जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru)
हर आदमी में होते हैं, दस बीस आदमी, जिसको भी देखना हो कई बार देखना…
किसी व्यक्ति का मूल्यांकन करते हुए हमें निदा फ़ाज़ली जी की यह बात हमेशा याद रखनी चाहिये। अक्सर हम व्यक्ति के मूल्यांकन में गलती कर देते हैं क्योंकि हम उसे एक साँचे में ढालकर देखते हैं, जबकि आदमी हमेशा सही या गलत या ब्लैक एंड व्हाइट ही हो यह जरूरी नहीं। व्यक्ति इनमें से कहीं बीच में भटक रहा होता है। किसी व्यक्ति के निर्णय को सही-गलत कहने से पहले हमें उन परिस्थितियों की भी जाँच करनी चाहिये, जिनमें ये निर्णय लिये गए। जैसा की डेनिंग ने मैकियावली के लिया कहा था “वह अपने युग का शिशु है”। इस कथन से वह भी यही दोहराना चाहता था कि हर व्यक्ति अपने युग से प्रभावित होता है। आज देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) की चर्चा हर चौक-चौराहों और सोशल मीडिया बहस का हिस्सा बन चुकी है, गाहे-बगाहे लोग अपने-अपने नजरिये से उनका मूल्यांकन करते रहते हैं। पर क्या नेहरू को कोई नजरिया, कोई विचारधारा परिभाषित कर सकती है? शायद नहीं, नेहरू वह शख्श थे ही नहीं, जिसे विचारधारा के चश्मे में बांधकर देखा जा सके। वह एक समाजवादी थे, साम्यवादी थे और कहीं न कहीं पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थक भी थे। वे कट्टर गांधीवादी भी थे और उनके सबसे बड़े विरोधी भी। वे अहिंसक भी थे और बोस, भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों के समर्थक भी। उनमें लोकतंत्रवादी विचार कूट-कूट कर भरा हुआ था तो वहीं उनमें तानाशाही की हल्की झलक भी दिखाई दे जाती है। वे हिटलर, स्टालिन के घोर विरोधी थे तो वहीं स्टालिन की मृत्यु पर संसद में उसे ‘शांतिकामी पुरुष’ कहने से भी नहीं हिचकिचाते थे। नेहरू अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था में गुट निरपेक्ष सिद्धांत के प्रतिपादक भी रहे तो रूसी साम्यवाद के समर्थक भी। इन परिस्थितियों में नेहरू को कैसे किसी विचारधारा में बाँधा जा सकता है?
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गांधी ने कहा था ‘मैं क्या बोलता हूँ, मेरा मूल्यांकन इससे न करके, मैं क्या जीता हूँ, इससे किया जाए’। नेहरू का मूल्यांकन भी क्या इसी विधि से नहीं किया जाना चाहिये? हालाँकि यह मूल्यांकन करते हुए हमें जेम्स मिल की यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि ‘व्यक्ति कितना भी महान क्यों न हो उसके सामने हमें अपनी स्वतंत्रता गिरवी नहीं रखनी चाहिये।’ अर्थात कोई भी व्यक्ति आलोचनाओं से परे नहीं हो सकता। भारत के सन्दर्भ में यह बात और भी जरूरी हो जाती है जहाँ नायकत्व की पूजा और भक्ति परंपरा प्राचीन काल से ही जनमानस में अपनी पैठ बना चुकी है। मतलब साफ है नेहरू भी आलोचनाओं से परे नहीं थे लेकिन उन आलोचनाओं को जानने से पहले जरूरी है नेहरू को जानना।
नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को तत्कालीन समय के प्रसिद्ध वकीलों में से एक मोतीलाल नेहरू के घर हुआ था। नेहरू पर उनके पिता के वज्रहाथ होने की बात से तो सभी वाकिफ ही हैं। जैसा कि गांधी ने उनकी मृत्यु पर कहा भी था “मोतीलाल का सबसे अलौकिक गुण है जवाहरलाल के लिये असीम प्यार”। लेकिन नेहरू पर अपनी माता स्वरुप रानी के प्रभाव को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। स्वयं नेहरू के शब्दों में ‘‘पिता के लिये मेरी प्रशंसा और स्नेह हमेशा मजबूत बनी रही हालाँकि उसमें डर भी शामिल था। लेकिन मेरी माँ के साथ ऐसा नहीं है। मुझे उससे कोई डर नहीं था, क्योंकि मैं जानता था कि वह मेरे द्वारा किये गए हर काम को माफ कर देगी। मैंने पिता के बारे में जितना देखा, उससे कहीं अधिक माँ को देखा।”
माँ जो स्वयं एक स्वतंत्रता सेनानी थी, उसने अपने बेटे को हमेशा इस राह में आने को प्रेरित ही किया। वह बचपन से ही उसे रामायण-महाभारत सुनाकर अन्याय और अधर्म के विरुद्ध आवाज उठाने की शिक्षा देती रही, जिसने युवा होने पर वृहद् आकार लिया।
नेहरू का जन्म एक साधन सम्पन्न कश्मीरी ब्राह्मण के घर हुआ था। ऐसे में उन्होंने बचपन से कभी गरीबी नहीं देखी। लेकिन अपने विश्व भ्रमण के दौर में लगभग सभी समुदायों से उन्हें मिलने का मौका मिला, इस दौरान उन्होंने अपनी समझ विकसित की। नेहरू को गरीबी को करीब से जानने का पहला मौका मिला 1920-22 के दौर में संयुक्त प्रान्त के किसानों के आंदोलन में भागीदारी करके। इस सम्बन्ध में स्वयं नेहरू ने लिखा है ‘इस दौरे से मेरे सामने हिंदुस्तान की नई तस्वीर उभरने लगी, जहाँ लोगों के पास तन ढंकने का कपड़ा नहीं, जहाँ लोग भूखे रहते हैं, जहाँ लोग बेहद गरीब हैं। इसे देखकर मेरा सर शर्म और अफ़सोस से झुक गया और मुझे अपनी आराम पसंद जिन्दगी से घृणा हो गई’। गांधी के सान्निध्य ने उनकी इस समझ को और परिपक्वता दी। आलम यह रहा कि फर्स्ट क्लास बॉगी में सफर करने वाले नेहरू रेल की जनरल बॉगी में सफर करने लगे। पूर्व राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद अपने संस्मरण में जवाहरलाल के इस ट्रांसफॉर्मेशन का मार्मिक वाकया देते हैं। वे लिखते हैं ‘एक बार वे थर्ड क्लास का टिकट लिये बम्बई जाने के लिये ट्रेन का इंतजार कर रहे थे तो वहीं स्टेशन पर मोतीलाल नेहरू से मुलाकात हो गई। उनके कहने पर राजेंद्र प्रसाद ने भी अपनी टिकट बदल कर सेकंड क्लास ले ली। लेकिन जवाहरलाल ने थर्ड क्लास टिकट से ही यात्रा की, जिसे देखकर मोतीलाल की आँखें छलक आई।’ मोतीलाल ने अपने कई पत्रों में दुःख जताते हुए यह भी लिखा है कि ‘पिता जितनी एक सप्ताह में कमा लेता है, बेटा उसे साल भर में भी खर्च नहीं कर पाता है।’ नेहरू में यह परिवर्तन गांधी के संपर्क में ही संभव हो सका। इस पर नेहरू ने कहा भी था कि ‘गांधी ने मुझे एक झटके में सीधा ही खींच लिया’। नेहरू में आये इस परिवर्तन की झलक हमें स्वतंत्रता के बाद नेहरू द्वारा अपनाई गई नीतियों में भी साफ नजर आती है। वह चाहे योजना आयोग का गठन हो, भूमि सुधार के प्रयास हो या पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम को शुरु करने की नीति गरीबी के प्रति उनकी समझ ने ही उन्हें ये कदम उठाने को प्रेरित किया।
नेहरू ने प्रारंभिक शिक्षा अपने घर पर निजी शिक्षकों से ही प्राप्त की। हालाँकि उनमें से किसी के व्यक्तित्व का प्रभाव नेहरू पर नहीं पड़ सका। अपने थीओफिस्ट शिक्षक मिस्टर ब्रुक्स से प्रभावित होकर 13 वर्षीय नेहरू थिओसोफी आंदोलन से जुड़े, लेकिन जल्दी ही उनका मोह भंग भी हो गया। वैसे बचपन में उन्होंने हिंदी और संस्कृत की शिक्षा भी ली। हिंदी और संस्कृत के प्रति उनका यह प्रेम ताउम्र बना रहा। इसे हम आजादी के बाद चले भाषा विवाद में भी देख सकते हैं। हालाँकि वे हमेशा कहा करते थे कि ‘जिस तरह हिंदुस्तानी थोपी नहीं जा सकती उसी तरह हिंदी को भी थोपा नहीं जा सकता’। शायद इसलिये संसद में अंग्रेजी भाषा के समर्थन में विधेयक पेश करते हुए भी उन्होंने लोगों से यही कहा कि हिंदी का काम चुपचाप करते रहो। वैसे बचपन में उनके रुझानों का ठीक-ठाक पता लगाना कठिन ही है। बरगद के वृक्ष की महत्ता उसके शैशव काल में कहाँ ही पता चलती है।
नेहरू 1905 में इंग्लैंड के एक प्रमुख स्कूल हैरो गए, जहाँ वे दो साल रहे। हैरो से वे ट्रिनिटी कॉलेज, कैंब्रिज गए, जहाँ उन्होंने प्राकृतिक विज्ञान में ऑनर्स की डिग्री हासिल की। पिता की इच्छा पूरी करते हुए कैंब्रिज छोड़ने पर उन्होंने लंदन के इनर टेंपल में एक बैरिस्टर के रूप में भी योग्यता प्राप्त की। वैसे नेहरू का अकादमिक करियर किसी भी तरह से उत्कृष्ट नहीं था। उनके अपने शब्दों में उन्होंने अपनी परीक्षाएँ “न तो महिमा और न ही अपमान के साथ उत्तीर्ण की।”
यह संयोग ही है कि जिस इनर टेम्पल ने ब्रिटेन के कई प्रधानमंत्रियों को जन्म दिया उसने भारत के प्रथम प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व निर्माण में भी भूमिका निभाई। अपने 7 वर्ष के इंग्लैंड प्रवास को नेहरू ने कुछ यूँ बयां किया है- “मैं पूर्व और पश्चिम का अजीब मिश्रण बन गया हूँ, हर जगह से बाहर, घर में कहीं नहीं।” उनकी इस बेचैनी में हम सब भी खुद को कहीं न कहीं उलझा पाते हैं। “जहाँ हैं वहाँ के हैं नहीं और जहाँ के हैं वहाँ हैं नहीं।”
वैसे नेहरू कि ये बेचैनी ताउम्र बनी रही। अपनी इस बेचैनी का हल खोजने के लिये ही शायद 1912 में नेहरू ‘भारत कि खोज’ में वापस भारत आये थे। हालाँकि उनकी तलाश शायद मुकम्मल तब हुई जब स्वतंत्रता आन्दोलन में भाग लेने के दौरान उनका भारत दौरा शुरू हुआ। इस दौरान वे भिन्न संस्कृति, समुदाय और संप्रदाय के लोगों से मिले, उन्होंने गरीबी, अत्याचार, शोषण का निक्रिष्ट रूप देखा और उससे निकलने की लोगों में छटपटाहट भी। भारत आकर नेहरू ने 6 वर्षों तक इलाहाबाद में वकालत भी करी लेकिन कभी सफल नहीं हो पाए। कहते हैं न कि “जिसका काम एक ही जैसा हो और करे तो ठेंगा बाजे” शायद नेहरू इसके लिये बने भी नहीं थे। यह भी संयोग ही है कि दो असफल वकील भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन की सबसे बड़ी धुरी बने।
नेहरू वकील के तौर पर अपने पिता जितनी प्रसिद्धि नहीं प्राप्त कर पाए। शायद इसका कारण भी उनके पिता ही रहे, जिनकी छत्रछाया में नेहरू बीज से पेड़ कभी नहीं बन सके। हालाँकि यह कहावत मशहूर है कि ‘नेहरू के बायोलॉजिकल पिता मोतीलाल जरुर थे, लेकिन मोतीलाल का राजनीतिक पिता उनका पुत्र था’। वैसे एक वकील के तौर पर नेहरू की असफलता का एक बड़ा कारण औपनिवेशिक शक्ति से मुक्त होने कि उनके अन्दर पनप रही बेचैनी को भी माना जा सकता है। हालाँकि उसे प्राप्त करने के न उनके पास साधन थे, न रणनीति। स्वतंत्रता आन्दोलन में अपनी आहुति देने को तैयार पर दिग्भ्रमित नेहरू गांधी के संपर्क में आने के बाद अपनी भूमिका भी तलाशते हैं और अपने पिता और गुरु की छाया से निकलकर अपनी अलग पहचान बनाने का जोखिम भी उठाते हैं।
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गांधी से नेहरू की मुलाकात सर्वप्रथम 1916 के लखनऊ अधिवेशन में हुई थी। दिनकर ने अपनी पुस्तक ‘लोकदेव नेहरू’ में इस मुलाकात की तुलना रामकृष्ण परमहंस और नरेंद्र दत्त के पहली मुलाकात से की है। दोनों ही जगह शिष्य शंकालु और अनभिज्ञ रहता है जबकि गुरु खुद को साधा हुआ। इस पहली मुलाकात में शायद ही किसी ने किसी पर अपनी छाप छोड़ी होगी। लेकिन 1917 में चम्पारण, 1918 में खेड़ा और अहमदाबाद मिल सत्याग्रह ने गांधी को ‘महात्मा’ बना दिया, रही-सही कसर जलियांवाला बाग हत्याकांड के बाद गांधी के आह्वाहन ने पूरी कर दी। देश का हर नागरिक उस आह्वाहन पर गांधी की ओर खींचा चला आया, ऐसे में नेहरू कहाँ पीछे रहते। 1920 के असहयोग आंदोलन में देश के हर युवा की भाँति नेहरू ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया लेकिन 1922 के चौरी-चौरा कांड के बाद गांधी द्वारा आंदोलन वापस लिये जाने से उनका गांधी से मनमुटाव हो गया। यह वही दौर था जब आजाद, भगत सिंह जैसे युवा, क्रांतिकारी आंदोलन की ओर मुड़ चले। नेहरू को भी गांधी के इस कदम से धक्का लगा था लेकिन वे क्रांतिकारी आंदोलन की ओर क्यों नहीं मुड़े?
यह जानने के लिये यह जानना जरूरी है कि नेहरू के भीतर राजनीति की प्रेरणा गांधी जी ने नहीं भरी थी, वह पहले से ही मौजूद थी। जैसा कि दिनकर ने लिखा है 1912 में जिस साल जवाहरलाल विदेश से वापस आए, उसी साल उन्होंने प्रतिनिधि की हैसियत से कांग्रेस के पटना अधिवेशन में भाग लिया था। ‘ए बंच ऑव् ओल्ड लेटर्स’ की पहली चिट्ठी से भी यह स्पष्ट होता है कि सन् 1917 ई. में नेहरू भारतीय युवकों की राजनीति में गर्क हो चुके थे और नजरबन्द कार्यकर्ताओं को छुड़ाने के लिये किसी किस्म के आन्दोलन में भी शामिल थे।
इसके बावजूद बाद में उन्होंने क्रांतिकारी आंदोलन में सीधे तौर पर शिरकत क्यों नहीं की इसका नेहरू ने अपने कई भाषणों में जिक्र किया है। उनके शब्दों में “मुझे यह मानने में कोई झिझक नहीं कि मैं अहिंसा के अलावा भी दूसरे हथियारों का इस्तेमाल करूंगा, लेकिन जिस मुल्क से हम लड़ रहे हैं उसके सामने अहिंसा का हथियार ज्यादा ताकतवर है और पूरी दुनिया ने भी यही माना है।”
वैसे नेहरू ने सार्वजनिक रूप से हिंसा की तारीफ भले न कि लेकिन भगत सिंह के सबसे बड़े प्रशंसकों में से एक रहे। 8 अगस्त, 1929 को जवाहरलाल नेहरू (Jawaharlal Nehru) ने जेल में बंद भगत सिंह और उनके साथियों से मुलाकात भी की थी। उनकी फांसी के बाद नेहरू ने कहा था “जब भी इंग्लैंड की सरकार हमारे साथ कोई बात, कोई समझौता करना चाहेगी तब हमेशा हम दोनों के बीच भगत सिंह की लाश सामने होगी”। वहीं, आजाद के गोली लगने पर भी नेहरू उनकी तारीफ से कभी नहीं हिचकिचाए। उन्होंने कहा था “आप यह कभी मत सोचें कि हम लोग जो अहिंसा का रास्ता अपनाए हुए हैं, इन लोगों के मुकाबले ज्यादा अच्छे हैं”। अपनी इस अहिंसक लड़ाई में नेहरू ने लगभग 9 वर्ष जेल में भी बिताये। वैसे देखा जाए तो नेहरू हिंसा और अहिंसा के बीच एक संपर्क सूत्र बने हुए थे, जिसने युवाओं को कांग्रेस से जोड़े रखा।
कांग्रेस जिसे नौरोजी, बनर्जी, गोखले जैसे नेताओं ने जन्म दिया था उसे धार दी तिलक, लाला लाजपत राय ने और उसे जन-जन का हिस्सा बनाया गांधी ने। लेकिन उसे बुर्जवा वर्ग की गिरफ्त से निकालकर समाजवाद जैसा विचार दिया नेहरू ने। ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में इसके पहले ऐसा विचार नहीं पनपा था, लेकिन उसे राष्ट्रीय आन्दोलन में केंद्र बिंदु नेहरू ने बनाया। नेहरू ने स्वतंत्रता संघर्ष को वर्ग संघर्ष से जोड़ा। नेहरू पहले ऐसे कांग्रेसी बने, जिसने जमींदारी प्रथा, राजा-महाराजा पर सीधे प्रहार किया। 1929 में कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में अध्यक्षीय भाषण देते हुए उन्होंने सीधे कहा “मैं एक गणतांत्रिक और समाजवादी हूँ, मेरा राजा-महाराजा में कोई विश्वास नहीं है”।
नेहरू का समाजवाद में दृढ विश्वास था, लेकिन उनका समाजवाद मार्क्सवाद नहीं था। वे लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता को समाजवाद का आधार मानते थे। स्वयं उनके शब्दों में “समानता के बिना लोकतंत्र और स्वतंत्रता का कोई अस्तित्व नहीं है और समानता तब तक नहीं आ सकती जब तक उत्पादन के सभी साधनों पर निजी स्वामित्व है”। नेहरू द्वारा समाजवाद को स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़ने का यह अर्थ कतई नहीं था कि वे स्वतंत्रता से पहले समाजवाद लाना चाहते थे। जैसा कि उन्होंने 1936 में अपने भाषण में कहा था “समाजवाद से पहले स्वतंत्रता है लेकिन स्वतंत्रता का सबसे पहला लक्ष्य होना चाहिये शोषण से आजादी।” गांधी को नव स्वतंत्र भारत को रूप देने का मौका नहीं मिला लेकिन नेहरू के पास भारत को लेकर जो सपने थे उसे पूरा करने के भरपूर मौके भी थे। ऐसे में आजादी के बाद नेहरू अपने समाजवाद के लक्ष्य को कहाँ तक अमलीजामा पहना पाते हैं यह जानना भी जरूरी है।
आजादी के बाद नेहरू ने जिस आर्थिक व्यवस्था की नींव रखी वो सह-अस्तित्व पर टिका हुआ था, जिसमें निजी स्वामित्व की हसरतें भी पनप सकें और सरकारी व्यवस्था भी आर्थिक भागीदार बन सके। नेहरू के समाजवाद को तत्कालीन समय के कई विचारकों ने नेहरूवाद का नाम दिया है क्योंकि इस समाजवाद में न हिंसा की जगह थी न ही समाज के दो वर्गों का आपसी संघर्ष। नेहरू की इन नीतियों पर तंज करते हुए डी.डी. कौशाम्बी ने लिखा है -“बुर्जवा वर्ग को नेहरू की ठीक उसी प्रकार जरूरत है जिस प्रकार भारत को वर्गों की”। देखा जाए तो नेहरू न घोर मार्क्सवादी ही बन पाए और न पूंजीवादी।
वैसे नेहरू के समाजवाद से गांधी की आर्थिक नीतियाँ मेल नहीं खाती थीं। इस मुद्दे पर दोनों की तनातनी हमेशा बनी रही। स्वराज से पूर्ण स्वतंत्रता को कांग्रेस का लक्ष्य बनाने के लिये भी गांधी-नेहरू आपस में कई बार उलझे। नेहरू 1931 के गांधी-इरविन समझौते के भी खिलाफ रहे। सत्याग्रह आंदोलन वापस लिये जाने के गांधी के तर्क से नेहरू इतने खफा हुए कि उन्होंने चिट्ठी लिखकर कहा “मेरे भीतर जो कीमती धागा था वह टूट गया है और मैं बिल्कुल अकेला हो गया हूँ”। नेहरू गांधी के धार्मिक विचारों से भी खुद को कभी जोड़ नहीं पाए। जहाँ नेहरू के लिये धर्म निजी भावना थी वहीं गांधी के लिये यह जीवन दर्शन। नेहरू सच्चे अर्थ में धर्म निरपेक्ष थे और शायद भारत के ऐसे पहले प्रमुख व्यक्ति जिसने धर्म का सहारा लिये बगैर आम जनमानस के हृदय में अपनी विराट छवि बनाई। उनकी इस धर्मनिरपेक्षता की छवि हम संविधान में भी देख पाते हैं और तो और प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने धार्मिक सम्मेलन में भाग लेना भी बंद कर दिया था। इससे साफ है कि नेहरू और गांधी के व्यक्तित्व में अंतर के अनेक बिंदु थे लेकिन शायद प्रेम का कोई धागा भी था जो उन्हें हमेशा बाँधे रखता। इसलिये बात कितनी भी अलग होने की उठी हो लेकिन दोनों ने एक-दूसरे का साथ कभी नहीं छोड़ा।
यह शायद नेहरू का लचीलापन ही था कि अक्सर दो धुरियों के बीच भी वे संतुलन बैठाने में कामयाब हो जाते थे और जब लगता था कि गलती अपनी है तो उसे मानने से भी नहीं हिचकिचाते थे। गांधी के साथ ही पटेल से भी नेहरू के अनेक मुद्दों पर मतभेद रहे। नेहरू की आर्थिक नीतियों के पटेल कड़े आलोचक थे जबकि पटेल की धार्मिक राजनीती से नेहरू खफा रहते थे। कश्मीर और हैदराबाद को भारत में विलय करने के समय भी दोनों एक-दूसरे के सामने खड़े हो गये। कई बार बात इस्तीफों तक भी आन पड़ी लेकिन दोनों ने अपने मतभेदों को कभी देशहित पर हावी नहीं होने दिया। एक बार का वाकया है एडगर स्नो ने जवाहरलाल से पूछा कि आप पटेल के साथ मिलकर काम कैसे करते हैं? इस पर नेहरू ने कहा मैं जानता हूँ कि मेरे एक इशारे पर पटेल मंत्रिमंडल छोड़ देंगे और वे भी जानते हैं कि उनका इशारा पाते ही मैं मंत्रिमंडल से निकल जाऊँगा। लेकिन गांधी जी की याद हम दोनों को बाँधे हुए है। गांधी की मृत्यु के बाद जब सरदार पटेल ने इसकी जिम्मेदारी लेते हुए अपने इस्तीफे की पेशकश की तो नेहरू ने ही ने उन्हें समझाया कि इस समय हमारे साथ की देश को पहले से ज्यादा जरूरत है और गांधी भी यही चाहते थे।
जिस तरह नेहरू ने गांधी और पटेल के साथ सामंजस्य बैठाया था उसी तरह बोस के साथ भी नेहरू का सम्बन्ध उतार-चढ़ाव का रहा। दोनों की ही समाजवाद में उनकी रूचि ने उन्हें एक-दूसरे के करीब लाया था। कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता का जो प्रस्ताव 1929 में अपनाया था उसमें सबसे बड़ा योगदान नेहरू और बोस का ही रहा। बोस जब 1938 में कांग्रेस के अध्यक्ष बने तो नेहरू की अध्यक्षता में ही उन्होंने योजना आयोग का गठन किया। हालाँकि, गांधी और पटेल के साथ बोस के मतभेद के बाद नेहरू और बोस भी एक-दूसरे से दूर हो गये, इस पर अपनी किताब ‘नेहरू एंड बोस पैरेलल लाइव्स’ में रुद्रांग्शु मुखर्जी लिखते हैं, “सुभाष को विश्वास था कि वो और नेहरू मिलकर इतिहास बना सकते हैं, लेकिन नेहरू गांधी के बिना अपना भविष्य देखने के लिये तैयार नहीं थे। बोस नेहरू संबंधों के प्रगाढ़ न हो पाने की सबसे बड़ी वजह यही थी।” हालाँकि दोंनों के बीच परस्पर सम्मान में कमी नहीं आई। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि बोस ने आजाद हिंद फ़ौज की एक रेजिमेंट का नाम ‘नेहरू रेजिमेंट’ रखा था। तो वहीं नेहरू ने बोस की मृत्यु पर कहा था “भारत की आज़ादी के लिये संघर्ष में उनकी ईमानदारी में कोई संदेह नहीं हो सकता”। इतना ही नहीं नेहरू ने लगभग 20 वर्षों बाद अपने वकील का चोगा भी सिर्फ आजाद हिन्द फौज के सिपाहियों को दंड से बचाने के लिये पहना था। वहीं बोस के नारे ‘जय हिन्द’ को देश का नारा बनाकर नेहरू ने बोस के प्रति अपनी श्रद्धांजलि भी अर्पित की।
नेहरू सिर्फ स्वतंत्रता सेनानी ही नहीं थे, वे स्वतंत्र भारत के प्रथम वास्तुकार भी बने। संविधान सभा की कल्पना उन्होंने ही की थी। योजनाबद्ध विकास का स्वप्न सबसे पहले उन्होंने ही देखा था और समस्त संसार में भारत की भूमिका क्या होनी चाहिये, इसकी झांकी भी दुनिया के सामने उन्होंने ही प्रस्तुत की थी। इस झांकी में शांतिपूर्ण सह अस्तित्व शामिल था। चीन के साथ भी उन्होंने यही नीति अपनाई और पंचशील समझौते की नींव रखी। नेहरू के लिये, भारत और चीन एक साथ विश्व राजनीति में एक स्वतंत्र शक्ति की बीसवीं सदी की परिभाषा हो सकते थे जो पूर्व या पश्चिम में असंबद्ध है। इसलिये उन्होंने ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का नारा भी दिया। हालाँकि, नेहरू की सोच कपोल कल्पना साबित हुई और ऐसा हो न सका। लेकिन जैसा कि इतिहासकार श्रीनाथ राघवन कहते हैं- ‘नेताओं द्वारा निर्णय वास्तविक समय में किये जाते हैं, न कि विद्वानों द्वारा पूर्व-निरीक्षण में’। नेहरू के चीन के प्रति निर्णय को भी हमें इसी आईने में देखना चाहिये। नेहरू को चीनी विस्तारवाद की चिंता थी लेकिन यह एक शक था। इस शक का ही प्रमाण है कि उन्होंने 1952 में चीन में एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल से कहा कि ‘हमें चीन को हावी नहीं होने देना चाहिये। अन्यथा हम फिसलन भरे रास्ते पर चले जाएँगे। ‘दक्षिण पूर्व एशिया में बुनियादी चुनौती भारत और चीन के बीच है। यह चुनौती एशिया की रीढ़ की हड्डी में फैली हुई है।’ हालाँकि, नेहरू ने इस शक से ज्यादा उन मूल्यों, संस्कृतियों पर भरोसा किया जो भारत-चीन को एक साथ जोड़े रख सके, शायद इसलिये उन्हें चीनी कुठाराघात का सामना करना पड़ा। वैसे चीन के साथ नेहरू से जो गलतियाँ हुई हों, अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नेहरू की दूरदर्शिता आज भी मिसाल है। दो ध्रुवों के बीच नव स्वतंत्र राष्ट्रों को एक मंच पर नेहरू ही ला सकते थे। अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में गुट निरपेक्ष इसी सोच का परिणाम था। आजादी के 75 वर्षों बाद भी भारत के अपने पड़ोसी राष्ट्रों के सम्बन्ध में नेहरू द्वारा किये गए समझौते ही उन संबंधों का आधार हैं।
कश्मीर मुद्दे पर भी नेहरू को दोष देने से पहले हमें तत्कालीन समय में एक नजर जरुर दौड़ानी चाहिये। देखा जाए तो इतिहास नेहरू की स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि और कश्मीर को लेकर सावधानीपूर्वक योजना बनाने का गवाह है। 12 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान ने महाराजा के साथ एक स्टैंडस्टिल समझौते पर हस्ताक्षर किये, जबकि भारत ने ऐसा नहीं किया। 15 अगस्त से 26 अक्टूबर, 1947 तक 73 दिनों के दौरान जब कश्मीर स्वतंत्र था, भारत और जम्मू-कश्मीर के बीच संचार को उन्नत करने के उपाय किये गए ताकि आवश्यक आपूर्ति को सैनिक आपातकाल के मामले में भारतीय क्षेत्र से कश्मीर ले जाया जा सके। कश्मीर जैसे जटिल भू-भाग के लिये यह तैयारी जरूरी भी थी। वहीं कश्मीर पर भारत के दावे को वैधता प्रदान करने के लिये भारत के लिये एक कश्मीर सहयोगी जरूरी था। नेशनल कांफ्रेंस के शेख अब्दुल्ला ने भारत के लिये यही काम किया। इसलिये, नेहरू ने उन्हें कदम दर कदम सहयोग दिया। संविधान के अनुच्छेद 370 के तहत कश्मीर को जो विशेष दर्जा दिया गया, संविधान सभा में उस बहस के दौरान नेहरू भारत में थे ही नहीं, इसकी जानकारी पटेल ने नेहरू को दी थी। नेहरू ने 25 जुलाई, 1952 को मुख्यमंत्रियों को लिखे अपने पत्र में कहा था जब नवम्बर 1949 में हम भारत के संविधान को अंतिम रूप दे रहे थे, तब सरदार पटेल ने इस मामले को देखा। ये फैसला नेहरू का एकतरफा हो भी कैसे सकता था जिस पर देश की संविधान सभा ने सर्वसम्मत होकर फैसला लिया था। हालाँकि नेहरू पर यह आरोप भी लगते रहे हैं कि कश्मीर मुद्दे पर संयुक्त राष्ट्र जाकर नेहरू ने भारत की स्थिति कमजोर की। इस पर पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा का बयान भी गौर करने लायक है कि “बेशक, यह एक गलती थी, लेकिन यह भी सोचें कि अगर भारत नहीं जाता तो क्या होता? क्या होता अगर पाकिस्तान पहले संयुक्त राष्ट्र जाता? देखा जाए तो नेहरू की महानता इसमें नहीं है कि उन्होंने देश को कैसा आर्थिक मॉडल दिया, विदेशी संबंधों में कैसी रणनीतियाँ अपनाई, कश्मीर-हैदराबाद मुद्दे पर क्या किया। अपने तत्कालीन शासनाध्यक्षों से इतर नेहरू अपनी छवि गढ़ सके क्योंकि उन्होंने उस दौर में विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र की नींव रखी, जिस दौर में उनके समकालीन शासकों ने तानाशाही को अपनाया। उस दौर में उन्होंने सार्वभौमिक अधिकार की नींव रखी, महिलाओं को सामान अधिकार दिये, छुआछूत खत्म करने का प्रयास किया, लोगों को समानता का अधिकार दिया, जिस दौर में अमेरिका जैसे देशों में भी ऐसा संभव नहीं हो सका था। देश जब पर्याप्त रूप से अनाज भी नहीं उपजा पा रहा हो, जिसकी तीन चौथाई जनता अशिक्षित हो, बेरोजगारी चरम पर हो, धार्मिक उन्माद एक-दूसरे को लील जाने को तैयार हो उस देश को कोई उम्मीद दे सकता था तो वो नेहरू ही थे। जैसा कि बिपिन चंद्रा ने लिखा है कि ‘नेहरू का काल देश में आशा और अपेक्षा का काल था, उस दौरान देश में अपने भविष्य के प्रति एक आस्था थी, अपने भविष्य की नियति में एक विश्वास था’।
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