वारेन हेस्टिंग्स का इतिहास (History Of Warren Hastings)
1757 की प्लासी की लड़ाई से क्लाइव ने भारत में जिस ब्रिटिश साम्राज्य की नींव रखी थी, उसे वारेन हेस्टिंग्स (Warren Hastings) ने स्थायित्व दिया। हेस्टिंग्स ने ऐसे समय भारत के प्रशासन की जिम्मेदारी संभाली जब पूरे बंगाल में अराजकता अपने चरम पर थी। एक ओर अकाल से जनता त्राहिमाम कर रही थी तो दूसरी ओर कंपनी को राजस्व का भारी नुकसान हो रहा था जबकि उसके कर्मचारी मालामाल हो रहे थे। वहीं मराठा शक्ति एक बार फिर अपना सर उठा रही थी, जो ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए खतरनाक था। ऐसे कठिन समय में हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर जनरल नियुक्त किया गया था। हालाँकि क्लाइव की भांति वह भी सर्वप्रथम 1750 में एक जूनियर लिपिकार बनकर ही भारत आया था। 22 वर्षों के लंबे अन्तराल के बाद ही हेस्टिंग्स 1772 में गवर्नर जनरल बन सका। हेस्टिंग्स ने ही सर्वप्रथम भारत में यूरोपीय पद्धति से प्रशासन की नींव रखी। इसी कारण हेस्टिंग्स को भारत में एक प्रशासक के रूप में भले याद किया जाए लेकिन वह एक बेहतरीन कवि और प्रेमी भी था, जिसने कई बेहतरीन कविताओं की रचना की है। साहित्य में हेस्टिंग्स की रुचि को इस बात से समझा जा सकता है कि तत्कालीन समय के प्रसिद्ध लेखकों में से एक सैमुअल जॉनसन हेस्टिंग्स का परिचित था। हेस्टिंग्स की भारतीय साहित्य और दर्शन में भी रुचि थी तथा वह इनके अध्ययन पर विशेष जोर देता था। इतना ही नहीं उसने भारत के कई प्राचीन ग्रंथों के अंग्रेजी अनुवाद को भी प्रोत्साहन दिया।
हेस्टिंग्स का बचपन कठिनाई भरा रहा था शायद इसी कठिनाई ने उसे साहित्य की ओर आकृष्ट किया था। हेस्टिंग्स का जन्म 6 दिसंबर, 1732 को इंग्लैंड के ऑक्सफोर्डशायर जिले में हुआ था। जन्म के कुछ समय बाद ही उसकी मां की मृत्यु हो ग ई. वहीं पिता जो एक पादरी थे ने हेस्टिंग्स को त्याग दिया और स्वयं बारबाडोस में रहने लगे। माँ-पिता की अनुपस्थिति में हेस्टिंग्स के दादा ने उसका पालन-पोषण किया। इन हालातों में उसने अपने गाँव के सबसे गरीब बच्चों के साथ एक चैरिटी स्कूल में शिक्षा प्राप्त की। इतनी मुश्किलों में पला-बढ़ा बच्चा भविष्य में एक देश का भाग्य लिखेगा, ऐसा किसने ही सोचा होगा। हालाँकि हेस्टिंग्स को इस गरीबी से उसके चाचा ने जल्द ही बाहर निकाल लिया। चाचा ने उसे लंदन के वेस्टमिंस्टर स्कूल में शिक्षा दी। स्कूली जीवन में हेस्टिंग्स एक बेहतरीन छात्र साबित हुआ। वेस्टमिंस्टर में ही उसने साहित्यिक और विद्वतापूर्ण रुचि हासिल की, जिससे बाद में वह भारतीय संस्कृति और सभ्यता की तरफ आकृष्ट हुआ। 1749 में चाचा की मृत्यु के कारण उसे अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी। इसके बाद 1750 में मात्र 17 वर्ष की उम्र में वह ईस्ट इंडिया कंपनी में जूनियर के तौर पर नियुक्त हुआ। यहीं से उसका भारत से सम्बन्ध जुड़ा क्योंकि इसी वर्ष कंपनी द्वारा उसे बंगाल भेज दिया गया।
बंगाल में उसने मेहनत से अपना मुकाम बनाना शुरू किया। अपना खाली समय वह भारत को जानने और ऊर्दू-फ़ारसी सीखने में लगाता था। अपने काम से जल्द ही 1752 में उसे पदोन्नति मिल गयी और उसे बंगाल के एक प्रमुख व्यापारिक केंद्र कासिम बाजार भेज दिया गया। यहाँ उसने विलियम वाट्स के लिए काम किया। वहाँ रहते हुए ही उसने भारत की राजनीति का अनुभव प्राप्त किया। तत्कालीन समय में ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों की सबसे बड़ी समस्या थी कि भारत से माल खरीदने के लिए उन्हें ब्रिटेन से सोने-चांदी का आयात करना पड़ता था। वहीं व्यापार करने के लिए उन्हें स्थानीय सरकारों से अनुमति भी लेनी पड़ती थी। लेकिन उस अनुमति का वे अक्सर दुरुपयोग करते थे। जो दस्तक के अधिकार उन्हें कंपनी के व्यापार के लिए मिलते थे उसे वे निजी व्यापार में इस्तेमाल करते थे। इससे स्थानीय शासकों को राजस्व की हानि होती थी जो अक्सर कंपनी और स्थानीय शासकों के बीच टकराव का मुख्य कारण था। इस टकराव से एक ओर कर्मचारी शासकों से मुक्त होने का प्रयास कर रहे थे तो दूसरी ओर स्थानीय शासक आपसी पारिवारिक लड़ाईयों में ही उलझे रहते थे। तत्कालीन बंगाल में यही माहौल था। ऐसे में जब 1756 में अलीवर्दी खान की मृत्यु के बाद सिराजुद्दोला बंगाल का नवाब बना तो उसने कंपनी को सबक सिखाने के लिए कासिमबाजार की उनकी चौकी पर हमला कर उसे अपने अधिकार में ले लिया। उसी दौरान हेस्टिंग्स को भी अन्य लोगों के साथ बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद में कैद कर लिया गया था। हालाँकि वह वहां से फुल्टा द्वीप भागने में कामयाब रहा। यहीं पर उसकी मुलाकात मैरी बुकानन से हुई, जिससे हेस्टिंग्स ने जल्द ही शादी कर ली।
1757 में जब रॉबर्ट क्लाइव ने बंगाल के नवाब के आपसी मतभेदों का फायदा उठाते हुए प्लासी का युद्ध लड़ा तो हेस्टिंग भी उसमें शामिल था। उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर क्लाइव ने हेस्टिंग्स को मुर्शिदाबाद भेज दिया। यहाँ उसने 1758 से 1761 तक नवाब के दरबार में कंपनी के प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया। इसके बाद उसने 1761 से 1764 तक बंगाल में कंपनी के मामलों को नियंत्रित करने वाली कंपनी काउंसिल में काम किया। हालांकि, काउंसिल में विवाद हो जाने के कारण हेस्टिंग्स ने कंपनी की सेवा से इस्तीफा दे दिया। दरअसल हेस्टिंग्स, क्लाइव द्वारा लागू दोहरी शासन व्यवस्था के विरोध में था। बक्सर युद्ध के बाद व्यावहारिक रूप से बंगाल अंग्रेजों के अधीन था लेकिन सरकार का कामकाज अभी भी भारतीय अधिकारियों द्वारा संचालित किया जाता था, जिसमें यूरोपीय भागीदारी बहुत सीमित थी। हेस्टिंग्स का कहना था कि यह स्थिति जारी नहीं रह सकती और अंग्रेजों को प्रशासन की पूरी ज़िम्मेदारी स्वीकारनी होगी, लेकिन ऐसा करने में कंपनी अनिच्छुक थी। इन मतभेदों के परिणामस्वरूप हेस्टिंग्स ने काउंसिल से इस्तीफा दे दिया और 1765 में इंग्लैंड लौट आया।
यहाँ उसने बहुत ही विलासितापूर्ण जिन्दगी गुजारी, जिससे जल्द ही वह कर्ज में घिर गया। इस स्थिति से बाहर निकलने के लिए एक बार फिर उसने अपने भाग्य को ईस्ट इंडिया कंपनी और भारत से जोड़ दिया। इस बार वह 1769 में मद्रास में कंपनी परिषद के अधिकारी के रूप में भारत लौटा। मद्रास में हेस्टिंग्स ने व्यापारिक प्रथाओं में सुधार की शुरुआत की, उसने व्यापार से बिचौलियों को हटाया। इससे कंपनी और भारतीयों दोनों को लाभ हुआ। जल्द ही मात्र 3 वर्ष बाद 1772 में हेस्टिंग्स को बंगाल का गवर्नर बना दिया गया। यहीं से हेस्टिंग्स द्वारा भारत के भविष्य लेखन की शुरुआत हुई। जिस दौरान हेस्टिंग्स बंगाल का नवाब बना उस दौरान बंगाल में आये विनाशकारी अकाल ने बंगाल की लगभग एक तिहाई आबादी को लील लिया था। इसमें अनुमानतः 10 मिलियन लोग भुखमरी और अकाल-जनित महामारी से मारे गए थे। इस भीषण अकाल के लिए हेस्टिंग्स ने स्थानीय शासकों के लापरवाह रवैये को जिम्मेदार माना। उसने दोहरी शासन व्यवस्था बंद कर दी और बंगाल पर कम्पनी का सीधा नियंत्रण स्थापित किया। भविष्य में ऐसे अकाल दोबारा न हो इसके लिए हेस्टिंग्स ने सार्वजनिक अनाज घर का निर्माण करवाया। उसने गोलघर, पटना में एक बड़ा भंडार घर बनवाया। अकाल की भयावहता ने बंगाल में लुट-डकैती को बहुत बढ़ा दिया था, जिससे कम्पनी को व्यापार में दिक्कतें हो रही थी। ऐसे में उसने कठोर तरीके से इसका भी दमन किया। इस भीषण अकाल में भी कंपनी के राजव में नुकसान न हो इसके लिए उसने कई प्रयास किये। 1772 में उसने पांच वर्षीय भू-राजस्व व्यवस्था लागू की। इसके तहत ज्यादा बोली लगाने वाले को 5 वर्ष के लिए राजस्व वसूली का ठेका दे दिया गया। इसी वर्ष उसने कलकत्ता में राजस्व बोर्ड का गठन किया तथा राजस्व कोष मुर्शिदाबाद से कलकत्ता ट्रांसफर कर दिया। उसने बंगाल की राजधानी को भी मुर्शिदाबाद से कलकत्ता स्थानांतरित किया। राजस्व वसूली के लिए उसने हर जिले में कलेक्टर और अकाउंटेंट जनरल की नियुक्ति की। उसने कंपनी के कर्मचारियों के पुरस्कार और गिफ्ट लेने पर रोक लगाकर भ्रष्टाचार रोकने की भी कोशिश की। उसने चुंगी व्यवस्था में संशोधन कर दस्तक प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया। वहीं उस दौरान बड़ी संख्या में कस्टम हाउस या चौकी व्यापार के विकास में बाधा डाल रहे थे इसलिए हेस्टिंग्स ने उन्हें भी कम किया। उसने समस्त जिलों को कलकत्ता, मिदनापुर, बर्दवान, मुर्शिदाबाद, पटना और ढाका में विभक्त कर दिया।
इसके साथ ही नमक, सुपारी और तम्बाकू को छोड़कर सभी वस्तुओं पर उसने ड्यूटी में 2.5% की कमी कर दी। इन सभी सुधारों का परिणाम यह हुआ कि व्यापार में सुधार हुआ, जिससे कर राजस्व में वृद्धि हु ई. इस सम्बन्ध में इतिहासकार डेलरिम्पल लिखते हैं कि ‘हेस्टिंग्स ने कर संग्रह को हिंसक तरीके से अपने पूर्व मानकों तक बनाए रखा’।
1773 के रेग्यूलेटिंग एक्ट से वारेन हेस्टिंग्स को बंगाल के गवर्नर से बंगाल का प्रथम गवर्नर जनरल बनाया गया। वह इस पद पर 1773 से 1785 तक बना रहा। इस दौरान उसने कई बदलाव किये। उस दौरान मराठा खतरे का स्रोत बन चुके थे और मुग़ल बादशाह शाह आलम ने अंग्रेजों का संरक्षण छोड़ मराठों के अधीन रहना स्वीकार कर लिया था। ऐसे में वारेन हेस्टिंग्स ने इलाहबाद संधि के तहत मुग़ल शासक को दिए जाने वाले वार्षिक 26 लाख रुपये का भुगतान रोक दिया। उसने मुग़ल सम्राट से कोरा और इलाहाबाद के जिलों को भी अपने कब्जे में ले लिया और उसे 50 लाख में अवध के नवाब को बेच दिया। अवध के नवाब ने अपने स्वाभाविक खतरे रोहिल्लाओं से बचने के लिए हेस्टिंग्स का सहारा लिया। हेस्टिंग्स ने 1773 ई. में बनारस की संधि के तहत अवध के नवाब शुजाऊद्दोला को 1774 ई. में रूहेलखंड पर अधिकार दे दिया। 1775 ई. के फैजाबाद की संधि के द्वारा उसने अवध के बेगमों की संपत्ति की सुरक्षा की गारंटी दी। इसी संधि के द्वारा बनारस पर अंग्रेजी सर्वोच्चता स्वीकार की गयी। हेस्टिंग्स ने बंगाल के नवाब का पेंशन भी 32 लाख से घटाकर 16 लाख कर दिया और मीरजाफर की विधवा मुन्नी बेगम के अल्प व्यस्क नवाब मुबरिकुद्दोला को संरक्षण दिया। हालाँकि मुर्शिदाबाद के भूतपूर्व दीवान नन्द कुमार ने हेस्टिंग पर आरोप लगाया कि इसके बदले उसने 3.5 लाख रुपये घूस लिए हैं। यह मामला 1773 ई. के रेग्यूलेटिंग एक्ट के तहत कलकत्ता में गठित सुप्रीम कोर्ट में चला। उसके मुख्य न्यायाधीश इम्पे हेस्टिंग्स का करीबी सहयोगी थे। ऐसे में हेस्टिंग्स ने नन्द कुमार पर ही झूठे सबूत देने का आरोप लगाकर जालसाजी का मुकदमा चला दिया और इम्पे द्वारा उसे फांसी दे दी गयी। यहाँ तक की उसके अपील की दरख्वास्त को भी ख़ारिज कर दिया गया। इस तरह 70 वर्षीय नंदकुमार की हेस्टिंग्स द्वारा ‘न्यायिक हत्या’ करवा दी गयी। देखा जाये तो हेस्टिंग्स के पूरे कार्यकाल का सबसे बड़ा कलंक यही रहा। 1773 के एक्ट द्वारा कंपनी के मद्रास और मुंबई प्रेसीडेंसी को व्यवहारिक रूप से बंगाल प्रेसीडेंसी के अधीन कर दिया गया था लेकिन असल में वहां के गवर्नर स्वतंत्र रूप से ही शासन करते रहे। ऐसे में एक ओर 1775 में बम्बई प्रेसीडेंसी ने प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध छेड़ दिया तो वहीं मद्रास प्रेसीडेंसी ने 1780 में द्वितीय-आंग्ल मैसूर युद्ध की पटकथा लिख दी। हेस्टिंग्स ने इस दौरान बहुत ही चालाकी पूर्ण काम किया। उसने पहले 1782 में मराठों के साथ सालबाई की संधि कर प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध रोका तो वहीं इसके तहत मैसूर के नवाब हैदर अली को भी मराठों से अलग कर दिया। फिर आयरकूट के नेतृत्व में सेना भेजकर हैदर अली को पराजित किया और बाद में 1783 में टीपू सुल्तान से मंगलौर की संधि कर ली। इससे 1780 से 1784 तक चलने वाला द्वितीय-आंग्ल मैसूर युद्ध समाप्त हो गया। इसके साथ कम्पनी के अधिकार क्षेत्र में वृद्धि हु ई.
अपने लम्बे शासन काल में हेस्टिंग्स ने कई न्यायिक सुधार भी किये। उसने जमींदारों की न्यायिक शक्तियाँ समाप्त कर दी। उसने दीवानी एवं फौजदारी अदालतें स्थापित की तथा कलकत्ता में दो अपीलीय अदालतें बना ई. दीवानी मामलों के लिए सदर दीवानी अदालत और आपराधिक मामलों के लिए सदर निजामत अदालत। फौजदारी अदालत में एक भारतीय न्यायाधीश की नियुक्ति का भी प्रावधान किया। इन अदालतों में मुसलमानों पर शरियत कानून और और हिंदुओं पर हिंदू कानूनों के अनुसार मुकदमा चलाया जाता था। उसने हिंदू पंडितों द्वारा तैयार हिंदू कानून की एक संहिता का अंग्रेजी में अनुवाद भी करवाया। उसने 1776 में मनुस्मृति का ए कोड ऑफ़ जेंटू लॉज़ नाम से अनुवाद कराया। उसने कोलब्रुक डाइजेस्ट को भी संहिताबध किया। इन सबसे इतर उसने एक कुशल डाक प्रणाली बनाई और भारत के अधिक सटीक मानचित्र बनाने के लिए एक पूर्ण भूमि सर्वेक्षण भी कराया।
प्राचीन भारतीय साहित्य और दर्शन में अपनी रूचि बरकरार रखते हुए उसने 1785 में विलियम जोन्स द्वारा स्थापित एशियाटिक सोसाइटी ऑफ़ बंगाल की स्थापना में भी सहयोग किया। हेस्टिंग्स के काल में ही जोनाथन डंकन ने बनारस में संस्कृत कॉलेज की स्थापना की। उसके काल में कोई प्राचीन भारतीय ग्रंथों का अनुवाद किया गया। इसने आगे चलकर प्राच्यवाद-पाश्चात्यवाद विवाद में भूमिका निभा ई. उसने गीता के अंग्रेजी अनुवादकार विलियम विल्किंस को आश्रय भी प्रदान किया। इसी के समय जेम्स हिक्की द्वारा भारत का पहला समाचार पत्र ‘द बंगाल गजट’ प्रकाशित हुआ। वह हेस्टिंग्स ही था जिसने भारत के शास्त्रीय हिंदू और बौद्ध अतीत की फिर से खोज की।
1785 में भारत से हेस्टिंग्स का कार्यकाल समाप्त हो गया लेकिन इंग्लैंड जाते ही वह नयी समस्याओं से घिर गया। असल में आय से अधिक संपत्ति और अधिकारों का दुरूपयोग करने के कारण उसपर भ्रष्टाचार का आरोप लगा। यहाँ तक की मीडिया और आम लोग द्वारा भी नवाब-नाबोब कहकर इसका मजाक बनाया जाने लगा। इस बाबत 1786 में ब्रिटिश संसद में बर्क ने उसके खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की। हालाँकि इसकी पटकथा बहुत पहले ही लिखी जा चुकी थी। यह कहानी लिखी थी फिलिप फ्रांसिस ने जो 1773 के एक्ट के तहत गठित 4 सदस्यीय कार्यकारिणी समिति का सदस्य था। इसके कलकत्ता पहुँचते ही हेस्टिंग्स का लगातार इससे विवाद रहा, जिसने 1780 में भयानक रूप ले लिया और अंततः फिलिप फ्रांसिस को यहाँ से भागने के लिए मजबूर किया। अपने इसी अपमान का बदला लेने के लिए फ्रांसिस ने ब्रिटिश संसद द्वारा हेस्टिंग्स पर महाभियोग चलाने में मुख्य भूमिका निभाई थी। हाउस ऑफ लॉर्ड्स के समक्ष यह मुकदमा 1788 से 1795 तक चला, लेकिन अंततः हेस्टिंग्स को बरी कर दिया गया। बरी होने के बाद, हेस्टिंग्स ने 85 साल की उम्र तक एक सेवानिवृत्त ग्रामीण के रूप में अपना जीवन गुजारा।
इतिहासकार डब्लू. डेलरिम्पल लिखते हैं कि “हेस्टिंग्स द्वारा भारत में किये गए सभी सुधारों का आधार उस भूमि के प्रति गहरा सम्मान था, जहां वह किशोरावस्था से रहते आए थे।।। हेस्टिंग्स को वास्तव में भारत पसंद था, और जब वे गवर्नर बने तब तक वे न केवल अच्छी बांग्ला और उर्दू बोल लेते थे, बल्कि धाराप्रवाह फ़ारसी भी बोलते थे”। हेस्टिंग्स कई मामलों में अपने पूर्ववर्ती और परवर्ती शासकों से इसलिए भी अलग था क्योंकि उसकी नजर में न भारतीय न भारतीय संस्कृति ही निकृष्ट थी। वह इसका पूरा सम्मान करता था। उसने कहा भी था ‘मैं भारत को अपने देश से थोड़ा अधिक प्यार करता हूं’।
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