पाकिस्तान का हाल ऐसा है कि उसे कोई भी लतिया देता है। अब खुद ही देख लो कि जिस तालिबान को उसने पाल-पोसकर बड़ा किया, आज वही उसकी ईंट से ईंट बजाने पर उतारू है। शायद पाकिस्तान ने भी नहीं सोचा होगा कि वो जिसे दूध पिला रहा है वो ही एक दिन उसके सामने फन निकाल कर खड़ा होगा। उसने इस बात का कभी अंदाजा नहीं रहा होगा कि एक तालिबान उसे उसके घर में घुसकर मारेगा। साल 2021 में तालिबान में जब काबुल पर कब्जा किया था, तो पाकिस्तान ने इसे एक सकारात्मक विकास के रूप में देखा था। पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री इमरान खान ने तालिबान की सत्ता में वापसी को अफ़गानों द्वारा “गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ने” जैसा बताया था। जबकि, पाकिस्तान के गृह मंत्री शेख राशिद अहमद ने तालिबान के सत्ता में आने को “नई शक्ति गठबंधन” के रूप में पेश किया था। उन्होंने कहा था कि इस कदम से दुनिया में इस क्षेत्र की अहमियत में इजाफा होगा। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं। हाल ही में तालिबान ने पाकिस्तान के अंदर कई ठिकानों पर हमला किया। इस हमले में कई पाकिस्तानी नागरिकों की मौत हुई है। लेकिन अब सवाल आता है कि ऐसा क्या हो गया कि तालिबान और पाकिस्तान कट्टर दुश्मन बनने की कगार पर पहुँच रहे हैं। आखिर क्या हुआ जो इनके रिश्ते बिगड़ गए? इस पर बात करेंगे मगर सबसे पहले ये समझना जरूरी है कि तालिबान के उदय में पाकिस्तान की क्या भूमिका थी?
तालिबान का उदय और पाकिस्तान की भूमिका
दरअसल, 1990 के दशक के मध्य में तालिबान के जन्म के बाद से ही पाकिस्तान का तालिबान से घनिष्ठ संबंध रहा है। जब मुल्ला उमर ने कंधार में संगठन की स्थापना की थी, तब पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी ISI ने उसकी खूब मदद की थी। ISI ने 1980 के दशक में भी मुजाहिदीन के लिए अपने training camps में से एक में उमर को trained किया था। मुल्ला उमर ने अफ़ग़ानिस्तान पर सोवियत रूस के कब्जे के खिलाफ लड़ रहे थे। पाकिस्तान उन तीन देशों में से एक था, जिसने 1990 के दशक के अंत में तालिबान के इस्लामिक अमीरात को अफ़ग़ानिस्तान की वैध सरकार के रूप में मान्यता दी थी। बाकी बचे दो देश सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात थे। 2001 तक, पाकिस्तान काबुल में तालिबान शासन को उसके टैंक, विमान और तोपखाने चलाने के लिए सैकड़ों सलाहकार और विशेषज्ञ, उसकी पैदल सेना के लिए हजारों पाकिस्तानी पश्तून और उत्तरी गठबंधन के साथ युद्ध में मदद के लिए विशेष सेवा समूह के कमांडो की छोटी इकाइयां उपलब्ध करा रहा था। एक लाइन में कहें तो पाकिस्तान ने तालिबान की युद्ध मशीन को चलाने के लिए जरूरी तेल मुहैया कराया। पाकिस्तान यह सब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के आधा दर्जन प्रस्तावों को ताक पर रख कर रहा था। इन प्रस्तावों में सभी देशों से तालिबान को सहायता बंद करने की अपील की गई थी। दरअसल, पाकिस्तान ऐसा करके इलाके में अपने हित साधना चाह रहा था। पाकिस्तान का मकसद था कि अफ़ग़ानिस्तान में एक ऐसा शासन स्थापित हो, जो उसके रणनीतिक हितों के अनुकूल हो और भारत के प्रभाव को सीमित कर सके।
इस तरह साफ है कि तालिबान के उदय में पाकिस्तान की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है। लेकिन 2021 में तालिबान के सत्ता में वापस आने के बाद, पाकिस्तान की उम्मीदें पूरी नहीं हो पाई। तालिबान ने पाकिस्तान की अपेक्षाओं के विपरीत, स्वतंत्र नीति अपनाई और अफगान समाज में समर्थन पाने के लिए राष्ट्रवादी रुख अपनाया। एक तरह से अब उसने पाकिस्तान लिए ही गंभीर सुरक्षा चुनौतियाँ खड़ी कर दी हैं।
अब सवाल आता है कि आखिर वो कौन सी वजहें हैं जिन्होंने तालिबान को पाकिस्तान के खिलाफ खड़ा कर दिया है? तो इस तनाव के पीछे की वजहों में ऐतिहासिक और वर्तमान की कई घटनाएँ शामिल हैं। अगर ऐतिहासिक वजह की बात करें तो इसमें डूरंड रेखा विवाद प्रमुख मुद्दा है।
डूरंड रेखा विवाद
डूरंड रेखा पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच की सीमा है। इसकी लंबाई 2,640 किलोमीटर है। यह औपनिवेशिक दौर की ब्रिटिश भारतीय सरकार के सचिव सर मोर्टिमर डूरंड और अफ़गानिस्तान के अमीर या शासक अब्दुर रहमान खान के बीच हुए समझौते का नतीजा है। इस समझौते पर 12 नवंबर, 1893 को अफ़गानिस्तान के काबुल में हस्ताक्षर किए गए थे। इस रेखा ने पश्तून बहुल क्षेत्रों को दो हिस्सों में बाँट दिया। हालाँकि अफ़ग़ानिस्तान ने इसे कभी आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं दी। 1947 में पाकिस्तान बनने के बाद, अफ़ग़ानिस्तान ने पाकिस्तान के साथ भी इस सीमा को मान्यता देने से इनकार कर दिया था। आगे यह विवाद जस का तस दोनों देशों के बीच चलता रहा। लेकिन, तालिबान के सत्ता में आने के बाद, पाकिस्तान को उम्मीद थी कि वह इस विवाद को हल करने में मदद करेगा। मगर, 1990 के दशक में तालिबान सरकार ने इस मुद्दे पर अफगान राष्ट्रवादी रुख अपनाया और उसने भी इस सीमा को मान्यता देने से इनकार कर दिया है। अब वर्तमान तालिबान शासन भी अपने पूर्ववर्तियों का अनुसरण कर रहा है। उसने खुले तौर पर डूरंड रेखा को अस्वीकार किया है। दरअसल, मानना है कि यह एक जबरन खींची गई रेखा है, जो अफगान जनता के हितों के खिलाफ है। वह डूरंड रेखा को पश्तून पहचान के खिलाफ मानता है।
जबकि, तालिबान के उलट पाकिस्तान ने इस रेखा को अपनी अंतर्राष्ट्रीय सीमा के रूप में मान्यता दी है। उसने इस पर लगभग पूरी तरह से बाड़ लगा दी है। इस बाड़ को तालिबान लड़ाकों ने कई बार हटाया है। इसके चलते कई झड़पें हुईं हैं जिसमें कई सैनिक मारे गए हैं।
इस तरह तालिबान सरकार पाकिस्तान की अपेक्षा से कम मददगार साबित हो रही है। वो व्यापक अफगान समाज से समर्थन प्राप्त करने के लिए राष्ट्रवादी बयानबाजी के साथ खुद को जोड़ रही है। साथ ही तालिबान नेता भी एक लड़ाकू समूह से सरकार में बदलने के लिए उत्सुक हैं, जो जाहिर तौर पर एक सतत प्रयास है और पाकिस्तान पर भारी निर्भरता से परे संबंधों को मजबूत करना है।
तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) का मुद्दा
अफ़गानिस्तान में तालिबान की सफलता के साथ ही सशस्त्र विद्रोह का क्षेत्र अब पाकिस्तान की ओर स्थानांतरित हो गया है। 2022 के बाद से पाकिस्तानी सुरक्षा और पुलिस बलों पर आतंकवादी हमलों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। यह वृद्धि विशेष रूप से खैबर पख्तूनख्वा और बलूचिस्तान प्रांतों में हुई है। इनमें ज़्यादातर हमलों की ज़िम्मेदारी तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (TTP) ने ली है। TTP को पाकिस्तानी तालिबान कहा जाता है। इसका गठन साल 2007 में कई आतंकवादी गुटों ने एकजुट होकर किया था। TTP का घोषित उद्देश्य पाकिस्तान की निर्वाचित सरकार को उखाड़ फेंकना है ताकि इस्लामी कानून की अपनी व्याख्या के आधार पर अमीरात की स्थापना की जा सके। इस उद्देश्य से, TTP ने पाकिस्तानी सेना पर सीधे हमला करके और राजनेताओं की हत्या करके पाकिस्तान को अस्थिर करने का काम किया है। पाकिस्तान सरकार ने इस संगठन को अगस्त 2008 में Ban कर दिया था। लेकिन यह संगठन फिर भी अपनी गतिविधियों में सक्रिय है। TTP के प्रमुख बैतुल्लाह महसूद ने 30 मार्च 2009 को लाहौर में पुलिस अकादमी पर हमले की जिम्मेदारी ली थी, जिसमें आठ लोग मारे गए और 100 से अधिक घायल हुए थे। इसके बाद TTP ने अक्टूबर 2009 में इस्लामाबाद में विश्व खाद्य कार्यक्रम मुख्यालय पर आत्मघाती हमले और जुलाई 2010 में मोहमंद ट्राइबल एजेंसी में एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के कार्यालय के बाहर एक हमले की जिम्मेदारी भी ली। मई 2011 में TTP के आतंकियों ने कराची में मेहरान नौसैनिक अड्डे पर हमला किया, जिसमें 10 पाकिस्तानी सुरक्षा अधिकारियों की मौत हुई।
दरअसल TTP की जड़ें 2001 में उन घटनाओं से जुड़ी हैं, जब अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को सत्ता से बेदखल किया। अक्टूबर 2001 में तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान से खदेड़े जाने के बाद, कई तालिबानी आतंकवादी पाकिस्तान के सीमावर्ती क्षेत्रों में शरण लेने पहुंचे। 2002 से इन आतंकियों ने पाकिस्तान में अपनी गतिविधियां शुरू की, जिसके बाद पाकिस्तानी सेना ने इन आतंकियों के खिलाफ सैन्य कार्रवाई शुरू की। बावजूद इसके, दिसंबर 2007 में बैतुल्लाह महसूद ने TTP के गठन का ऐलान किया। इस संगठन ने अफगानिस्तान में तालिबान से जुड़े रणनीतिक संबंध बनाए, क्योंकि दोनों ही इस्लामी शरिया कानून की स्थापना चाहते थे।
TTP और तालिबान के बीच सामरिक और रणनीतिक संबंध काफी गहरे रहे हैं। दोनों संगठनों ने वज़ीरिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान की सीमा से लगे पाकिस्तानी इलाकों में शरणस्थली, संसाधन और रणनीति साझा की। ऐसे में पाकिस्तान ने जब TTP को नियंत्रित करने के लिए तालिबान से मदद की गुहार लगाई, तो तालिबान ने इसे पाकिस्तान की आंतरिक समस्या मानते हुए हस्तक्षेप से इनकार कर दिया। तालिबान का कहना था कि पाकिस्तान को अपनी समस्या खुद ही सुलझानी चाहिए। इसके बावजूद पाकिस्तान यह आरोप लगाता रहा है कि अफ़ग़ानिस्तान में TTP के ठिकाने हैं और अफ़ग़ान धरती पाकिस्तान विरोधी गतिविधियों और देश में हमले के लिए इस्तेमाल हो रही है।
पाकिस्तान ने इस पर प्रतिक्रिया करते हुए अफ़ग़ानिस्तान में स्थित TTP के ठिकानों पर कई हमले किए। मार्च 2024 में पाकिस्तान के उत्तरी वज़ीरिस्तान के मीर अली क्षेत्र में एक सैन्य चौकी पर हमले में कई पाकिस्तानी सैनिक मारे गए थे। इसके बाद पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान में विभिन्न ठिकानों पर हमला किया। इन हमलों के बाद अफग़ानिस्तान सरकार ने सोशल मीडिया पर एक बयान जारी किया, जिसमें कहा गया कि पाकिस्तानी विमानों ने अफ़ग़ानिस्तान के पकतीका और खोस्त प्रांतों पर बमबारी की। इस हमले में पांच महिलाओं और तीन बच्चों सहित आठ लोग मारे गए थे। अफ़ग़ानिस्तान ने इस हमले की कड़ी निंदा की और पाकिस्तान से इस तरह के हमले बंद करने की चेतावनी दी।
अफ़ग़ान तालिबान के प्रवक्ता जबीहुल्लाह मुजाहिद ने बयान में कहा कि पाकिस्तान की यह बमबारी अफ़ग़ानिस्तान के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है और इसके परिणाम पाकिस्तान के लिए नुकसानदायक हो सकते हैं। इस बयान के बाद अफग़ानिस्तान की ओर से पाकिस्तान पर जवाबी गोलीबारी की गई, जिसमें भारी हथियारों का इस्तेमाल हुआ। अफग़ान तालिबान के रक्षा मंत्री ने दावा किया कि उन्होंने पाकिस्तानी सैनिकों को निशाना बनाया।
अभी हाल ही में 25 दिसंबर, 2024 को पाकिस्तान की ओर से एक और हवाई हमले के बाद अफ़ग़ानिस्तान के रक्षा मंत्रालय ने पाकिस्तान को चेतावनी दी कि यदि ऐसे हमले जारी रहते हैं तो वे जवाबी कार्रवाई करेंगे। उसने कहा कि पाकिस्तान ने अफ़ग़ानिस्तान के पकतीका प्रांत के बरमल इलाके में शरणार्थी कैंप पर बमबारी की, जिसमें कई लोग मारे गए और कई घायल हुए। पकतीका पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच डूरंड रेखा पर स्थित एक महत्त्वपूर्ण प्रांत है। अफ़ग़ान तालिबान ने पाकिस्तान के हवाई हमलों को अपनी संप्रभुता पर हमला माना और इस पर कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। तालिबान ने चेतावनी दी है कि यदि पाकिस्तान ने इन हमलों को जारी रखा तो वे जरूरी जवाबी कदम उठाएंगे।
निष्कर्ष
इस प्रकार, दोनों देशों के बीच यह बढ़ता हुआ तनाव और संघर्ष उनके रिश्तों को और भी जटिल बना रहा है। तालिबान ने अब तक पाकिस्तान की कई मांगों को नजरअंदाज किया है। विशेष रूप से, तालिबान ने TTP के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई नहीं की है, जिससे पाकिस्तान की नाराजगी बढ़ी है। तालिबान की सफलता ने TTP को प्रेरित किया है, जो अफगानिस्तान के मॉडल को पाकिस्तान में लागू करना चाहता है। पाकिस्तान की सेना पर TTP के खिलाफ कार्रवाई करने का भारी दबाव है। चीन भी इस मामले में सक्रिय भूमिका निभा रहा है, क्योंकि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) परियोजनाओं पर काम कर रहा है और वहाँ चीनी कर्मचारी सुरक्षित नहीं हैं। इसके अलावा, अफगानिस्तान में तालिबान शासन भारत के साथ संबंध सुधारने की कोशिश कर रहा है, जो पाकिस्तान के लिए चिंता का विषय है। यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि दोनों देश इन तनावों को कैसे सुलझाते हैं और क्षेत्र में स्थिरता कैसे बनाए रखते हैं।
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