन सबका प्रमुख पेशवा था। आपस में कई मुद्दों पर उलझे रहने के बावजूद मराठे जुड़े रहे, ऐसा नाना फडनवीस के रहते हुए संभव हुआ। लेकिन 1800 ई. में उनकी मृत्यु के साथ ही पेशवा पद को लेकर उनकी प्रतिद्वंदिता खुलकर सामने आ गयी। होलकर, पेशवा और सिंधिया आपस में लड़ने लगे। लेकिन, 1802 ई. में जब होलकर ने पेशवा और सिंधिया की संयुक्त सेना को हरा कर पूना पर अधिकार कर लिया तो बाजीराव द्वितीय अंग्रेजों से सहायता लेने पहुँच गया। इसी मौके का फायदा उठाकर वेलेजली ने 1802 ई. में उसके साथ बसीन/बेसिन की संधि कर ली। यह सहायक संधि ही थी जिसके तहत उसने पेशवा को मराठा परिसंघ के दूसरी शक्तियों से सुरक्षा का आश्वासन दिया था। लेकिन, पेशवा द्वारा अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार करने से मराठा परिसंघ की बाकी शक्तियाँ नाराज हो गयीं और सिंधिया और भोंसले ने युद्ध की घोषणा कर दी। इस तरह 1803 ई. में द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध छिड़ गया। 17 दिसम्बर, 1803 को अंग्रेजों ने भोंसले को पराजित कर उसके साथ देवगाँव की संधि और 30 दिसम्बर, 1803 को सिंधिया के साथ सुर्जी-अर्जनगाँव की संधि की। युद्ध के बीच में ही वेलेजली के साम्राज्य विस्तार के खर्चे से चिंतित होकर बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स ने उसे वापस बुला लिया और उसकी जगह कॉर्नवालिस को भेजा। लेकिन, जल्द ही उसकी मृत्यु हो गयी। मराठों के साथ वेलेजली द्वारा शुरू किये गए युद्ध को 1805 में कार्यवाहक गवर्नर जनरल जॉर्ज बार्लो ने विराम दिया। उसने होलकर से 1805 में राजपुर घाट की संधि कर उनकी शक्ति को भी कमजोर कर दिया।

यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि वेलेजली ने युद्ध का रास्ता तब अख्तियार किया जब उसके अनुसार बाकी सारे रास्ते बंद हो गये। उसने सबसे पहले कूटनीतिक चाल ही चली। उसने पहले सहायक संधि का ही प्रस्ताव रखा, फिर वह चाहें टीपू हो या मराठा हों। लेकिन यह भी सच है की जरूरत पड़ने पर वह युद्ध से पीछे नहीं हटा। युद्ध उसकी रणनीति का हिस्सा था। उसका उद्देश्य फ्रांस से अंग्रेजी उपनिवेश की सुरक्षा और साम्राज्य विस्तार था और वह इन दोनों में कामयाब रहा। कहते हैं उसके समय में ब्रिटिश क्षेत्र का लगभग तीन गुना विस्तार हुआ। बम्बई को छोड़ दिया जाये तो लगभग पूरे सेंट्रल इंडिया और मद्रास प्रेसिडेंसी पर उसने अधिकार कर लिया था।

आंतरिक मामलों के साथ ही उसकी विदेश नीति भी सही साबित हुई। जब वेलेजली को काबुल (अफगानिस्तान) के शासक जमानशाह के आक्रमण का खतरा नजर आया तो उसने उस पर लगाम लगाई और ब्रिटिश राजनीतिक और वाणिज्यिक हितों को प्राथमिकता दी। उसने 1799 ई. में मेहंदी अली खाँ को ईरान के दरबार में भेजा और 1800 ई. में उसने एक दूत कप्तान मेल्कम को बेशकीमती उपहार के साथ तेहरान (फारस) के शासक फतह अली शाह के पास भेजा। इसका उद्देश्य रूसी और फ़्रांसीसी प्रभाव को कम करना था। भारत में फ्रांस को उसकी पूर्व संपत्ति वापस लौटाने का ब्रिटिश सरकार का आदेश मिलने पर उसने उसका पालन करने से इनकार कर दिया। जब 1802 की अमीन्स की संधि का उल्लंघन हुआ और इंग्लैण्ड ने फ्रांस के खिलाफ युद्ध फिर से शुरू किया तो उसकी नीति सही साबित हुई। फ़्रांसीसी खतरे से निपटने के लिए वेलेजली ने बंगाल में रहने वाले अंग्रेजों से युद्धकोष भी एकत्रित किया और लगभग 1,20,000 पाउंड की राशि इंग्लैण्ड भेजी। फ्रांस को रोकने के लिए उसने मॉरिशस में फ्रांस के नाविक अड्डे पर आक्रमण करने की योजना बनाई। हालाँकि, ब्रिटिश जहाजी बेड़े के कमांडर ने लंदन के स्पष्ट आदेश के बिना ऐसा करने से इनकार कर दिया। उसने फ़्रांसीसी सहयोगी डच और केप कॉलोनी पर आक्रमण की भी योजना बनाई, लेकिन उसके इस प्रस्ताव को इंग्लैण्ड में स्वीकार नहीं किया गया और उसे पीछे हटना पड़ा। नेपोलियन के विस्तार को रोकने के लिए 1800 ई. में उसने जनरल वायर्ड के नेतृत्व में भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी को मिस्त्र भी भेजा था। हालाँकि, सैन्य टुकड़ी के वहाँ पहुँचने से पहले ही फ्रांस ने हथियार डाल दिए थे।

भारत में रहते हुए एक ब्रिटिश प्रशासक के रूप में वेलेजली का मूल्यांकन किया जाये तो सिडनी ओवेन का यह कथन बिल्कुल सही नजर आता है कि “ब्रिटिश शक्ति को वेलेजली ने भारत में एक राज्य से भारत का एक साम्राज्य बना दिया”। हालाँकि, उसे सिर्फ इसके लिए याद नहीं किया जा सकता। साम्राज्य विस्तार के अतिरिक्त भी उसने भारत में कई सुधार किये। वेलेजली ने 1800 ई. में कलकत्ता में नागरिक सेवा में भर्ती किए गए युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की, हालाँकि, इंग्लैण्ड के दबाव में बाद में उसे बंद कर दिया गया। वेलेजली भारत में ईसाई धर्म की उन्नति तथा प्रचार के पक्ष में था। फोर्ट विलियम कॉलेज में उसने धार्मिक शिक्षा का विशेष प्रबंध करवाया। उसने बाइबिल का अनुवाद सात भारतीय भाषाओं में भी करवाया जिससे अधिक-से-अधिक लोग बाइबिल की शिक्षाओं से अवगत होकर ईसाई धर्म ग्रहण कर सके। उसने 1806 ई. में भारत भेजे जाने वाले प्रशासकीय अधिकारियों की शिक्षा व प्रशिक्षण के लिए इंग्लैण्ड के हेलेबेरी में एक ईस्ट इंडिया कॉलेज खोला। वेलेजली ने भूमि और न्याय संबंधी सुधार भी किये। वेलेजली ने जिन प्रदेशों को जीता वहाँ भूमि को पहले 1 वर्ष के ठेके पर दिया और बाद में उसका स्थायी प्रबंधन किया। उसके शासन काल में न्याय विभाग में भारतीयों को पहले की अपेक्षा कार्य करने का अधिक अवसर मिला। यह उसके काल में ही संभव हो सका कि बहुत से झगड़ों को अंग्रेज न्यायाधीश द्वारा भारतीयों के पास निर्णय हेतु भेज दिया गया। वेलेजली मुक्त व्यापार का भी समर्थक था। वह व्यापार-संबंधी बहुत से प्रतिबंधों को दूर करना चाहता था, लेकिन कंपनी के संचालकों ने इसकी स्वीकृति नहीं दी, इसलिए वह ऐसा कर नहीं पाया। वेलेजली ही वह व्यक्ति था जिसने रविवार को सरकारी अधिकारियों के लिए साप्ताहिक अवकाश का दिन बनाया। हालाँकि, वह काफी तानाशाह प्रवृत्ति का था और 1799 में उसने ‘प्रेस सेंसरशिप अधिनियम’ लाया। उसका कहना था ऐसा फ्रांस के विरुद्ध किया गया है ताकि वे अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ प्रकाशित नहीं कर पाए। इसके पीछे उसकी मंशा विरोधी तत्वों को दबाने की ही थी।

वेलेजली एक साम्राज्यवादी शासक था। उसकी इस प्रवृत्ति के कारण लगातार होते युद्ध खर्च से चिंतित होकर ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों ने 1805 में उसे वापस बुला लिया। उस पर महाभियोग चलाने की बातें भी हुई। लेकिन ऐसा किया नहीं गया। 1809 में वह फ्रांस के खिलाफ प्रायद्वीपीय युद्ध के लिए स्पेन गया। वहाँ उसने एक मजबूत युद्ध प्रयास का आग्रह किया और ब्रिटिश रोमन कैथोलिकों के लिए राजनीतिक अधिकारों की वकालत की। 1809 में वह प्रधानमंत्री स्पेंसर पर्सेवल के अधीन विदेश सचिव बना। वहाँ उसके कामों के कारण उसके सहयोगी नाराज हो गए। इस वजह से 1812 में उसे इस्तीफा देना पड़ा। इसके कुछ समय बाद ही पर्सेवल की हत्या कर दी गयी। इस दौरान उपजी राजनीतिक अस्थिरता का फायदा उठाते हुए उसने सरकार बनाने का प्रयास किया पर वह असफल रहा। इस घटना के बाद कुछ वर्षों तक वह सार्वजनिक पदों से दूर रहा। बाद में उसने 1821 से 1828 तक आयरलैंड के लॉर्ड लेफ्टिनेंट के पद पर कार्य किया। इसी दौरान 1825 में उसने पेटरसं से शादी की। आयरलैंड के लॉर्ड लेफ्टिनेंट के रूप में, वेलेस्ली ने कैथोलिक विरोधी जॉर्ज चतुर्थ को निराश किया और जब उसका भाई वेलिंग्टन प्रधानमंत्री बना तो वेलेस्ली ने इस्तीफा दे दिया। इसका कारण था कि वेलेजली जहाँ रोमन कैथोलिक मुक्ति का समर्थक था, वहीं वेलिंग्टन उनका विरोधी था।

आयरलैंड के लॉर्ड लेफ्टिनेंट के रूप में वेलेजली का दूसरा कार्यकाल 1833-34 तक रहा। जब अप्रैल 1835 में मेलबर्न प्रधानमंत्री बने तो वेलेजली को आयरलैंड वापस नहीं भेजा गया। इस बात से क्रोधित होकर वेलेजली ने गुस्से में मेलबर्न को गोली मारने की धमकी तक दे दी थी। असल में, अपने भाई से बराबरी करने के लिए वह हिंदुस्तान का ड्यूक बनना चाहता था। अपने पूरे जीवन काल में वेलेजली ने कई ऐसे कारनामे किये जिससे इंग्लैण्ड में उसकी ख्याति बढ़ी। हालाँकि, वह हमेशा अपने भाई से ईर्ष्या करता रहा। उनके बीच तकरार हमेशा रही। लेकिन, फिर भी प्रायद्वीपीय युद्ध में उसने निष्ठापूर्वक अपने भाई का समर्थन किया था। वेलिंग्टन ने कई मौकों पर कहा भी कि उसके लिए सबसे बड़ा सम्मान है वेलेजली का भाई होना।

देखा जाये तो वेलेजली अपने कार्यों के लिए जितनी चर्चा में रहा उतनी ही सुर्खियाँ उसने निजी जीवन में भी बटोरी। चाहे वेलिंग्टन के साथ उसके संबंधों की बात हो या उसकी अपनी वैवाहिक संबंधों की। वह आदर्शवादी नहीं था, न ही निजी जिन्दगी में और न ही राजनीतिक मोर्चे पर। लेकिन, वह अपने सिद्धांतों पर हमेशा दृढ़ रहा। घरेलू राजनीति में भी वह आजीवन उदारवादी सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान रहा। भारत में उसने बंगाल के शेर की उपाधि ली तो इंग्लैण्ड में उसे ‘सुल्तानी अंग्रेज’ कहा जाता था। डलहौजी ने वेलेजली के लिए कहा था “जब तक मजबूर न किया जाए, अंतिम सीमा तक वह अकर्मण्य है”। वेलेजली की सबसे बड़ी उपलब्धि भारत की जीत को हेनरी रोबरक्ला के कथन से समझा जा सकता है। उसने 1805 में लिखा था “भारत में मौजूद हर अंग्रेज गर्व से भरा और अकड़ा हुआ है। वह अपने को विजित जनता का विजेता मानता है और अपने नीचे के हर व्यक्ति को कुछ श्रेष्ठता की भावना से देखता है”। 1835 ई. में वेलेजली ने सार्वजनिक जीवन से पूर्णतः सन्यास ले लिया और इसके 7 वर्षों बाद 1842 में उसकी मृत्यु हो गयी।


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