भारत और तालिबान के बीच बढ़ते रिश्ते: कारण और रणनीतिक महत्त्व

Why is India developing relations with the Taliban?

हाल ही में भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री ने बुधवार को दुबई में तालिबान के विदेश मंत्री आमिर खान मुत्ताकी के साथ बातचीत की। यह किसी भारतीय विदेश सचिव और तालिबान के किसी वरिष्ठ अधिकारी के बीच पहली आधिकारिक रूप से स्वीकृत बैठक थी। इसमें राजनीतिक और आर्थिक संबंधों पर विस्तार से चर्चा की गई। तालिबान के विदेश मंत्री अमीर खान मुत्ताकी ने भारत की तरफ से अफगानिस्तान को मानवीय सहायता पहुँचाने के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि तालिबान भारत के साथ एक महत्त्वपूर्ण आर्थिक देश के रूप में संबंध बनाए रखना चाहता है।
यह बैठक ऐसे समय में हुई है, जब पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संबंध बेहद तनावपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं। भारतीय विदेश सचिव और तालिबान के विदेश मंत्री की मुलाकात से पाकिस्तान को तगड़ी मिर्ची लगी है। इस बैठक ने पाकिस्तान की चिंता बढ़ा दी है।

भारत और तालिबान के बढ़ते संबंध: क्या है भारत की रणनीति?

भारत, तालिबान के साथ रिश्ते क्यों बढ़ा रहा है?

चूँकि, भारत ने तालिबान सरकार को आधिकारिक मान्यता देने के लिए अभी तक कोई कदम नहीं उठाया गया है, तो ऐसे में इस अहम बैठक के बाद यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर भारत तालिबान से बातचीत के लिये तैयार क्यों हुआ?

तो इसके पीछे कई प्रमुख कारण नजर आ रहे हैं। दरअसल, यह भारत द्वारा अपने राष्ट्रीय और सुरक्षा हितों को सुरक्षित करने का एक प्रयास है, जिसमें कई गतिशील पहलू शामिल हैं। अफगानिस्तान में तालिबान के सत्ता पर काबिज होने के बाद से ही भारत पूरे घटनाक्रम पर नजर रख रहा था। ऐसे में भारत शायद इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि यह सही समय है कि आधिकारिक मान्यता दिए बिना तालिबान के साथ आधिकारिक संपर्क के स्तर को बढ़ाया जाए। अगर ऐसा नहीं किया गया तो अफगानिस्तान में सालों से किये गए निवेश से भारत को हाथ धोना पड़ जाएगा। भारत ने तालिबान के आने से पहले अफगानिस्तान में कई पुनर्निर्माण से जुड़ी योजनाओं में लगभग 3 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया था। अफगानिस्तान की नई संसद को भारत ने ही बनाया है। इसके अलावा कई बांधों और सड़कों का निर्माण भी कराया है। भारत ने अफगानिस्तान के 34 प्रांतों में से बिजली, जल आपूर्ति, सड़क संपर्क, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा कृषि और क्षमता निर्माण के महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में फैली पांच सौ से अधिक परियोजनाओं को अमली जामा पहनाया है। अफगानिस्तान के विकास में भारत की भूमिका को तालिबान भी स्वीकार करता है। ऐसे में भारत अपने सालों के निवेश और पैसे को खोना नहीं चाहता है।

इसके अलावा भारत का तालिबान के साथ संपर्क बढ़ाने के पीछे क्षेत्रीय और वैश्विक भू-राजनीति में उतार-चढ़ाव की स्थिति है। पाकिस्तान, जो पहले तालिबान का सबसे बढ़ा हितैषी और सहयोगी था, अब वो उसका विरोधी बन गया है। दोनों के बीच इन दिनों तनाव का माहौल है। दोनों के बीच दरार दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। दरअसल, तालिबान को बढ़ाने में पाकिस्तान का बढ़ा हाथ रहा है। यही वजह है कि अफगानिस्तान में तालिबान का शासन आने पर पाकिस्तान ने जश्न मनाया था। ऐसे में भारत को चिंता थी कि पाकिस्तान अफगानिस्तान का इस्तेमाल भारत विरोधी गतिविधियों के लिए कर सकता है। हालाँकि, अब दोनों एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं। दोनों एक दूसरे की जान लेने पर उतारू हैं। ऐसे में तालिबान और पाकिस्तान के बिगड़ते संबंधों ने भारत के लिए एक अवसर पैदा कर दिया है।

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दूसरी तरफ अफगानिस्तान में चीन का हस्तक्षेप बढ़ रहा है। भारत की तरह चीन ने भी अफगानिस्तान में कई परियोजनाओं में भारी निवेश किया है। उसकी नजर अफगानिस्तान के प्राकृतिक संसाधनों पर है। यहाँ यह गौर करने वाली बात है कि चीन उन शुरुआती देशों में से है, जिन्होंने काबुल में अपना राजदूत नियुक्त किया है। तालिबान के आने के बाद चीन अफगानिस्तान का सबसे बड़ा सहयोगी बनकर उभरा है। वह अफगानिस्तान में अपनी पैठ बना रहा है। ऐसे में अफगानिस्तान में बढ़ती चीनी गतिविधियों के लिहाज से भारत की भी वहाँ उपस्थिति काफी अहम है।

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इसके अलावा रूस और ईरान में भी अपने-अपने राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर उलझनें हैं। रूस पिछले 3 सालों से यूक्रेन के साथ युद्ध में उलझा हुआ है और पश्चिम एशिया में ईरान की स्थिति भी कमजोर हुई है। इसराइल और हमास के बीच जंग और सीरिया में तख्तापलट ने ईरान की कमजोरियों को उजागर किया है। सीरिया में हुआ तख्तापलट रूस के लिए भी एक झटका है। वहीं, रूस ने तालिबान को आतंकवाद से लड़ने में एक सहयोगी माना है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने पिछले साल जुलाई में कहा था कि तालिबान अब आतंकवाद से लड़ने में एक सहयोगी है। एक महीने पहले ही रूस की संसद ने तालिबान को प्रतिबंधित आतंकवादी संगठनों की सूची से हटाने वाला कानून भी पारित किया था। इन परिस्थितियों में भारत के लिए तालिबान से संवाद बढ़ाना फायदेमंद हो सकता है। यह भारत के लिये एक अहम मौका है।

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दरअसल, भारत की सबसे महत्त्वपूर्ण और मुख्य चिंता सुरक्षा है। भारत की सुरक्षा चिंता तालिबान के सत्ता में आने के बाद बदली है, क्योंकि कुछ आतंकवादी संगठन अफगानिस्तान में अपने पांव जमाने की कोशिश कर सकते हैं। तालिबान के साथ संवाद से भारत को इस खतरे से निपटने का अवसर मिल सकता है, ताकि अफगानिस्तान से आतंकवाद के फैलाव को नियंत्रित किया जा सके। भारत सुनिश्चित करना चाहता है कि किसी भी भारत विरोधी आतंकवादी समूह को अफगानिस्तान में काम करने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। यही वजह है कि हालिया हुई बैठक में तालिबानी प्रतिनिधिमंडल ने भारत की सुरक्षा चिंताओं को दूर करने की कोशिश की है। उन्होंने आश्वासन दिया है कि भारत की यात्रा के लिए अफगानिस्तान से वीजा प्राप्त करने वालों की उचित जाँच की जाएगी। भारतीय प्रतिनिधिमंडल को आश्वासन देते हुए उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान किसी भी देश के लिए खतरा नहीं है।

ऐसे में तालिबान के साथ रिश्ते सुधारने से भारत को अफगानिस्तान में अपनी राजनयिक स्थिति मजबूत करने में मदद मिल सकती है। खासकर जब अन्य वैश्विक शक्तियाँ तालिबान से संपर्क स्थापित कर रही हैं। यह एक अहम रणनीतिक दृष्टिकोण हो सकता है, ताकि भारत अपने प्रभाव को बनाए रख सके।


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