पिछले एक वर्षों से अधिक समय से जारी इजरायल-हमास युद्ध (Israel–Hamas War) लगातार नए-नए रुख लेता जा रहा है तो वहीं युद्ध में रोज नए- नए चेहरे सामने आते जा रहे हैं। इस नए चेहरे में ही एक चेहरा है ईरान (Iran) का। कुछ दिन पहले तक जो ईरान पर्दे के पीछे से हमास और हिजबुल्ला की सहायता कर इजरायल को पटकनी देने पर आमदा था, अब वह खुलकर सामने से इजरायल से लड़ने को तैयार है। ईरान के इस कदम से जहाँ दुनिया पहले से ही सकते में थी, उसकी साँसे और तब अटक गयीं जब यह खबर आयी कि ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई (Ayatollah Ali Khamenei) शुक्रवार को यानी आज 4 अक्टूबर को जुमे की नमाज का नेतृत्व करने वाले हैं। साथ ही वो इस मौके पर एक सार्वजनिक उपदेश भी देंगे। अंतिम बार जब खामेनेई ने ऐसा किया था तो अमेरिकी बेस दहल उठे थे। ऐसे में इस बार कयास यह है कि ईरान इजराइल पर सबसे बड़ा हमला करने जा रहा है।
दरअसल, पश्चिम एशिया, समकालीन इतिहास में एक ऐसा भौगोलिक क्षेत्र है, जहाँ भू-राजनीतिक संबंधों का गणित लगातार बदलता रहता है। वहाँ आए दिन ऐसे घटनाक्रम घटते रहते हैं कि दुनियाभर की निगाहें खुद-ब-खुद उनकी ओर मुड़ जाती हैं। यहाँ से कभी देशों द्वारा आपसी संबंधों को बहाल करने की खबरें सामने आती हैं, तो कभी आपसी टकराव की बात सामने निकलकर आती है। बीते साल जहाँ इस क्षेत्र के कट्टर दुश्मन के तौर पर जाने वाले ईरान और सऊदी अरब ने दोस्ती का हाथ बढ़ाया, तो वहीं ईरान और अज़रबैजान एक दूसरे से लड़ने पर उतारू थे। अक्टूबर 2023 में कट्टरवादी संगठन हमास ने गाज़ा पट्टी से इजराइल पर अभूतपूर्व हमला किया। इसके जवाब में इजराइल ने गाज़ा पट्टी पर हवाई हमलों के साथ ज़मीनी हमलों की एक शृंखला शुरू की, जो अभी तक जारी है। इसके बाद यमन के हूथी संगठन द्वारा फिलिस्तीन के समर्थन में लाल सागर में कई हमलों को अंजाम दिया गया। इस तरह बीते साल इस क्षेत्र में नाटकीय रूप से कई राजनीतिक घटनाक्रम घटित होते रहे। बीते अप्रैल महीने में ईरान ने इजराइल पर ड्रोन और मिसाइलों से हमला किया था। इसके बारे में ईरान ने कहा था कि इजराइल पर उसका हमला सीरिया में ईरानी वाणिज्य दूतावास को निशाना बनाने के जवाब में था, जिसमें उसके वरिष्ठ सैन्य कमांडरों की मौत हो गई थी। तब कयास लगाए जा रहे थे कि इजराइल इस हमले का जवाब जरूर देगा। इसके अगले ही महीने खबर आई कि ईरानी राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी और विदेश मंत्री हुसैन अमीर-अब्दुल्लाहियन की एक हेलिकॉप्टर क्रैश में मौत हो गई। इस दुर्घटना में ईरान के पूर्वी अज़रबैजान प्रांत के गवर्नर मलिक रहमती, पायलट और सुरक्षा प्रमुख समेत क्रू. की भी मौत हो गई थी। इसके घटना के पीछे कई जानकारों ने साजिश होने के भी कयास लगाए थे। इनमें से कुछ ने इसके पीछे इजराइल का हाथ होने की भी आशंका जताई थी। हालाँकि, ईरान के सरकार की इस घटना पर अंतिम जाँच रिपोर्ट में इस दुर्घटना का मुख्य कारण घने कोहरे सहित मौसम की स्थिति बताया गया था। इसके बाद इजराइल और ईरान (Iran and Israel) के तनाव पर्दे के पीछे चला गया। लेकिन, बीते 1 अक्तूबर की देर रात इजराइल पर सैकड़ों मिसाइल दाग कर इलाके में हलचल पैदा कर दी। इस तरह इस साल ईरान का इजराइल पर यह दूसरा बड़ा हमला है। इसके बाद इजराइली सेना ने लेबनान के बेरूत शहर के दक्षिण में जबरदस्त बमबारी शुरू कर दी। इस हमले में हिजबुल्लाह संगठन का हथियार डिवीजन का सलाहकार मोहम्मद यूसुफ अनीसी मारा गया। साथ ही हिजबुल्लाह का संचार भवन भी मलबे में तब्दील हो गया। इससे पहले इजराइल ने सीरिया में भी हमला किया। सीरिया में इजराइली हमलों में हिजबुल्लाह चीफ नसरल्लाह के दामाद के मारे जाने की खबर है। इजराइली सेना के मुताबिक उसने लेबनान में हिज़्बुल्लाह के लगभग 200 ठिकानों पर हमला किया है, जिसमें हथियार-भंडार सुविधाएँ और निगरानी चौकियाँ शामिल हैं। ऐसे में इस बात की आशंका बढ़ गई है कि ईजराइल और ईरान आमने सामने युद्ध के मैदान में आ सकते हैं। कुल मिलाकर दोनों देशों का तनाव एक व्यापक क्षेत्रीय युद्ध में बदल सकता है। हालाँकि, अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहना है कि उन्हें विश्वास नहीं है कि मध्य पूर्व में ‘पूरी तरह से युद्ध’ होने वाला है। उधर, ईरान के सुप्रीम लीडर अली खामेनेई करीब 5 साल बाद आज यानी शुक्रवार की जुमे की नमाज अदा कराने वाले हैं। अंतिम बार जब खामेनेई ने ऐसा किया था तो अमेरिकी बेस दहल उठे थे। ऐसे में इस बार कयास लगाये जा रहे हैं कि है इजराइल पर सबसे बड़ा हमला होने वाला है। इस लिहाज से देखें तो आज का दिन पश्चिम एशिया सहित दुनिया के लिये नाजुक साबित हो सकता है।
हालाँकि, ईरान-इजराइल संबंध (Iran-Israel Relations) हमेशा आज की तरह तनावपूर्ण नहीं थे। पूर्व में दोनों देशों के रिश्ते काफी अच्छे हुआ करते थे।दरअसल, पश्चिम एशिया में मौजूद इन दोनों देशों के बीच के संबंधों की कहानी उतनी ही पेचीदा है जितनी कि इस क्षेत्र की राजनीति। इसकी शुरुआत उस समय से शुरू होती है जब दुनिया ने इजराइल के रूप में एक नए देश का जन्म देखा। साल 1948 में जब फिलिस्तीन के बिभाजन के बाद यहूदी देश के रूप में इजराइल का निर्माण हुआ था, तो लगभग सभी मुस्लिम देश इसके खिलाफ थे। इस खिलाफत के चलते 1948 में ही पहला अरब-इजराइल युद्ध हुआ। इस युद्ध में ईरान ने हिस्सा नहीं लिया था। इजराइल के जीत के बाद ईरान ने उसके साथ संबंध स्थापित कर लिये थे। इजराइल को मान्यता देने वाला ईरान दूसरा मुस्लिम बहुल देश था। उससे पहले तुर्की ऐसा कर चुका था।
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दरअसल, इजराइल ने अपने पहले प्रधान मंत्री डेविड बेन गुरियन ने उस समय अरब राज्यों की शत्रुता का मुकाबला करने के लिये ‘परिधि सिद्धांत’ का निर्माण किया था। इसके तहत इजराइल ने पश्चिम एशिया में गैर-अरब देशों के साथ गठबंधन बनाने का प्रयास किया था। असल में इजराइल का विरोध करने वाले करीब 22 अरब देश मुख्य रूप से सुन्नी थे, इसलिए ईरान, जो मुख्य रूप से शिया मुस्लिम बहुल देश था, एक तार्किक भागीदार प्रतीत होता था। ऐसे में गैर-अरब साझेदारों के रूप में प्रमुख तौर पर तुर्की और ईरान सामने आए। ये दोनों ऐसे देश थे जिनका उस समय पश्चिम की ओर एक समान रुझान था। ये दोनों ही देश उस दोरान पश्चिम एशिया में खुद को अलग-थलग महसूस करते थे। उस दौर में ईरान पर पहलवी राजवंश के शासक शासन कर रहा था। इसे अमेरिका का समर्थन प्राप्त था, जैसा कि इजराइल को था। ये भी एक कारण था कि दोनों देशों ने एक-दूसरे के साथ संबंध बनाए रखे। 1950 के दशक और 1979 के पहले तक इजराइल और ईरान ने ‘घनिष्ठ सैन्य और खुफिया संबंध’बना लिये थे। ऐसा इसलिये क्योंकि दोनों देशों ने पूरे क्षेत्र में सोवियत प्रभाव और उग्र अरब राष्ट्रवाद के उदय पर आपसी चिंताओं को साझा किया था। हालांकि, 1951 में मोहम्मद मोसाद्देग के ईरान के प्रधान मंत्री बनने के बाद चीजें बदल गईं। उन्होंने देश के तेल उद्योग का राष्ट्रीयकरण कर दिया, जिस पर ब्रिटेन का एकाधिकार था। दरअसल, मोसाद्देग ने इजराइल के साथ संबंधों को क्षेत्र में पश्चिमी हितों की पूर्ति के रूप में देखा। ऐसे में उन्होंने इजराइल के साथ अपने रिश्ते तोड़ लिये। लेकिन 1953 में मोसाद्देग का तख्तापलट करके बाहर का रास्ता दिखा गया। उनकी जगह पश्चिमी देशों के समर्थक शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को देश की कुर्सी पर बैठाया गया।
आगे साल 1958 में इजराइल ने ईरान और तुर्की के साथ खुफिया-साझाकरण साझेदारी बना ली थी। इसके बाद 1970 के दशक में ईरान और इजराइल ने संयुक्त सैन्य अनुसंधान और विकास परियोजनाएँ शुरू कीं और अनुमानित 1.2 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अनुबंध पर हस्ताक्षर किए। इसमें ईरान ने हथियारों के बदले में इजराइल को तेल की आपूर्ति की। इसके बाद ईरान इजराइली हथियारों का सबसे बड़ा आयातक बन गया था। दोनों देशों के बीच रिश्ते इतने मधुर थे कि इजराइल ने ईरान की राजधानी तेहरान में एक दूतावास भी खोला था। 1970 के दशक में दोनों ने राजदूतों का आदान-प्रदान किया। व्यापार संबंध बढ़े और जल्द ही ईरान इज़रायल के लिए एक प्रमुख तेल प्रदाता बन गया 1970 के दशक में दोनों देशों में एक-दूसरे के राजदूत भी थे। इसके अलावा दोनों के बीच व्यापारिक रिश्ते भी बढ़े और जल्द ही ईरान इजराइल को तेल निर्यात करने वाला प्रमुख देश बन गया। दोनों ने एक तेल पाइपलाइन की स्थापना भी की थी, जिसका उद्देश्य ईरानी तेल को इजराइल और फिर यूरोप भेजना था। दोनों देशों के बीच रक्षा और सुरक्षा सहयोग भी हो रहा था। लेकिन, इस दोस्ती की दास्तान में एक अचानक मोड़ आया और टकराव की शुरुआत हो गई।
दरअसल, फरवरी 1979 में धार्मिक नेता अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी देश वापस लौटे थे, जिन्हें साल 1964 में जबरन ईरान से निर्वासित कर दिया गया। वापस लौटने के बाद इन्होंने ईरान में इस्लामी क्रांति का नेतृत्व किया। इस क्रांति में 11 फरवरी 1979 को तत्कालीन शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को सत्ता से बेदखल कर दिया गया। शाह को उखाड़ फेंकने के बाद ईरान में एक धार्मिक राज्य यानी इस्लामी गणतंत्र की स्थापना हुई और इस्लामी क्रांति के जनक अयातुल्ला रूहोल्लाह खुमैनी को ईरान का सर्वोच्च नेता चुना गया। इस घटनाक्रम के बाद इजराइल के प्रति ईरानी शासन का दृष्टिकोण बदल गया और इसे फ़िलिस्तीनी भूमि पर कब्ज़ा करने वाले देश के रूप में देखा जाने लगा। नए लोकतांत्रिक शासन ने संयुक्त राज्य अमेरिका को ‘महा शैतान’ और इजराइल को ‘छोटा शैतान’ करार दिया। इसके बाद ईरान ने इजराइल के साथ सभी संबंध तोड़ दिए। नागरिक अब यात्रा नहीं कर सकते थे और उड़ान मार्ग रद्द कर दिए गए थे और तेहरान में इजराइली दूतावास को फिलिस्तीनी दूतावास में बदल दिया गया। साथ ही तेहरान में इजराइली दूतावास को ज़ब्त करके फ़िलिस्तीन लिबरेशन ऑर्गनाइज़ेशन या PLO को सौंप दिया। PLO उस समय अलग फिलिस्तीन राज्य के लिए इजराइल के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व कर रहा था। इसके अलावा खुमैनी ने मुसलमानों के पवित्र महीने रमज़ान के हर आखिरी शुक्रवार को क़ुद्स दिवस (Quds Day) के रूप में घोषित किया। तब से पूरे ईरान में फ़िलिस्तीनियों के समर्थन में इस दिन बड़ी रैलियाँ आयोजित की जाती रही हैं। गौरतलब है कि जेरूसलम को अरबी में अल-कुद्स के नाम से जाना जाता है। इस तरह अब ईरान फ़िलिस्तीनियों का सबसे बड़ा हिमायती बन गया था।
इस बदलाव ने ईरान को इजराइल विरोधी समूहों जैसे हिजबुल्लाह और हमास का प्रमुख समर्थक बना दिया। वह लेबनान और सीरिया जैसे मुल्कों के जरिए इजरायल पर हमले भी करवाने लगा। बदले में इजराइल भी ऐसे कई समूहों को समर्थन देता है जो ईरानी प्रतिष्ठानों का हिंसक विरोध करते हैं। ईरान की मानें तो इसमें कई समूह शामिल हैं जिन्हें वह आतंकवादी संगठन के रूप में नामित करता है। इनमें यूरोप स्थित संगठन MEK यानी मोजाहिदीन-ए खल्क, ईरान के दक्षिण-पूर्वी सिस्तान और बलूचिस्तान प्रांत में सुन्नी संगठन तथा इराकी कुर्दिस्तान में स्थित कुर्द सशस्त्र समूह शामिल हैं। इस तरह ईरान, जो कभी इजराइल का सहयोगी था, अब उसके लिए एक रणनीतिक चुनौती बन गया। दोनों देशों के बीच का तनाव समय के साथ और गहरा होता गया। हालाँकि, यह तनाव दोनों के बीच विचारधाराओं या प्रॉक्सी समूहों तक सीमित नहीं है। इसे ईरान के परमाणु कार्यक्रम ने और अधिक बढ़ाया है। दरअसल, इजराइल, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को अपने अस्तित्व के लिए खतरे के रूप में देखता है। इस पृष्ठभूमि में दोनों देशों पर अपनी धरती के भीतर और बाहर एक-दूसरे के खिलाफ हमलों की एक लंबी श्रृंखला के पीछे होने का आरोप है, जिसे वे सार्वजनिक रूप से नकारते हैं। इसे shadow war या ‘छाया युद्ध’ के रूप में जाना जाता है। इसमें ईरान का परमाणु कार्यक्रम कुछ सबसे बड़े हमलों के केंद्र में रहा है। इजराइल ने ईरान को कभी भी परमाणु बम विकसित नहीं करने देने की कसम खाई है। माना जाता है कि 2000 के दशक में ईरान की परमाणु सुविधाओं को बड़ा नुकसान पहुँचाने वाले ‘स्टक्सनेट मैलवेयर’ के पीछे इजराइल और अमेरिका का हाथ था। इस वायरस ने इस सदी के पहले दशक में ईरानी परमाणु सुविधाओं को भारी नुकसान पहुँचाया। पिछले कुछ सालों में ईरान के परमाणु और सैन्य प्रतिष्ठानों पर कई ताबड़तोड़ हमले हुए हैं, जिसके लिए ईरान ने इजराइल को दोषी ठहराया है। इन हमलो में कई हाई-प्रोफ़ाइल परमाणु वैज्ञानिकों सहित कर्मियों को भी निशाना बनाया गया है। 2020 में ईरान के शीर्ष परमाणु वैज्ञानिक मोहसिन फखरीजादेह की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। दूसरी ओर, इजराइल और उसके पश्चिमी सहयोगी ईरान पर इजराइल को नुकसान पहुँचाने के लिये पर हमलों की एक श्रृंखला के पीछे होने का आरोप लगाते हैं। इसमें इजराइली स्वामित्व वाले तेल टैंकरों पर कई ड्रोन हमले और साइबर हमले शामिल हैं। ईरान से जुड़े इस्लामिक जिहाद समूह ने ब्यूनस आयर्स में इजराइली दूतावास को उड़ा दिया था। इसमें 29 लोगों की मौत हो गई थी। इससे कुछ ही समय पहले हिज़बुल्लाह नेता अब्बास अल मुसावी की हत्या कर दी गई थी। इस हमले के लिए इजराइल की खुफिया एजेंसी को ज़िम्मेदार ठहराया गया था। दोनों देशों के बीच का यह ‘छाया युद्ध’ 2021 में समुद्र तक पहुँच गया। उस साल इजराइल ने ओमान की खाड़ी में अपने जहाजों पर हमलों के लिए ईरान को दोषी ठहराया था। वहीं ईरान ने इजराइल पर लाल सागर में उसके जहाजों पर हमले का आरोप लगाया था। हमास द्वारा इजराइल पर किये गए हमले के पीछे भी ईरानी समर्थन होने की आशंका जताई गई थी।
लेकिन, अब ईरान ने इजराइल पर हमला करके जाहिर कर दिया है कि वो अब सिर्फ परदे के पीछे नहीं, बल्कि सामने से भी लड़ने के लिए तैयार है। जानकार मानते हैं कि इस हिम्मत के पीछे ईरान की वो ताकत है जो उसने पिछले कई दशकों में इजराइल के चारों तरफ शक्तिशाली हथियारबंद गुटों के रूप में तैयार की है। ईरान इन्हें प्रतिरोध की धुरी यानी एक्सिस ऑफ रेसिस्टेंस कहता है। इस शब्द का इस्तेमाल ईरान के प्रभाव वाले एक गठबंधन के लिए किया जाता है, जो मुख्य रूप से क्षेत्र में पश्चिमी प्रभाव और इजरायली नीतियों का विरोध करता है। इसमें प्रभावशाली हिजबुल्ला, हूती और हमास जैसे चरमपंथी संगठन शामिल हैं, जो ईरान के इशारे पर पश्चिमी देशों के खिलाफ कार्रवाईयों को अंजाम देने के साथ ही क्षेत्र में राजनीतिक उथल-पुथल में भी हिस्सा लेते हैं। इस तरह, ईरान और इजराइल के बीच संबंधों का इतिहास विभिन्न राजनीतिक और सामरिक बदलावों से प्रभावित होता रहा है। अब दोनों के बीच की लड़ाई क्या रुख अख्तियार करेगी, यह तो समय ही बताएगा। इतना जरूर कहा जा सकता है कि अभी पश्चिम एशिया के लिये यह समय बड़ा ही कठिन है, क्योंकि जानकारों की मानें तो ईरान और इजराइल के बीच हमलों का दौर कभी भी एक बड़े युद्ध में बदल सकता है। अगर ऐसा होता है तो इससे वैश्विक राजनीति के भविष्य पर गहरा प्रभाव पड़ सकता है।
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