भारतीय संसद: इतिहास, संरचना, कार्य और महत्व

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भारतीय संसद (Indian Parliament): एक विस्तृत विश्लेषण

भारतीय संसद (Indian Parliament) न केवल नीति निर्माण करने से संबंधित है बल्कि परीक्षा व कौतूहल की दृष्टि से भी एक व्यापक और रोचक विषय है। इसकी महत्ता न केवल किसी परीक्षार्थी के लिये ही है बल्कि यह किसी भी भारतीय के लिये भी उतना ही महत्त्वपूर्ण व जानने योग्य है जितना कि विभिन्न परीक्षार्थियों के लिये। यह स्वयं में इतने विषयों को समेटे हुए है कि इसे एक दो लेख में कवर नहीं किया जा सकता है। इसका अपना ही एक जहाँ है। इसलिये इसे हम एक लंबे लेख के माध्यम से समझने का प्रयास करेंगे। इसके अंतर्गत हम संसद के इतिहास, संरचना, कार्यप्रणाली और इसकी महत्त्वपूर्ण उपलब्धियों के बारे में जानेंगे। लेकिन इससे पहले आप बताएँ कि ‘संसद’ क्या है? यह शब्द सुनकर आपके मन में क्या ख्याल आता है?

हो सकता है आप कुछ ऐसा सोचते होंगे कि ‘संसद’ एक ऐसी धुरी है जो देश की राजनीतिक व्यवस्था की नींव है। एक ऐसा स्थान जो लोकतंत्र में प्रत्येक विचार का केंद्र बिंदु है। एक ऐसा भवन जहाँ देश की नीतियाँ तय होती हैं। क्या आप ऐसा ही सोचते हैं? कमेंट करके बताएँ।

What is a 'Parliament'

असल में संसद शब्द के जिक्र के साथ ही हमारे आँखों के सामने हर्बर्ट और लुटियंस द्वारा डिज़ाइन किया एक इमारत दौड़ जाती है। वो इमारत जिसे हम संसद भवन या आम बोलचाल की भाषा में संसद कहते हैं। हालाँकि हमारी संसद का नया भवन बन चुका है, लेकिन उस पुराने भवन की यादें हमारे जेहन में आज भी जिंदा हैं और हो भी क्यों न। इस भवन ने न जाने कितने ऐतिहासिक पलों को खुद में समेटे हुए है। लोकतंत्र का मंदिर कहलाने वाला यह भवन आज भी अपनी उस छाप के साथ मौजूद है जिसे 8 अप्रैल, 1929 को क्रांतिकारी भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने बहरी अंग्रेज सरकार के कानों तक देश की सच्चाई की गूंज पहुँचाने के लिये बम मार कर छोड़ा था। इस भवन से उस ऐतिहासिक भाषण Tryst with Destiny यानी ‘नियति से साक्षात्कार’ की गूंज भी सुनी जा सकती है, जिसे 15 अगस्त, 1947 को आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू ने दुनिया को सुनाया था। यह उन उद्देश्यों, संकल्पों का भी गवाह रहा है जिसकी हमारे संविधान निर्माताओं ने यहाँ से उद्घोषणा की थी। और यह उस काले दिन यानी 13 दिसम्बर, 2001 का भी साक्षी है जब आतंकवादी ताकतों ने अपने नापाक इरादों से इसकी छवि धूमिल करने का प्रयास किया था।

सही कहा जाए तो यह संसद न सिर्फ भारत की गुलामी का गवाह है, बल्कि इसने आजादी की जद्दोजहद देखी है तो उसकी उद्घोषणा भी सुनी है। यह भवन हमारे संविधान निर्माण की कर्म-भूमि भी है और संविधान के सपनों को साकार होते देखने का जीता-जागता गवाह भी है।

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संसद भवन का महत्व (Importance of Parliament House)

New Building of Indian Parliament

दिल्ली के संसद मार्ग के आखिरी छोर पर स्थित संसद भवन दिल्ली की सबसे शानदार इमारतों में से एक है। इसकी वास्तुकला में भारतीय वास्तुकला की गहरी छाप दिखाई पड़ती है, तो गंगा जमुनी तहजीब का संगम साफ नजर आता है। इसमें दीवारों और खिड़कियों पर छज्जा है तो संगमरमर की जाली भी। इसे भारतीय कारीगरों ने स्वदेशी वस्तुओं का उपयोग करके बनाया था। आपको जानकर हैरानी होगी कि इस ढाँचे की बनावट एक मंदिर से मिलती है। वह मंदिर मध्य प्रदेश के मितावली गाँव का चौसठ योगिनी मंदिर है, जो आज भी मौजूद है। 144 खम्भों पर टिका संसद भवन, केवल एक भवन नहीं है, बल्कि भारतीयों की आकांक्षाओं और सपनों को मुकम्मल करने की एक उम्मीद भी रहा है। इस तरह भारतीय संसद का इतिहास भारतीय लोकतंत्र की नींव और उसके विकास की कहानी है।

हालाँकि अब इस भवन की जगह सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट के तहत निर्मित नये त्रिकोणीय भवन ने ले ली है। 28 मई 2023 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने नये संसद भवन का उद्घाटन करके देश को समर्पित किया था। यह भवन पुरानी संसद के निकट मौजूद है। इसका डिजाइन आधुनिक भारत की भावना को प्रतिबिंबित करता है, और सांस्कृतिक विरासत के प्रति सम्मान भी बनाए हुए है। नया संसद भवन अधिक विशाल है, इसमें अधिक सांसदों को समायोजित करने की क्षमता है। नए संसद भवन में 1200 से अधिक सदस्यों के बैठने की व्यवस्था है। वहीं इसके लोकसभा कक्ष में 888 और राज्यसभा कक्षा में 384 सदस्यों के बैठने की व्यवस्था है। जबकि, पुराने भवन में राज्यसभा कक्ष में 250 सदस्यों और लोकसभा कक्ष में 550 सदस्यों के ही बैठने का इंतजाम था। इसके अलावा नए संसद में आधुनिक संचार और तकनीकी सुविधाएँ भी शामिल हैं, जो दक्षता और पारदर्शिता में वृद्धि करती हैं। नए संसद भवन का उद्देश्य भारतीय लोकतंत्र के विस्तार और विकास को समर्थन प्रदान करना है। यह भवन भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के लिए एक नई दिशा और ऊर्जा प्रदान करता है। असल में संसद ईंट-गारों से निर्मित महज एक भवन नहीं है। बल्कि, यह एक आदर्श, मूल्य और संकल्प है। यह हमारे लोकतांत्रिक, गणतांत्रिक और संघवाद के विचारों का प्रतिनिधि है और लोकसभा, लोकसभा तथा राष्‍ट्रपति इसके अंग हैं। यहाँ राष्ट्रपति हमारे गणतांत्रिक मूल्यों का, लोकसभा हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों का और राज्यसभा संघवाद का प्रतीक है। गणतांत्रिक मूल्य समानता के अधिकार का प्रतीक है, तो लोकतांत्रिक मूल्य आजादी का। वहीं, संघवाद हमें एकता, भाईचारे और विविधताओं के सम्मान का संदेश देता है।

संसद का इतिहास (History of Parliament)

History Of Parliament

अगर संसद की उत्पत्ति की बात करें तो इसके संबंध में कई थ्योरियाँ प्रचलित हैं। कोई कुछ कहता है तो कोई कुछ… हालाँकि ज्यादातर लोगों का मानना है कि इसकी उत्पत्ति प्राचीन यूनान के सिटी स्टेट्स से हुई है, जिसे 13वीं सदी में इंग्लैंड ने आधुनिक रूप दिया। वहीं गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड के अनुसार आधुनिक संदर्भ में मानें तो सबसे पहली ज्ञात विधान सभा इराक में 2800 ईसा पूर्व में मौजूद थी। जबकि 930ई. में आइसलैंड में बुलाई गई पहली सभा औपचारिक संसदीय प्रणाली का सबसे प्रारंभिक संस्करण है। इस राष्ट्रीय सभा में देश के सर्वोच्च नेता पूरे समुदाय की उपस्थिति के साथ कानून पर निर्णय लेने और न्याय करने के लिये मिलते थे। यूनेस्को के अनुसार 1188ई. में आज के स्पेन में स्थित लीओन के राजा अल्फोंसो-IX ने तीन राज्यों के प्रतिनिधियों को बुलाकर एक बैठक की थी। इसे दुनिया की पहली संसद माना जाता है। ब्रिटेन में 1236ई. में राजा और उसके सलाहकारों की एक बैठक का आयोजन हुआ, जिसे वहाँ की पहली संसद माना जाता है।हालाँकि,कई नए शोधों में भारत को इन संस्थाओं के उद्भव की जननी माना गया है। जैसा कि संसदीय प्रणाली को अपनाते हुए जवाहर लाल नेहरू ने भी कहा था-“यह प्रणाली हमारी पुरातन परम्पराओं के अनुकूल है।

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देखा जाए तो भारत में वैदिक काल से ही लोकतांत्रिक-संसदीय संस्थाएँ जैसे कि सभा, समिति आदि कार्य कर रही थीं। बौद्ध धर्म के संघ से भी हमें ऐसे प्रमाण मिलते हैं। दूसरी ओर, 12वीं सदी में ही आधुनिक संसद के सभी मूल्यों को समेटे ‘अनुभव मंडप’ जैसी संस्था भी कार्यरत थी। अनुभव मंडप की स्थापना बासवन्ना द्वारा कर्नाटक में की गई थी। आधुनिक संसद के मूल्यों को समेटे इस संस्था को भारत में संसद के शुरुआती संस्करण के रूप में देखा जा सकता है, जहां रहस्यवादी संत, दार्शनिक और आम लोग, अर्थव्यवस्था, संस्कृति और आध्यात्मिकता से जुड़े विभिन्न विषयों पर चर्चा करने के लिये इकट्ठे हुआ करते थे। यहाँ न धार्मिक दिवार थी, न लिंग भेद की असमानता। किसी भी धर्म, जाति और लिंग के लोग यहाँ विचार-विमर्श कर सकते थे। इस मामले में यह बिलकुल आज के लोकतान्त्रिक संसद के करीब नजर आता है, जहाँ आकर असमानता की सभी दिवार गिर जाती हैं, सभी भेद मिट जाते हैं।

यही कारण है कि डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने भी कहा था कि जब यूरोप के निवासी बर्बर और खानाबदोश परिस्थितियों में रह रहे थे, तब भारत सभ्यता के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच चुका था। जब यूरोप के लोग खानाबदोश थे, तब भारत की अपनी संसदीय संस्थाएँ थीं। इसलिये विश्व में सबसे महान प्राचीन सभ्यता का दावा करने वालों में भारत का नाम शीर्ष पर है।

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इन बातों से इतना तो साफ है कि संसद का अर्थ नीति निर्माण में आम लोगों की भागीदारी से है, वह चाहे सीधे तौर पर हो या अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से। आधुनिक संदर्भ में भारत में संसदीय व्यवस्था ब्रिटेन से आई है। लेकिन यह मानना गलत होगा कि ब्रिटेन जैसी संस्थाएँ भारत में प्रतिस्थापित कर दी गई हैं। जिस रूप में संसद आज भारत में मौजूद है, उसका क्रमिक विकास भारत में ही हुआ है। यह औपनिवेशिक विरासत नहीं है, बल्कि हमारे प्राचीन मूल्यों को समेटते हुए आजादी की लड़ाई के दौरान प्राप्त मूल्यों की धरोहर है।

Indian parliament and Constitution

इसका निर्माण 1833 के चार्टर एक्ट से शुरू हुआ, जिसमें पहली बार कार्यपालिका परिषद से भिन्न एक विधायी परिषद की झलक मिलती है। तत्कालीन समय में यह परिषद् भारतीयों की प्रतिनिधि संस्था भले नहीं थी, लेकिन जैसे-जैसे संघर्ष बढ़ता गया, इन संस्थाओं का धीरे-धीरे भारतीयकरण होता गया। जैसे कि 1853 के चार्टर एक्ट द्वारा पहली बार क्षेत्रीय प्रतिनिधित्व आरम्भ हुआ तो वहीं कार्यकारी परिषद् में विधि सदस्य की नियुक्ति आरम्भ हुई। 1861 के भारत परिषद् अधिनियम द्वारा पहली बार 3 भारतीय सदस्य विधायी परिषद् में नियुक्त हुए। ये 3 सदस्य बनारस के महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह, पटियाला के महाराजा नरेन्द्र सिंह और सर दिनकर राव थे। भारतीय परिषद् अधिनियम 1892 ने पहली बार चुनाव प्रणाली शुरू की और बजट पर पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार दिया तो 1909 के अधिनियम द्वारा वायसराय की कार्यकारी परिषद् में पहली बार एक भारतीय सत्येन्द्र प्रसाद सिन्हा की नियुक्ति हुई, मुस्लिमों के लिये पृथक निर्वाचन आरम्भ हुआ। 1919 के मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार द्वारा केंद्र में पहली बार द्विसदनात्मक विधायिका स्थापित हुई, जिसका परिष्कृत रूप आज हमारे सामने लोकसभा और राज्यसभा के तौर पर है। भारत शासन अधिनियम, 1935 ने इन संस्थाओं को आज की संसदीय व्यवस्था के बहुत करीब ला दिया। यही कारण रहा कि हमारे संविधान का भी सर्वाधिक हिस्सा इसी से प्रेरित है।

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आजादी के बाद 1947 में एक ओर संविधान निर्माण का काम जोरों पर था, तो वहीं अंग्रेजों के जाने के बाद संसदीय व्यवस्था में उपजे शून्य को भरना भी जरूरी था। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 के तहत भारत की संविधान सभा को पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न निकाय घोषित किया गया था। इसी के तहत संविधान सभा भारत की पहली पूर्ण भारतीय संसद बनी। हालाँकि, जीवी मावलंकर समिति के सुझाव पर संसद और संविधान सभा के बीच विभेद रखते हुए दोनों के लिये अलग-अलग अध्यक्षों का चुनाव किया गया। संविधान सभा की अध्यक्षता जहाँ डॉ. राजेंद्र प्रसाद को मिली, तो वहीं जीवी मावलंकर नव गठित संसद के अध्यक्ष बने। 1951 तक जब तक नई सरकार का गठन नहीं किया गया, यह प्रक्रिया जारी रही। लेकिन 13 मई, 1952 को अस्तित्व में आई संसद पूर्ण रूप से भारत की पहली लोकतांत्रिक, प्रभुत्व सम्पन्न संसद बनी।

भारतीय संसद की संरचना (Structure of the Indian Parliament)

Structure of Indian Parliament

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 79 में संसद की संरचना का जिक्र है। इसके अनुसार संसद के तीन हिस्से हैं लोकसभा, राज्यसभा और राष्ट्रपति। राज्यसभा जैसा कि इसके नाम से ही पता चलता है, यह राज्यों की परिषद् है। इस सदन में राज्य विधान सभा सदस्यों द्वारा चुनकर आए लोग राष्ट्रीय स्तर पर राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 80 के तहत इसका निर्माण किया गया है। यह स्थायी निकाय है जिसे कभी भंग नहीं किया जा सकता। हालाँकि इसके सदस्य स्थायी नहीं होते हैं। इनका कार्यकाल 6 वर्ष का होता है।

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अब संसद के दूसरे हिस्से पर आते हैं, जिसे लोकसभा के नाम से जाना जाता है। संविधान के अनुच्छेद 81 के तहत निर्मित यह राज्यसभा से अलग लोगों का सदन है। इसके सदस्य वयस्क मताधिकार के आधार पर सीधे जनता द्वारा चुने जाते हैं। इसका कार्यकाल यूँ तो 5 वर्ष निर्धारित है, लेकिन बहुमत के अभाव में इसे निर्धारित समय से पहले भी भंग किया जा सकता है। गौर  करने वाली बात है कि राज्यसभा को ऊपरी सदन कहते हैं और लोकसभा को निचला सदन कहा जाता है। जबकि अगर पावर के मामले में देखा जाए तो लोकसभा कई मामलों में राज्यसभा पर भारी पड़ जाती है। ये मामले क्या हैं और क्या नहीं, इसे हम किसी अन्य लेख में समझेंगे।

इन दोनों के अलावा संसद का तीसरा हिस्सा राष्ट्रपति है। संविधान के अनुच्छेद 52 में इसका प्रावधान किया गया है। हालाँकि राष्ट्रपति दोनों सदनों में से किसी का भी सदस्य नहीं होता है। शायद इसलिये यह सवाल अक्सर उठता है कि जब संसद के कार्यों में राष्ट्रपति भाग ही नहीं लेता, तो आखिर उसे संसद का हिस्सा क्यों माना जाता है। लेकिन इसका जवाब यह है कि वो सीधे तौर पर इसमें भले भाग न ले, लेकिन संसद ऐसा कोई कानून लागू नहीं कर सकती जिस पर राष्ट्रपति की रजामंदी न हो। यही वजह है कि राष्ट्रपति संसद का अभिन्न अंग है।

संसद के कार्य (Functions of the Parliament)

Functions of the Parliament UPSC

असल में संसद के बारे में जब हम विचार करते हैं तो बस उसके विधायी कार्यों का ही जिक्र आता है। लेकिन संसद का काम केवल कानून बनाना नहीं होता है, बल्कि यह उसके कामों का केवल हिस्सा भर है। संसद का काम लोक कल्याण या दूसरे मुद्दों पर विचार-विमर्श करना, वित्तीय प्रबंध करना, संवैधानिक मूल्यों को लागू करना भी है। संसद विधायी, कार्यकारी, वित्तीय और अर्धन्यायिक कार्य भी करती है। जैसे बजट तैयार करना, कर नियमों (Tax Rules) को लागू करना, अपराध रोकने के प्रयास करना, अपने सदस्यों को कैसे दण्डित किया जाए इसके प्रावधान करना, नई चुनौतियों से कैसे निपटा जाए इस पर व्यापक विचार करना, ये वो काम हैं जिन्हें हमारी संसद करती है। आधुनिक समय में तो संसद का कार्य और भी जटिल हो गया है। अपने समक्ष आने वाले सभी मामलों पर संसद गहराई के साथ विचार नहीं कर पाती है। इसे देखते हुए संसद के अंदर कई समितियाँ काम करती है, जिन्हें संसदीय समितियाँ कहते हैं। संसदीय समिति से तात्पर्य उन समितियों से है, जो सदनों द्वारा नियुक्त या निर्वाचित की जाती हैं अथवा लोकसभा अध्यक्ष या राज्यसभा सभापति द्वारा नाम-निर्देशित की जाती हैं। ये समितियाँ उसी के निर्देश के मुताबिक काम करती हैं और अपना प्रतिवेदन सदन को प्रस्तुत करती हैं। ये समितियाँ दो तरह की होती हैं तदर्थ और स्थायी समिति। तदर्थ समितियों को कुछ विशेष काम के लिये बनाया जाता है और काम पूरा होते ही उन्हें भंग कर दिया जाता है।

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चूँकि, सदन में सभी विशेषज्ञ लोग चुनकर तो नहीं जाते हैं, ऐसे में इतनी विशेषज्ञता का काम कौन संभालता है? क्या आपने इस पर कभी सोचा है? दरअसल, यह काम सचिवालय द्वारा किया जाता है। सचिवालय कार्य निष्पादन में सदन का सहयोग करते हैं। संविधान के अनुच्छेद 98 के तहत इन सचिवालयों का गठन किया जाता है। इसके तहत दोनों सदनों के लिये अलग कार्यालयों का प्रावधान है। ये सचिवालय एक पृथक निकाय होते हैं, जो लोकसभा और राज्यसभा में क्रमशः लोक सभा स्पीकर और राज्यसभा के सभापति के पूर्ण नियंत्रण और मार्ग-निर्देशन में कार्य करते हैं।

इस प्रकार संसद देश के समस्त नागरिकों का प्रतिनिधित्व करते हुए सुचारु रूप से कार्य संपादन करके न केवल देश को प्रगति के मार्ग पर ले जाती है बल्कि इसके समस्त लोगों के कल्याण का मार्ग भी चुनती है। देखा जाए तो भारत की संसद अपने पूर्ण रूप में देश की समस्त विविधता को समेटते हुए सभी विचारों का प्रतिनिधित्व करती है। इसका देश की राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण स्थान है। और कई दशकों से यह भारत की तस्वीर को गढ़ रही है। संसद न केवल भारत की जनता की आवाज है, बल्कि उसकी आकांक्षाओं और सपनों की उम्मीद भी है। यह जनता में निहित प्रभुसत्ता का सार है, जैसा कि हमारे संविधान की उद्देशिका में भी लिखा गया है कि ‘सम्पूर्ण शक्ति का स्रोत भारत के लोग हैं, जिनमें प्रभुसत्ता निहित है। यह हमारे संसदीय लोकतंत्र के प्रादुर्भाव का साक्षी रहा है और भविष्य में उसे वैभव के शिखर पर पहुँचाने की जिम्मेदारी भी इसी के पास है। उम्मीद है आपको इसे पढ़कर मजा आया होगा और आप नई जानकारी से ओत-प्रोत हुए होंगे। आपको यह कैसा लगा, इस पर हमें अपनी राय जरूर दें।


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