सभी भटकने वाले गुम नहीं होते। (UPSC Essay 2023)

Not all who wander are lost

सभी भटकने वाले गुम नहीं होते। (UPSC CSE Essay-2023)
Not all who wander are lost.

ट्रेवलिंग का शौक रखने वालों के साथ अक्सर एक समस्या होती है कि वे कैसे जाएँ? क्या सारी ट्रेवलिंग, बुकिंग, प्लानिंग ट्रेवल गाइड के साथ पहले ही तैयार कर लें ताकि वहां उन्हें भटकना न पड़े, अपनी मंजिल का पता किसी से पूछना न पड़े… या सब कुछ वक्त पर छोड़ दिया जाए कि कहाँ कैसे घूमना है वह वहां जाकर ही तय किया जाए। वैसे आप सब भी तो कभी न कभी कहीं न कहीं घुमने गए होंगे आप किस केटेगरी में आते हैं? भटक कर अपनी मंजिल खुद तलाशते हैं या सब कुछ पहले से ही तय करके घुमने जाते हैं? वैसे किसी शायर ने कहा है ‘मंजिल मिल ही जाएगी भटकते ही सही,  गुमराह तो वो हैं जो कभी घर से निकले ही नहीं।।।’

यूं तो हमारी आम मान्यता है कि भटकना अच्छा नहीं होता, भटकते वे लोग हैं जिन्हें मंजिल का पता नहीं होता और जिन्हें मंजिल का पता नहीं होता वे गुमराह हो जाते हैं। पर क्या सही में सभी भटकने वाले गुम हो जाते हैं? शायद नहीं! अगर ऐसा होता तो हम सब भी तो गुम ही होते। अंतर्मन में भटकते हुए, नयी राह तलाशते हुए, अपने द्वंदों से उलझा हर इन्सान गुम ही तो होता। कभी जिन्दगी कि किसी दौड़ में फंसा हुआ तो कभी किसी दौर में भटका हुआ लेकिन अंतर्मन के इस भटकाव में हम गुम नहीं होते, बल्कि इसी में हम उलझते हैं तो सुलझते भी हैं। अंतर्मन के इस भटकाव ने ही तो सिद्धार्थ को बुद्ध और वर्धमान को महावीर बना दिया। न एक राजकुमार भटकते हुए अपने जीवन के चार आर्य सत्यों से कभी अवगत होता और न ही गृहस्थ जीवन त्यागकर संन्यासी बनता। नरेन्द्र के आध्यात्मिक भटकाव ने ही तो उसे परमहंस का शिष्य बना दिया। न वह अपनी ज्ञान पिपासा मिटाने को भटकता न उसे परमहंस सा गुरु मिलता और न ही वह विवेकानंद बनता। आध्यात्मिक चिंतन की धरती भारत, शायद आध्यात्मिक चिंतन के लिए भटकने को, विचरण को अच्छा मानती थी तभी तो जीवन के चार आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास में जहाँ चौथा चरण आध्यात्म का है वहीं तीसरा चरण वानप्रस्थ का है यानी वन में विचरण का। असल में यह चरण है भटकाव का, अन्वेषण का, स्वयं की तलाश का, अपने द्वंदों से लड़ने का और सही मार्ग यानी अध्यात्म के मार्ग तक पहुँचने का।

शायद यही कारण है कि भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक विविधता और धार्मिक पर्यटन यात्रा वैसा अन्वेषण है जो रोमांच के साथ ही आध्यात्मिक विकास से गहरे तौर पर संबंधित है। भारत की धार्मिक पर्यटन यात्रा एक जगह से शुरू तो होती है पर खत्म नहीं। चाहे वह चार धाम यात्रा हो, शंकराचार्य द्वारा स्थापित चार मठ हो या द्वादश ज्योतिर्लिंग की यात्रा। ये सभी राह भटकाव के हैं, तो अन्वेषण और स्व तलाश के भी हैं। ये भ्रमण, ये भटकाव, बिना उद्देश्य के घुमक्कड़ी बौद्धिक, कलात्मक और रचनात्मक दृष्टिकोण से भी तो हमेशा सही माना जाता है। राहुल सांकृत्यायन ने तो कहा भी था ‘’सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ’’। एक प्रसिद्ध लेखक और घुमक्कड़ राहुल सांकृत्यायन से बेहतर इस घुमक्कड़ी को कौन ही समझा सकता है। एक लेखक से तो यह उम्मीद भी कि जाती है कि वह पहले दुनिया घूमे, दुनिया को पहचाने और उसके बाद अपनी लेखनी को विस्तार दे। तभी तो विद्वान, कलाकार और लेखक अक्सर अपनी समझ को गहरा करने और इसके बौद्धिक और सांस्कृतिक ताने-बाने में योगदान देने के लिए बौद्धिक यात्राएँ करते हैं।

प्रसिद्ध कवि और दार्शनिक रवींद्रनाथ टैगोर एक बौद्धिक घुमक्कड़ थे जिन्होंने साहित्य, संगीत और शिक्षा के क्षेत्र की खोज की। भारत और विदेश दोनों में उनकी यात्राओं ने उनके कार्यों को प्रभावित किया और उन्हें वैश्विक दर्शकों से जुड़ने का मौका दिया। टैगोर की बौद्धिक यात्रा ने शिक्षा के बारे में उनके दृष्टिकोण को आकार दिया जिसके नतीजे के तौर पर विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना हुई, जिसने समग्र शिक्षा और पूर्वी और पश्चिमी ज्ञान के संलयन पर जोर दिया। परंपराओं, भाषाओं और कला रूपों से भरे भारत में सांस्कृतिक अन्वेषण एक प्रचलित प्रेरणा है। व्यक्ति अक्सर स्थानीय रीति-रिवाजों, त्योहारों और व्यंजनों में खुद को डुबोने के लिए अलग-अलग क्षेत्रों की यात्रा करते हैं। घूमने का यह तरीका सांस्कृतिक समझ को बढ़ावा देता है।

यूं भी जब हम भटकते हैं तभी तो खोज करते हैं, जैसे अगर भगवान हनुमान भटकते ही नहीं तो द्रोणागिरी पर्वत पर संजीवनी बूटी की तलाश कैसे होती। अगर एडिसन सैकड़ों बार भटकते नहीं तो बल्ब का आविष्कार कैसे संभव होता? जब हम भटकते हैं तभी तो नयी राह तलाशते हैं, नयी खोज करते हैं और  जीवन, दर्शन, विज्ञान, आध्यात्म सभी को नए अनुभवों और विचारों के माध्यम से समझते हैं। एडिसन ने अपनी इस भटकाव और असफलता पर कहा भी था मैं 1000 बार असफल हुआ तभी तो मैं अपने लक्ष्य के करीब जाता गया। न वे इतना भटकते और न ही बल्ब का आविष्कार संभव हो पाता जबकि भटकने के आध्यात्मिक, दार्शनिक,वैज्ञानिक आयाम गहन हैं, मूर्त लाभ भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं।

भटकना व्यक्तिगत विकास को सुगम बनाता है। जैसे-जैसे कोई अज्ञात में प्रवेश करता है, वे अनिवार्य रूप से नए कौशल, अनुभव और दृष्टिकोण प्राप्त करते हैं। ये अनुभव उनके विश्वदृष्टिकोण को आकार देते हैं, जिससे वे अधिक खुले विचारों वाले और अनुकूलनीय बनते हैं। भटकने का एक और सूक्ष्म लेकिन महत्त्वपूर्ण लाभ समस्या-समाधान में इसकी भूमिका है। जिस तरह कभी-कभी कंप्यूटर को रीबूट की आवश्यकता होती है, उसी तरह मानव मस्तिष्क को ब्रेक लेने, भटकने और अवचेतन प्रक्रियाओं को रचनात्मकता को जगाने की अनुमति देने से लाभ होता है। अल्बर्ट आइंस्टीन से लेकर प्रसिद्ध भारतीय गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन तक कई महान विचारक अक्सर लंबी सैर पर जाते थे। अंत में, भटकने से स्वास्थ्य और कल्याण के लिए स्पष्ट लाभ होते हैं। चलने की शारीरिक क्रिया हृदय स्वास्थ्य को बढ़ावा देती है, जबकि इससे मिलने वाली मानसिक राहत तनाव कम करने और भावनात्मक संतुलन में सहायता करती है। यह भटकाव हमें यह भी सिखाता है कि हमें अपने अंदर की गहराई में झांकने की आवश्यकता है ताकि हम अपने वास्तविक उद्देश्यों और आकांक्षाओं को पहचान सकें। जैसे आइन्स्टीन ने पहचाना था। बचपन में पढ़ाई में कमजोर होने के कारण स्कूल से निकाल दिये जाने वाला छात्र भटका तभी तो खुद की खोज कर सका और आज सदी के महानतम वैज्ञानिकों की गिनती में शुमार है। यह तेजी से बदलती दुनिया में विशेष रूप से प्रासंगिक है जहां लचीलापन और अनुकूलनशीलता को अत्यधिक महत्व दिया जाता है। जैसे इस भटकने ने ही देश में सामाजिक न्याय आंदोलन की नींव रखी। LGBTQIA+, पर्यावरण, महिला सशक्तीकरण, जाति समानता आंदोलन जैसे विचार लोगों के सामने रखे।

हालाँकि भटकने की क्रिया में कई गुण हैं, लेकिन ये दिशाहीन, उद्देश्यहीन नहीं होना चाहिए बल्कि इसे समझदारी से करना ज़रूरी है। एक आम आलोचना भटकने को सरासर लक्ष्यहीनता के साथ जोड़ती है। लेकिन भटकने का मतलब लक्ष्यहीनता नहीं है। भटकने की लालसा, जब आत्मनिरीक्षण से रहित होती है, तो केवल पलायनवाद का परिणाम हो सकती है। भटकने का मतलब भागना नहीं है, यह पलायनवाद की प्रकृति को बढ़ावा देने के लिए नहीं है। बल्कि यह चिंतन, अन्वेषण के लिए है। भटकने का मतलब है अप्रत्याशित के अनुकूल होना, नए अनुभवों के लिए खुले रहना। लेकिन जो ऐसा नहीं करते वे सही में गुम हो जाते हैं। इसके अलावा, भटकने के कई  निर्विवाद आर्थिक और सामाजिक चिंताएँ हैं। बिना किसी उद्देश्य या लक्ष्य के भटकने से बहुत सारा समय और संसाधन बिना किसी ठोस परिणाम के खर्च हो सकते हैं। जो बढ़ती जनसंख्या के सामने बहुत बड़ी हानि है।  वहीं कुछ संदर्भों में, जैसे कि शिक्षा या करियर नियोजन, लक्ष्यहीन भटकने से अवसर छूट सकते हैं या उपलब्धियाँ देरी से मिल सकती हैं। जो व्यक्ति परिवार, काम या समुदाय के प्रति दायित्वों पर लक्ष्यहीन अन्वेषण को प्राथमिकता देते हैं, वे खुद को अलग-थलग पा सकते हैं या अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए संघर्ष कर सकते हैं।

इसके अलावा हर किसी को स्वतंत्र रूप से घूमने का विशेषाधिकार नहीं है। कई लोगों के लिए, विशेष रूप से भारत जैसे विकासशील देशों में, दैनिक जीवनयापन अस्तित्व संबंधी खोज से अधिक प्राथमिकता लेता है। इसलिए, भटकने की कहानी को इन असमानताओं के प्रति संवेदनशीलता के साथ देखा जाना चाहिए। भटकना जीवन यात्रा का एक सार्थक हिस्सा हो सकता है। यह हमें याद दिलाता है कि जीवन का रास्ता हमेशा सीधा नहीं होता और कभी-कभी चक्कर और विचलन से ही गहन खोजें और व्यक्तिगत विकास होता है। भटकने से डरने की बजाय, इसे अपने रास्ते पर खुद को खोजने, अपने जीवन को समृद्ध बनाने, और लगातार उद्देश्य और अर्थ की तलाश करने का तरीका अपनाना चाहिए। अंत में, भटकना अपने संभावित खतरों के बिना नहीं है। बिना मार्गदर्शन के भटकने से जुड़े मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक जोखिम हैं, आभासी दुनिया में डिजिटल लत के नुकसान से लेकर वास्तविक दुनिया के भटकने वालों के सामने आने वाले शारीरिक खतरों तक।

तभी तो अब्दुल हमीद अदम ने कहा था-

सिर्फ़ इक क़दम उठा था ग़लत राह-ए-शौक़ में
मंज़िल तमाम उम्र मुझे ढूँढती रही।


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