आखिर भारत-चीन (India-China) को दोस्त होना क्यों चाहिये?
तो सबसे पहले इस पृष्ठभूमि को समझ लीजिये कि भारत-चीन को दोस्त होना क्यों चाहिये? दरअसल, जब पश्चिमी देश अपने पैरों पर खड़ा होना सीख रहे थे, तब चीन और भारत में विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताएँ फल-फूल रही थीं। दोनों देश कृषि-व्यापार में समृद्ध थे, तो सामाजिक-सांस्कृतिक रूप में भी इनकी समृद्धि का सानी कोई नहीं था। दोनों देशों के बीच आर्थिक-सांस्कृतिक रिश्ते भी सदियों पुराने हैं। दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में चीन और भारत के बीच संपर्क का पहला लिखा रिकॉर्ड मध्य एशिया में झांग कियान के अभियान के बाद का मिलता है। वहीं पहली शताब्दी ईस्वी के दौरान बौद्ध धर्म भारत के बाहर चीन तक फैल गया। सिल्क रोड के माध्यम से भारत और चीन के बीच व्यापारिक संबंधों ने इस दौरान दोनों क्षेत्रों के बीच आर्थिक संपर्क प्रदान किया।
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ऐतिहासिक पन्नों को पलटें तो हम पाएँगे कि इतने शांतिपूर्ण तरीके से सामाजिक-सांस्कृतिक-व्यापारिक-दार्शनिक आदान-प्रदान के उदाहरण विश्व में और कहीं नहीं हैं। एक देश ने दुनिया को ग्रेट वाल बनाकर सकते में डाला, तो दूसरे ने ताजमहल का निर्माण कर दुनिया को मंत्रमुग्ध कर दिया। कहते हैं इतिहास में दोनों देश इतने समृद्ध थे कि विश्व की लगभग 50% से अधिक जी.डी.पी. का उत्पादन इन्हीं दोनों देशों द्वारा होता था। लेकिन, दोनों ही देश औपनिवेशिक शोषण के शिकार हुए और अपनी बादशाहत खो बैठे। यह औपनिवेशिक इतिहास भी दोनों देशों को करीब लाता है। हालाँकि, सात दशक से भी अधिक समय से दोनों देशों के बीच रिश्ते सामान्य नहीं हैं। मगर, इतिहास की क्रूरता को भूलकर आज जब दोनों देश एक बार फिर ऐतिहासिक समृद्धि को वापस पाने के लिये प्रयासरत हैं, तो ऐसे में दोनों देशों को एक प्रयास अपने संबंधों को पुनर्जीवित करने के लिये भी करना चाहिये।
यदि दोनों देश साथ आ गये तो क्या हो सकता है?
असल में, चीन और भारत दोनों ही दुनिया की सबसे बड़ी आबादी वाली देश हैं, तो साथ ही सबसे तेजी से उभरती आर्थिक महाशक्ति भी हैं। यदि ये दोनों देश एक साथ आ गए तो एशिया ही नहीं बल्कि पूरे विश्व की तस्वीर बदलने का दम-खम रखते हैं। इन दोनों देशों के साथ आ जाने से न केवल भू राजनीतिक गतिशीलता बदलेगी, बल्कि आर्थिक-सांस्कृतिक परिवर्तन भी आएंगे, तो वहीं क्षेत्रीय स्थिरता बढ़ेगी। यदि चीन और भारत साथ आ गए तो अमेरिका की बादशाहत टूटेगी। इससे एकध्रुवीयता से दुनिया बहुध्रुवीयता में बदलेगी और आज जो शक्ति का केंद्रण पश्चिमी और यूरोपीय देशों के हाथ में है, वह एशिया के पास होगा। इससे शक्ति का समान वितरण होगा। दोनों देशों का सहयोग एशियाई राजनीति और अर्थव्यवस्था को भी प्रभावित करेगा। जहाँ भारत और चीन दोनों ही नवाचार में आगे हैं, वहीं संसाधन के मामले में भी समृद्ध है। चीन पहले से ही भारत में निवेश का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है, तो वहीं कई चीनी कंपनियाँ भारत में कार्य कर रही हैं। दोनों देश मिलकर जहाँ सेमीकंडक्टर, इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों में सहयोग के द्वारा दुनिया में नंबर 1 बन सकते हैं, तो वहीं डिजिटल टेक्नोलॉजी में भी गूगल, एक्स (ट्वीटर), फेसबुक आदि की जगह ले सकते हैं। इसके साथ ही दोनों देश मिलकर स्पेस टेक्नोलॉजी में भी अमेरिकी वर्चस्व को चुनौती दे सकते हैं। दोनों देशों के बीच संयुक्त आर्थिक उद्यम, व्यापार साझेदारी और बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं में भी वृद्धि से विकास को बढ़ावा मिलेगा। संयुक्त बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं जैसे रेलवे, राजमार्ग और बंदरगाह से माल और लोगों की आवाजाही के सुविधाजनक बनेगी। चीन और भारत के बीच कनेक्टिविटी बढ़ने से नए व्यापारिक मार्ग और आर्थिक गलियारे खुल सकते हैं। इससे एशिया का और अधिक आर्थिक सशक्तिकरण होगा। वहीं दोनों देशों की साझेदारी चीन के बेल्ट रोड योजना के माध्यम से सिल्क रोड को नवीनीकृत कर सकती है। इससे न केवल व्यापार बढ़ेगा बल्कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी बढ़ेगा।
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हालाँकि, यह भी सच है कि भारत और चीन के बीच दुनिया का सबसे बड़ा क्षेत्रीय विवाद है, जो लगभग उत्तर कोरिया के आकार के समान है। दोनों देशों के पास दुनिया की दो सबसे बड़ी सेनाएँ हैं, जो खतरनाक हथियारों से लैस हैं। वर्तमान में चीन और भारत के बीच अक्सर सीमा विवाद और तनाव होता रहता है। ऐसे में यदि दोनों देशों में टकराव हुआ तो परिणाम भयानक होंगे। लेकिन यदि चीन और भारत मित्र होते हैं तो एशिया को स्थिरता से लाभ होता। उनके सहयोग से क्षेत्र में शांति आ सकती है, जिससे संघर्ष का खतरा कम हो सकता है। इन दोनों देशों के समृद्ध सांस्कृतिक इतिहास और मैत्रीपूर्ण संबंध सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देंगे। इसके साथ ही आपसी समझ को बढ़ावा मिलेगा और पड़ोसी देश भी अपने विवादों को सुलझाने पर जोर देंगे। ये स्थिरता हिंद-प्रशात (Indo-Pacific) क्षेत्र के संसाधनों के बेहतर दोहन को भी संभव बनाएगी। तो वहीं इस क्षेत्र में पश्चिमी देशों के प्रभाव को भी कम करेगी।
अमेरिकी डॉलर को चुनौती मिल सकती है-
यदि, भारत-चीन दोस्त होते हैं तो सबसे बड़ी चुनौती अमेरिकी डॉलर को मिलेगी। चीन और भारत दोनों ही देशों ने इसकी बानगी रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद पेश कर दी थी। जब दोनों देशों ने मिलकर स्विफ्ट से बाहर निकाले जाने के बावजूद रूसी अर्थव्यवस्था को गिरने से बचा लिया। आज दोनों देशों के बीच जहाँ 100 बिलियन डॉलर से भी अधिक का व्यापार होता है वहीं दोनों देश कच्चे तेल के सबसे बड़े आयातक देश भी हैं। जबकि रूस, ईरान, संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब आदि कच्चे तेल के निर्यातक देशों से दोनों के ही अच्छे संबंध हैं। वहीं ब्रिक्स, एस.सी.ओ. (The Shanghai cooperation organisation) जैसे बहुध्रुवीय मंच से भी दोनों देश मिलकर डॉलर के खिलाफ दूसरे देशों को साथ ला सकते हैं। साथ ही इससे भारत के UPI (Unified Payments Interface) का भी विस्तार होगा, इससे पश्चिमी देशों की बैंकिंग प्रणाली (Banking System) जैसे कि स्विफ्ट प्रणाली को भी धक्का लगेगा। ऐसे में दोनों देशों की दोस्ती अमेरिकी डॉलर के वर्चस्व को तोड़ने का काम करेगी। वहीं, भारत-चीन के साथ आने से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी को भी मजबूती मिलेगी।
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आंतकवाद के विरुद्ध लड़ाई में सहयोग मिल सकता है-
इसके अलावा, भारत की आतंकवाद के खिलाफ मुहीम में सबसे बड़ा रोड़ा चीन और पाकिस्तान है। भारत जब भी संयुक्त राष्ट्र में आतंकवाद के विरुद्ध प्रस्ताव लाता है, तो चीन उस पर वीटो कर देता है। पाक समर्थित भारत प्रायोजित आतंकवाद में भी चीन की महत्ती भूमिका है। ऐसे में यदि भारत-चीन साथ होते हैं तो आतंकवाद के खिलाफ दुनिया ज्यादा एकजुट नजर आएगी। इससे विश्व में आतंकवाद के खिलाफ नई मुहीम छिड़ेगी। साथ ही भारत में नक्सलवाद हो या उत्तरपूर्वी राज्यों में अलगाववाद में कमी आएगी। इससे भारत राष्ट्र के तौर पर अधिक स्थिर होगा।
परमाणु निःशस्त्रीकरण को बढ़ावा मिलेगा-
भारत-चीन के साथ आने से विश्व में परमाणु निःशस्त्रीकरण को भी बढ़ावा मिलेगा। चूँकि भारत और चीन ने परमाणु हथियार एक दूसरे से सुरक्षा के लिये ही बनाये हैं, ऐसे में यदि दोनों देश दोस्त बन जाएँगे तो इसकी आवश्यकता नहीं रह जाएगी। इसके अलावा यदि भारत और चीन दोस्त बन जाते हैं, तो एक-दूसरे के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले संसाधनों पर हुए व्यय को वे अपने लोगों के विकास के लिए इस्तेमाल कर सकेंगे। इससे दोनों देशों में व्याप्त समस्याएँ जैसे बेरोजगारी, गरीबी, असमानता आदि को रोकने में वे कामयाब हो पाएंगे।
निष्कर्ष-
हालाँकि, ये सब सुनने-पढ़ने में तो बहुत अच्छा लग रहा है कि यदि ये दोनों देश करीब आ गये तो ऐसा होगा, वैसा होगा। पर अभी ये सिर्फ कल्पना है। हालाँकि, ऐसा संभव हो सकता है पर इस रास्ते में कई चुनौतियाँ हैं जैसे कि तिब्बत की स्वायत्तता का मुद्दा, सीमा विवाद, पूर्व के युद्ध, आर्थिक-रणनीतिक प्रतिद्वंदिता आदि। वैसे इन चुनौतियों के बावजूद यदि दोनों देश चाहें तो इन बाधाओं को दूर कर सकते हैं और एशिया को दुनिया का केंद्र बिंदु बना सकते हैं, जो विश्व शांति, समृद्धि और स्थिरता में महत्त्वपूर्ण योगदान देने में सक्षम हो सकता है। इस प्रकार दोनों देश एक बेहतर भविष्य की दिशा में काम कर सकते हैं, बशर्ते वे अपनी पारस्परिक बाधाओं को सुलझाने के लिए ठोस प्रयास करें।
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