Robert Clive: ब्रिटिश साम्राज्यवाद के जनक का इतिहास

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ब्रिटिश साम्राज्यवाद की शुरुआत और रॉबर्ट क्लाइव (Robert Clive) का योगदान

1757 में प्लासी की लड़ाई से शुरू हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत में 200 वर्षों तक अपने पैर मजबूती से जमाये रखे। यूँ तो इसके लिये कई कारण उत्तरदायी थे, लेकिन इसके लिये बंगाल के पहले गवर्नर रॉबर्ट क्लाइव (Robert Clive) के योगदान को कतई नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। एक व्यापारिक कंपनी से ईस्ट इंडिया कंपनी को उपनिवेशवादी सत्ता बनाने का सफर क्लाइव के नेतृत्व में ही संभव हो सका। यह अनोखी बात है कि क्लाइव जिसने मात्र 20 वर्ष की उम्र में कभी आत्महत्या कि कोशिश की थी। उसकी उम्र के चौथे दशक में उसे ‘स्वर्ग से उपजे सेना नायक’ की संज्ञा दी जाने लगी थी। अपने चरम पर, इसने ब्रिटेन से भी बड़े क्षेत्र पर शासन किया

क्लाइव का जन्म 1725 ई. में स्टाएच में हुआ था। वह 1743 ई. में ईस्ट इंडिया कंपनी में एक मामूली क्लर्क की हैसियत से मद्रास आया था लेकिन अपनी चालाकी, सूझबूझ से उसने भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी का पहला गवर्नर बनने का गौरव प्राप्त कर लिया। तत्कालीन दौर में जब ब्रिटिश और फ्रांसीसियों के बीच का प्रतिद्वंद भारत का भविष्य तय करने वाला था। उस दौर में क्लाइव ने ब्रिटिश सेना की सर्वोच्चता सिद्ध की और उपनिवेशवाद का मार्ग प्रशस्त किया। असल में वह भारत आया तो था एक क्लर्क की हैसियत से लेकिन जल्द ही मद्रास ईस्ट इंडिया के हाथों से निकल कर फ्रांसीसी के कब्जे में आ गया। ऐसे में क्लाइव सेना की ओर आकर्षित हो गया। जल्द ही उसे अपनी सैन्य रणनीति और राजनितिक कूटनीति दिखाने का मौका भी मिल गया।

1751 ई. में जब फ्रांसीसी खेमे के सहयोग से चंदा साहिब ने त्रिचिनोपोली के किले में ब्रिटिश सहयोगी मुहम्मद अली को घेरने का प्रयास किया उस दौरान क्लाइव की दूरदर्शिता ने इस उत्तराधिकार युद्ध को नाटकीय मोड़ दे दिया। क्लाइव ने हारे हुए खेल को पलटते हुए मात्र 500 लोगों की छोटी सी सेना के साथ आर्कोट पर कब्ज़ा कर 53 दिन की घेराबंदी का डटकर मुकाबले किया और आखिरकार फ्रांसीसी सेना को मात दे दी। इस तरह दक्षिण भारत में पहली बार ब्रिटिश सर्वोच्चता साबित हो पायी। इसके बाद क्लाइव ने 1753 ई. में भारत छोड़ दिया। हालाँकि भारत के साथ उसका सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। 1756 ई. में एक बार फिर मद्रास आने के बाद उसने पहले मराठों के गढ़ गेरिया किला पर कब्ज़ा किया। उसके बाद 1757 ई. में क्लाइव प्लासी की लड़ाई का भी सेनानायक बना।

1756 ई. में कलकत्ता शहर को किलेबंद करने से बंगाल के नवाब से उपजे एक विवाद के कारण बंगाल के नवाब सिराजुद्दोला ने किले पर कब्जा कर लिया। लेकिन इस अवसर पर भी क्लाइव ने हार नहीं मानी बल्कि इसे बंगाल को अपने अधीन करने का अवसर समझा। जैसा कि इतिहासकार विलियम डेलरिम्पल ने अपनी पुस्तक, द एनार्की: द रिलेटलेस राइज़ ऑफ़ द ईस्ट इंडिया कंपनी’ में लिखा है कि उसने अपने पिता को पत्र में कहा था-“यह अभियान, यदि इसमें सफलता मिलती है, तो यह मुझे महान कार्य करने में सक्षम बना सकता है। यह अभियान उपमहाद्वीप में ब्रिटिश राजनीतिक वर्चस्व की शुरुआत को चिह्नित करेगी।”

वास्तव में देखा जा तो हुआ भी यही! 23 जून, 1757 को लड़ी गयी प्लासी की लड़ाई ने क्लाइव को सदा के लिये इतिहास में दर्ज कर दिया। हालाँकि इसे लड़ाई कहना उचित नहीं होगा। यह क्लाइव की एक कूटनीतिक सफलता थी, जिसे केवल युध्द का रूप दिया गया था। नवाब के सभी बड़े सहयोगियों को अपनी ओर मिलकर क्लाइव ने इस घटना को अंजाम दिया था। उसकी इस सफलता के बाद ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री विलियम पीट ने उसे ‘स्वर्ग से उतरे सेनानायक’ की संज्ञा दी थी। लेकिन प्लासी के युद्द ने भारत की तकदीर बदल दी। इसके परिणामों को देखते हुए ही मेल्सन ने लिखा है कि ‘इतना तात्कालिक स्थायी और प्रभावशाली परिणामों वाला कोई युद्द नहीं हुआ।इस घटना के बाद जहाँ कंपनी को 24 परगने की जमींदारी प्राप्त हुई, जिससे उसकी आय में वृद्धि हुई वहीं दस्तकों का दुरूपयोग भी बढ़ गया।

यह सफलता ईस्ट इंडिया कंपनी के लिये चाहे जितनी सफल रही हो लेकिन भारतियों के लिये इसने बर्बादी का मार्ग ही खोला। जैसा कि इतिहासकार शेखर बंदोपाध्याय ने अपनी पुस्तक, “फ्रॉम प्लासी टू पार्टिशन” में लिखा है -“प्लासी की लड़ाई ने भारत में अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कंपनी के राजनीतिक वर्चस्व की शुरुआत को चिह्नित किया लेकिन इसके बाद जो हुआ उसे ‘प्लासी लूट’ कहा जाना चाहिए। इस लूट को अंजाम देने वाला कोई और नहीं बल्कि क्लाइव था। जब क्लाइव पहली बार 1744 में भारत आया था, तो वह कर्ज में डूबा हुआ था। लेकिन बंगाल विजय के बाद वह यूरोप के सबसे आमिर व्यक्ति में से एक में शामिल हो गया। केवल क्लाइव को युद्ध के बाद 2 लाख 34 हजार रूपये मिले।उसकी संपत्ति की कीमत आज के पैसे में 100 मिलियन यूरो के बराबर है। शायद इसलिये डेलरिम्पल ने इसे  “इतिहास के सबसे बड़े झटकों में से एक” बताया है। प्लासी के युद्ध में सफलता के साथ ही क्लाइव ने 1759 में बेदरा के युद्ध में डचों को हराकर भी ब्रिटिश सर्वोच्चता सिद्ध की। इस तरह उसने अपने प्रतिद्वंदी को व्यापार से बाहर कर दिया।

हालाँकि भ्रष्टाचार और दोहरेपन के कारण वह काफी विवादों में भी रहा। इसके बाद 1760 में वह इंग्लैंड लौट गया। हालाँकि 1762 में उसे ‘प्लासी के क्लाइव’ की उपाधि मिली तो 1764 में वह नाइटहुड से भी नवाजा गया। पर क्लाइव का भारत के साथ का सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। 1764 के बक्सर का युद्द तो क्लाइव ने नहीं लड़ा था लेकिन बक्सर युद्द के बाद उसके परिणामों की पटकथा उसने जरूर लिखी। मुनरो के नेतृत्व में लड़े गए बक्सर युद्द के बाद ईस्ट इंडिया कंपनी के सामने प्रशासनिक संकट आ खड़ा हुआ। इस संकट से उबारने और कंपनी को बेहतर स्थिति में पहुँचाने के लिये क्लाइव को 3 मई, 1765 को भारत भेजा गया।

बक्सर युद्ध के बाद आयी राजनितिक शून्यता की स्थिति को देखते हुए उसने 12 अगस्त, 1765 को मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय के साथ संधि करते हुए बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्राप्त की तो वहीं अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ दूसरी संधि करते हुए उसने कमजोर अवध को और तोड़ दिया। उसने बंगाल में प्रशासन की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेते हुए दोहरी प्रशानिक व्यवस्था कायम की। इसके तहत कंपनी ने दीवानी के अधिकार अपने हाथों में ले लिये जबकि निजामत का अधिकार नवाब के अधीन एक सदस्य की नियुक्ति कर किया जाने लगा। इससे कंपनी को अधिकार मिल गए जबकि जिम्मेदारी नहीं और नवाब को जिम्मेदारी मिली पर अधिकार नहीं।

इस दोहरी व्यवस्था ने समृद्ध बंगाल को गर्त में धकेल दिया। कंपनी में भ्रष्टाचार बढ़ गया तो वहीं अधिक राजस्व वसूली ने के किसानों की स्थिति बदहाल कर दी। बंगाल के उद्योग-धंधे सब तबाह हो गए। 1770 में बंगाल में आयी भीषण अकाल के लिये भी इतिहासकार क्लाइव को ही दोषी ठहराते हैं हालाँकि तब तक वह भारत से जा चुका था, पर उसकी नीतियों के निशाँ बाकी रह गए थे। इतिहासकार क्लाइव को इस बात के लिये दोष देते हैं कि उसके पास पर्याप्त समय रहने के बावजुद उसने स्थायी नीतियां नहीं बनाई। क्लाइव ने प्रभावी सरकार, कार्यशील अर्थव्यवस्था और संकट काल की तयारी के बिना बंगाल को छोड़ दिया। 1770 में जब बंगाल में भीषण अकाल आया तब तक वह जीवित था पर उसने तब भी कंपनी के अधिकारियों  से विचार-विमर्श कर उन्हें भारत में रहत कार्य चलाने के लिये नहीं मनाया। वास्तव में, कम्पनी की नीतियों ने अकाल को और अधिक विनाशकारी बना दिया, क्योंकि जब बारिश नहीं हुई तब भी उसने अपने करों में वृद्धि कर दी। क्लाइव अपनी पहुँच का इस्तेमाल कर इसमें बदलाव ला सकता था पर उसने ऐसा नहीं किया। कई इतिहासकार इसका कारण उ सका नस्लवादी होना बताते हैं। वह अक्सर अपने पिता को लिखी चिट्ठियों में भारतियों को विलासी, अज्ञानी और कायर कहा करता था। उसके हिसाब से भारतीय लोग नस्लीय रूप से हीन थे। उसकी इसी सोच ने 21 वीं सदी में एक बार फिर उसे चर्चा में ला दिया था जब ब्लैक लाइव मेटर आंदोलन चला तो जगह-जगह उसकी भी मूर्तियां तोड़ी गयी थी। शायद इसलिये हमेशा अच्छे कर्मों की सिख दी जाती है क्यूंकि क्लाइव के कर्मों ने ही उसे न चैन से जीने दिया न मौत के बाद सुकून।

वैसे  क्लाइव से केवल बंगाल की जनता ही त्रस्त नहीं हुई। बल्कि कंपनी के कर्मचारी भी उससे खफा ही रहे। उसने कंपनी के बीच व्याप्त भ्रष्टाचार रोकने के प्रयास करते हुए कर्मचारियों के उपहार लेने और उनके निजी व्यापार पर रोक लगा दी, जिसने सबको नाराज कर दिया। हालाँकि इस क्षतिपूर्ति को रोकने के लिये उसने 1765 में सोसाइटी फॉर ट्रेड का गठन करते हुए  इसे नमक, सुपारी और तम्बाकू के व्यापार का एकाधिकार दे दिया।  क्लाइव ने 1766 में सैनिकों को मिलने वाला दोहरा भत्ता भी बंद कर दिया। यह भत्ता अब केवल उन सैनिकों को मिलना था जो बंगाल, बिहार सीमा तक कार्य करते थे। इसके परिणाम स्वरुप मुंगेर और इलाहाबाद के अंग्रेज अधिकारियों ने विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह आगे चलकर ‘श्वेत विद्रोह’ कहलाया।

क्लाइव आख़िरकार 1767 में इंग्लैंड लौट  गया फिर कभी भारत वापस नहीं आने के लिये। तब तक उसके द्वारा अर्जित अचूक संपत्ति ने उसे सबकी आँखों का किरकिरी बना दिया था। 1770 में बंगाल में आयी अकाल ने उसकी छवि और धूमिल कर दी। इसका जिम्मेदार मानते हुए 1772 में उसपर संसद में ट्रायल चला। कहते हैं इससे आहत होकर 1774 में क्लाइव ने आत्महत्या कर ली हालाँकि उसने कोई सुसाइड नोट नहीं छोड़ा था। सैमुअल जॉनसन ने क्लाइव की मृत्यु के बारे में लिखा कि उसने “ऐसे अपराधों से अपना भाग्य अर्जित किया था कि उसकी ही चेतना ने उसे अपना गला काटने के लिये प्रेरित किया”।


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