प्रश्न- हिंसा के नैतिक औचित्य पर विचार कीजिए। क्या कुछ परिस्थितियों में इसे नैतिक माना जा सकता है? अगर हाँ, तो उपयुक्त उदाहरण दीजिये। (200 शब्द)
उत्तर- हिंसा एक जटिल और नैतिक दृष्टि से संवेदनशील विषय है, जिसे सामान्यतः मानव गरिमा और जीवन के विरुद्ध मानते हुए अनैतिक ठहराया जाता है। फिर भी, कुछ परिस्थितियों में इसे नैतिक औचित्य प्रदान किया जा सकता है, विशेष रूप से जब यह बड़े उद्देश्य या न्याय की स्थापना के लिए अपरिहार्य हो। इसका विश्लेषण प्रयोजनवाद (Teleology) और नियमवाद (Deontology) जैसे नीतिशास्त्रीय सिद्धांतों के माध्यम से किया जा सकता है।
प्रयोजनवाद के अनुसार, किसी कार्य की नैतिकता उसके परिणामों पर आधारित होती है। यदि हिंसा से अधिकतम भलाई, न्याय, या मानवाधिकारों की रक्षा संभव हो, तो इसे नैतिक ठहराया जा सकता है। उदाहरणस्वरूप, आतंकवाद के खिलाफ सैन्य कार्रवाई, जो समाज की सुरक्षा सुनिश्चित करती है, प्रयोजनवादी दृष्टिकोण से नैतिक मानी जाती है।
इसके विपरीत, नियमवाद किसी कार्य की नैतिकता को उसके नियमों और कर्तव्यों पर आधारित करता है, परिणाम चाहे जो भी हो। इस दृष्टिकोण में हिंसा को अनैतिक माना जाता है, क्योंकि यह मानव जीवन और गरिमा का उल्लंघन करती है। उदाहरण के लिए, महात्मा गांधी का अहिंसा पर आधारित आंदोलन नियमवाद का अनुकरण करता है, जहाँ साधनों की नैतिकता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाती है।
कुछ परिस्थितियों में हिंसा नैतिक मानी जा सकती है, जैसे:
- भुखमरी के समय जानवरों का वध: यदि किसी क्षेत्र में खाद्य संकट उत्पन्न हो, तो जानवरों का शिकार जीवित रहने के लिए नैतिक माना जा सकता है।
- आतंकवाद या दमन के खिलाफ कार्रवाई: समाज और राष्ट्र की सुरक्षा के लिए पुलिस या सैन्य बल द्वारा हिंसात्मक कदम उठाना प्रयोजनवाद के अनुसार न्यायसंगत हो सकता है।
निष्कर्षतः, हिंसा का नैतिक औचित्य परिस्थितियों, उद्देश्य, और साधनों पर निर्भर करता है। जहाँ प्रयोजनवाद इसे परिणामों की दृष्टि से उचित ठहरा सकता है, वहीं नियमवाद इसे हर स्थिति में अस्वीकार्य मानता है। नीतिशास्त्र में कांट के कर्तव्य पर आधारित सिद्धांत और गीता के निष्काम कर्म योग, दोनों, कर्म की नैतिकता पर गहन विचार करने का सुझाव देते हैं। वहीं, मार्क्सवादी दृष्टिकोण वर्ग संघर्ष को औचित्यपूर्ण ठहराते हुए हिंसा को कुछ स्थितियों में उचित मानता है।
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