2024 भारत-चीन के संबंधों में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ का वर्ष साबित हुआ। कई वर्षों के तनावपूर्ण संबंधों और सीमा पर सैन्य गतिरोध के बाद, दोनों देशों ने विवादित इलाकों में सैन्य बलों की वापसी के लिए समझौते को अंतिम रूप दिया। यह प्रक्रिया न केवल सीमा पर स्थिरता लाने का प्रयास है, बल्कि कूटनीतिक, आर्थिक और राजनीतिक संबंधों को पुनर्जीवित करने की दिशा में भी एक सकारात्मक संकेत है। लेकिन नए साल की शुरुआत के साथ, भारत-चीन संबंधों के सामने सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या यह नरमी जारी रहेगी और यह कितनी दूर तक जाएगी। इन सवालों के जवाब के लिए, 2024 में आई नरमी को समझना और यह क्यों हुआ, इसे समझना महत्त्वपूर्ण है।
2024: भारत-चीन संबंधों में पिघलन की शुरुआत
2020 के बाद से दोनों एशियाई दिग्गजों अर्थात् भारत-चीन संबंध बेहद तनावपूर्ण रहे। गलवान घाटी की घटना और सीमा पर घातक झड़पों ने दोनों देशों के बीच अविश्वास को गहरा किया। इसके परिणामस्वरूप, न केवल सैन्य गतिरोध बना रहा, बल्कि आर्थिक संबंधों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ा। हालाँकि, 2024 में दोनों देशों ने सीमा पर तनाव कम करने और अपने रिश्तों को बेहतर करने के प्रयासों को प्राथमिकता दी। अक्तूबर 2024 में बफर जोन बनाने और विवादित क्षेत्रों में गश्त की व्यवस्था करने के लिए एक समझौता किया, जिससे आखिरकार चार साल का गतिरोध टूट गया।
इस समझौते के बाद 2019 के बाद से पहली औपचारिक बैठक चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के बीच रूस के कज़ान में उसी महीने के अंत में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में हुई। दिसंबर 2024 में, भारत और चीन ने क्षेत्रीय विवाद पर अपनी विशेष प्रतिनिधि वार्ता फिर से शुरू की, जो पाँच साल से नहीं हुई थी। इस वार्ता में दोनों ने अपने 2005 के समझौते पर लौटने पर चर्चा की, जो विवाद को हल करने के प्रयास में एक मील का पत्थर था। इस प्रकार इन वार्ताओं ने संबंधों को सुधारने की दिशा में एक नई ऊर्जा प्रदान की।
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भारत-चीन के बीच संबंध सुधार के कारण
2024 की इस नरमी के पीछे कई महत्त्वपूर्ण कारण हैं:
- राजनीतिक और सैन्य लागत: दोनों देशों के बीच लंबे समय तक शत्रुतापूर्ण संबंध बनाए रखना अब उनके लिए असंभव होता जा रहा था। 2020 के संकट के बाद से भारत और चीन के बीच सीमा पर लगातार तनाव बना रहा। दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी शर्तों पर संबंध बहाल करने की कोशिश की, लेकिन इसमें विफल रहे। भारत ने जोर दिया कि 2020 से पहले की स्थिति बहाल हो, जबकि चीन बिना किसी रियायत के संबंध सुधारना चाहता था। यह गतिरोध दोनों देशों के लिए राजनीतिक और सैन्य रूप से महंगा साबित हुआ। ऐसे में भारत और चीन दोनों ने शायद यह महसूस किया कि सीमा पर तनाव को कम करने के लिए ठोस कदम उठाना आवश्यक है।
- आर्थिक दबाव: अमेरिका द्वारा लगाए गए व्यापारिक प्रतिबंधों और चीन की घरेलू आर्थिक चुनौतियों ने बीजिंग को भारत के महत्व को समझने पर मजबूर कर दिया। भारत तेजी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है और चीन ने इसे अपने उत्पादों और निवेश के लिए संभावित बाजार के रूप में देखना शुरू किया। दूसरी ओर, भारत का इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग चीनी इलेक्ट्रॉनिक घटकों पर और दवा उद्योग चीनी आयात पर अत्यधिक निर्भर रहा है। इन आर्थिक जरूरतों ने दोनों देशों के बीच संबंध सुधारने की दिशा में प्रेरणा दी।
- अंतरराष्ट्रीय संदर्भ: चीन-अमेरिका के बीच बढ़ते तनाव ने बीजिंग को यह महसूस कराया कि सीमा पर भारत पर दबाव डालने की उसकी रणनीति उल्टी पड़ गई है। इसके बजाय, इसने भारत को अमेरिका के और करीब धकेल दिया, जो चीन के लिए रणनीतिक रूप से हानिकारक है। दूसरी तरफ, भारत भी चीन के साथ संघर्ष के कारण अमेरिका पर अधिक निर्भर हो गया, जिससे उसकी बहुपक्षीय कूटनीति और रणनीतिक स्वायत्तता को नुकसान पहुँचा। ऐसे में चीन-अमेरिका के बीच बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने दोनों देशों को महसूस कराया कि उनके बीच स्थिरता बनाए रखना उनके व्यापक हित में है। चीन को यह एहसास हुआ कि भारत को अमेरिका के करीब धकेलने से उसके रणनीतिक उद्देश्यों को नुकसान पहुँच सकता है।
- आर्थिक और कूटनीतिक पहल: सीमा पर नरमी के बाद, वाणिज्य और संपर्क के क्षेत्रों में सामान्यीकरण की संभावनाएँ बढ़ी हैं। हालाँकि, भारत यह सुनिश्चित करना चाहता है कि चीन वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) की पवित्रता का सम्मान करे। भारत का चीन के साथ कागज़ पर, करीब 80 बिलियन अमेरिका डॉलर से अधिक का व्यापार घाटा एक राजनीतिक चिंता का विषय है। लेकिन, चीन पर निर्भरता को कम करने के मौजूदा विकल्प सीमित हैं। इसके अलावा, भारत के कुछ स्टार निर्यातक, जैसे कि फार्मास्यूटिकल्स और टेक्सटाइल जैसे क्षेत्र चीनी मशीनरी, कच्चे माल या मध्यस्थ उत्पादों पर निर्भर हैं। ऐसे क्षेत्रों में व्यापार घाटे पर कुल्हाड़ी चलाना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चलाने के बराबर हो सकता है। व्यापार असंतुलन से निपटने के लिए एक सूक्ष्म नीति अर्थव्यवस्था की ज़रूरत है (जैसा कि चीन से FDI पर प्रतिबंध है), जो उद्योग की चिंताओं को पूरी तरह से ध्यान में रखता है। चीन के साथ व्यापार करने में आसानी का मतलब सीधे संपर्क की जल्द बहाली के साथ-साथ यात्रा व्यवस्थाओं का उदारीकरण होना चाहिए।
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इसके अलावा, चीन ने भारतीय उद्योगों को अपनी आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बनाए रखने की रणनीति अपनाई है, जिसमें तकनीकी हस्तांतरण और निर्यात नियंत्रण जैसी चुनौतियाँ शामिल हैं। भारत के लिए यह आवश्यक है कि वह वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं को विविध बनाए और अपनी तकनीकी क्षमता को विकसित करे। वहीं, चीन के साथ संघर्ष ने भारत को अमेरिका पर अपनी इच्छा से अधिक निर्भर बना दिया, जिससे अंतर्राष्ट्रीय पैंतरेबाज़ी के लिए इसकी गुंजाइश सीमित हो गई और इसकी प्रशंसित रणनीतिक स्वायत्तता कम हो गई। ऐसे में चीन के साथ तनाव कम करना आवश्यक हो गया। लेकिन, इस पृष्ठभूमि महत्त्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या यह नरमी 2025 में जारी रहेगी।
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भारत और चीन के बीच 2025 की संभावनाएँ और चुनौतियाँ
2025 में भारत और चीन के बीच संबंधों में सुधार की संभावनाएँ मौजूद हैं, लेकिन यह प्रक्रिया कई जटिल कारकों पर निर्भर करेगी। दोनों देशों को अपनी रणनीतिक और आर्थिक प्राथमिकताओं के बीच संतुलन बनाते हुए कई प्रमुख चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा। कुछ प्रमुख चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं:
- अमेरिका की भूमिका: अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अमेरिका का प्रभाव भारत और चीन दोनों के लिए एक महत्त्वपूर्ण कारक रहेगा। यदि अमेरिका, विशेष रूप से ट्रम्प प्रशासन के तहत, भारत और चीन पर नए व्यापारिक प्रतिबंध लगाता है या टैरिफ बढ़ाता है, तो इससे दोनों देशों की आर्थिक प्राथमिकताओं पर दबाव बढ़ेगा। इसके अतिरिक्त, अमेरिका द्वारा भारत पर चीन के खिलाफ रणनीतिक गठबंधन का हिस्सा बनने का दबाव भी जटिलताएँ उत्पन्न कर सकता है। भारत को अपने स्वायत्त निर्णयों और दीर्घकालिक राष्ट्रीय हितों के बीच संतुलन बनाए रखना होगा।
यह भी पढ़ें: ट्रम्प 2.0 का भारत पर क्या होगा असर? - तिब्बत मुद्दा: तिब्बत का मसला 2025 में भारत-चीन संबंधों में एक संवेदनशील मुद्दा बन सकता है। दलाई लामा, जो अपने 90वें जन्मदिन के बाद उत्तराधिकारी योजना पर विचार कर रहे हैं, इस विषय को और अधिक विवादास्पद बना सकते हैं। चीन इस मुद्दे पर आक्रामक रुख अपना सकता है और भारत से तिब्बतियों को समर्थन देने से रोकने के लिए दबाव डाल सकता है। भारत को यह तय करना होगा कि वह तिब्बत के मसले पर अपनी नीति में बदलाव करेगा या अपनी परंपरागत स्थिति को बरकरार रखते हुए चीन के साथ संबंधों का प्रबंधन करेगा।
- चीन के प्रति भारत का अविश्वास: 2020 के सीमा संघर्ष ने भारत में चीन के प्रति गहरा अविश्वास पैदा किया है। भारत की नीति अब ठोस गारंटी के बिना चीन के साथ संबंध सुधारने की नहीं होगी। सीमा पर शांति और स्थिरता सुनिश्चित करना 2025 में संबंध सुधार की दिशा में पहला कदम होगा। भारत स्पष्ट रूप से यह रुख अपनाएगा कि जब तक वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) पर प्रगति नहीं होगी, द्विपक्षीय संबंधों में कोई बड़ा सुधार संभव नहीं है।
- आर्थिक प्रतिस्पर्धा: चीन की रणनीति भारत के विनिर्माण क्षेत्र को कमजोर करने और उसकी तकनीकी प्रगति में बाधा डालने पर केंद्रित हो सकती है। ऐसा इसलिये क्योंकि चीन को भारत के बढ़ते विनिर्माण और तकनीकी विकास से खतरा महसूस हो रहा है। विशेष रूप से एप्पल और अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियों के भारत में स्थानांतरित होने से यह चिंता बढ़ गई है। चीन चाहता है कि भारत उसकी आपूर्ति श्रृंखला का अभिन्न अंग बने, न कि उसका विकल्प बने। इस रणनीतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए वह विभिन्न तरीके अपनाना रहा है। ऐसे में भारत को इस प्रतिस्पर्धा के बीच अपनी स्वदेशी क्षमता को मजबूत करना होगा। इसे हासिल करने के लिए भारत को चीन पर निर्भरता कम करने के लिए वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं के विस्तार और विविधीकरण के लिए व्यापार साझेदारी के बारे में अधिक खुले विचारों से सोचने की आवश्यकता है। भारत को अपने विनिर्माण क्षेत्र को सशक्त करने के लिए विशेष आर्थिक प्रोत्साहन योजनाएँ लानी होंगी। साथ ही डिजिटल और तकनीकी क्षेत्रों में आत्मनिर्भरता पर जोर देना होगा।
निष्कर्ष
2024 में भारत और चीन ने अपने संबंध सुधारने की दिशा में एक नई पहल की। हालांकि, यह प्रक्रिया अभी शुरुआती चरण में है और इसे सफल बनाने के लिए दोनों देशों को संयम और परिपक्वता दिखाने की आवश्यकता होगी। लेकिन, चीन के रुख को देखते हुए इस दिशा में ठोस प्रगति की संभावना कम नजर आ रही है।
चीन ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने की योजना बना रहा है। यह बांध बेहद संवेदनशील हिमालयी क्षेत्र में, टेक्टोनिक प्लेटों की सीमा पर बनाया जा रहा है, जो भूकंप-प्रवण क्षेत्र है। भारत ने इस निर्माण पर अपनी गंभीर चिंता व्यक्त की है। हालांकि, चीन ने सफाई देते हुए कहा है कि इस बांध से भारत में पानी के प्रवाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
इसके अलावा, चीन ने हाल ही में होतन प्रांत में दो नए काउंटी बनाने की घोषणा की है। इस पर भारत ने कड़ा विरोध जताया है। भारतीय विदेश मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि भारत ने इस क्षेत्र में चीन के ‘अवैध’ कब्जे को कभी स्वीकार नहीं किया है। मंत्रालय ने यह भी जोड़ा कि ये तथाकथित काउंटी लद्दाख के कुछ हिस्सों को अपने अधिकार क्षेत्र में दिखाते हैं, जो भारत का अभिन्न हिस्सा हैं।
यदि चीन वास्तव में संबंध सुधारने पर ध्यान केंद्रित करे, तो 2025 में दोनों देशों के संबंधों में प्रगति के कई अवसर हो सकते हैं। खासतौर पर क्षेत्रीय विवादों के प्रबंधन और आर्थिक साझेदारी के विस्तार के मामले में सकारात्मक बदलाव संभव है। लेकिन यह तभी मुमकिन होगा जब दोनों देश आपसी अविश्वास को कम करने और सहयोग के ठोस रास्ते तलाशने में सक्षम हों। ऐसा होने पर, भारत और चीन का जुड़ाव एशिया और विश्व के भविष्य के लिए एक प्रेरक उदाहरण बन सकता है।
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